संस्कृत भाषा की पहुंच का प्रश्न

By: May 1st, 2017 12:05 am

संस्कृत विश्व की प्राचीन भाषा है, इसी की उत्पत्ति के संबंध मंे कहा गया है कि सृष्टि के समय ब्रह्मा ने वेदों के साथ इसकी रचना की। वैदिक साहित्य एक समय में नहीं लिखा गया है। लंबे समय में इसका निर्माण हुआ है। ऋग्वेद प्रथम वेद है, संसार की प्राचीन पुस्तक है, जो अनेक ऋषियों द्वारा प्रणीत है। भाषाओं की उत्पत्ति तथा मानव उत्पति ऐसे प्रश्न है, जिनका समाधान अभी तक नहीं हो सका है। विद्वान इस विवाद से दूर रहना चाहते हैं, संस्कृत सब भाषाओं की जननी है और प्राचीन समय में जनसामान्य की भाषा थी। प्रश्न उत्पन्न होता है तो क्या विश्व में एक संस्कृत ही थी, जो परिवर्तित होकर अनेक भाषाओं के रूप में  आज भी विद्यमान है। अथवा अनेक भाषाएं चली आ रही हैं, संसार की भाषाओं क ी विविधता और विभिन्नता को देखते हुए नहीं कहा जा सकता कि संसार की कोई एक भाषा रही हो, परंतु कुछ भाषाओं की समानता परस्पर अधिक है, जिससे इन भाषाओं का स्रोत एक ही प्रतीत होता है। पाश्चात्य देशों में अर्वाचीन भाषाओं के अध्ययन के अतिरिक्त ग्रीक और लैटिन का अध्ययन किया जाता था, ग्रीक और लैटिन, केवल अंगे्रजी साहित्य से ही नहीं, यूरोप की अनेक भाषाओं से संबंधित है। इसलिए इस बात को मान्यता प्राप्त हुई कि अधिकांश भाषाएं ग्रीक और लैटिन से ही उत्पन्न  हुई है।  सर विलियम जोंस ने संस्कृत को महत्त्वपूर्ण मानते हुए कहा था, संस्कृत ग्रीक  और लैटिन की अपेक्षा अधिक सुंदर और महत्त्वपूर्ण है। जर्मनी के तुलनात्मक भाषा विज्ञान के जन्मदाता फ्रांत्स बाप ने भी संस्कृत का महत्त्व स्वीकार कर भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन किया। भाषाओं के तुलनात्मक अध्ययन के बाद निष्कर्ष रूप से सिद्ध किया कि ग्रीक और लैटिन आदि भाषाएं संस्कृत की पुत्रियां न होकर बहनें हैं, इन समस्त भाषाओं की जननी कोई अन्य भाषा है, जो आज अस्तित्व में नहीं हैं।

भाषा विज्ञानियों ने भाषाओं से भाषाओं का जन्म माना है, परंतु संस्कृत से भाषोत्पत्ति का उल्लेख नहीं किया है। संस्कृत भाषाओं की संजीवनी है, जननी  नहीं। पाली से प्राकृत, प्राकृत से अपभ्रंश, अपभ्रंश से अन्य विविध भाषाओं का विकास हुआ।  बुद्ध के उपदेश पाली में है। जनसामान्य की भाषा प्राकृत थी। प्रारंभ में व्याकरणांतर्गत न आने वाले शब्दों का प्रयोग अनादर की दृष्टि से देखा जाता था।  और उन्हें अपभं्रश का नाम दिया गया। विद्वानों का आशय विकृत और अशुद्ध रूप से था, जब ये अशुद्व रूप भी सर्वमान्य हो गए, और इनका प्रयोग निरंतर होता रहा, तो एक नई भाषा के रूप में अपभं्रश का जन्म हुआ।  अपभ्रंश शब्द का प्रयोग पतजंलि मुनि ने भ्रष्ट शब्दों के लिए किया है। भाषा के अर्थ में नहीं, भाषा के अर्थ में अपभं्रश शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम भामह ने अपने काव्य अंलकार मंे किया है। अस्तु प्राचीन समय में संस्कृत को जनसामान्य की भाषा कहा गया है, बेबर, हार्नली, ग्रियर्सन आदि पाश्चात्य अलोचक संस्कृत को जनसामान्य की भाषा नहीं मानते। विदेशी मूर्धन्य विद्वान मैक्समूलर (1823-1900) ने भाषा की उत्पत्ति, उसकी प्रकृति, उसका विकास, विकास के कारण आदि मूल्यावान सिद्धांत प्रतिपादित किए हैं, व्याख्यान लिखे हैं, लेकिन संस्कृत को उपेक्षित ही रखा है। विलियम ह्विटनी प्रथम अमरिकी भाषा वैज्ञानिक थे। उन्होंने भाषा के विषय में भाषा और भाषा का अध्ययन 1867, भाषा का जीवन और विकास 1875, संस्कृत भाषा का व्याकरण पुस्तकें लिखी है, परंतु संस्कृत मंे कुछ लिखा नहीं। इस प्रकार संस्कृत का भाषा की प्राचीनता जन सामान्यत्व बोध अज्ञेय है, जनसामान्य भाषा तो ‘प्रासादे सा पथि पथि पथि च सा पृष्ठतः सा पुरः सा’ होनी चाहिए। जैसे हिंदी आज जनसामान्य की भाषा है। कालांतर में कर्मकांड के प्रभाव और अनेक दुराग्रहों के कारण संस्कृत साहित्यिक भाषा बनकर रह गई। संस्कृत का सड़कों के डामरीकरण की तरह सामाजिक एस्फाल्टीकरण हुआ होता तो संस्कृत जनसामान्य की भाषा कहलाती, परंतु ऐसा कुछ भी दृष्टिगोचर नही हुआ।  संस्कृत से न तो किसी विशिष्ट भाषा का जन्म हुआ न यह जनसामान्य की भाषा रही। संस्कृत समाज में विद्वत् भाषा थी, संस्कृत पक्ष ने ‘अमान्य मान्यताधिग्रहणानु’ प्रवृति को जन्म दिया है।  भारत की स्वतंत्रता के बाद संस्कृत को राष्ट्र भाषा बनाने का आग्रह हुआ, परंतु पंडित जवाहर लाल नेहरू ने हिंदी को राष्ट्र भाषा बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, संस्कृत सर्वगुण संपन्न होते हुए भी, राष्ट्र भाषा न बनी सकी, क्योंकि यह सर्वजनवेद्य नहीं हैं।

श्रीधर शर्मा, साहित्याचार्य संगीत भूषण, मंडी, हिप्र

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