इतिहास के झरोखे में नर्मदा

By: Jun 12th, 2017 12:05 am

सन् 1857 की क्रांति के बाद नर्मदा की धारा मानो स्वाधीनता की चेतना को सिंचित और पल्लवित करने वाली प्रेरणा रेखा बन गई। नर्मदा किनारे के आश्रम ज्ञात-अज्ञात क्रांतिकारियों के शरणस्थल ही नहीं बनें, बल्कि योजनाओं और उन्हें क्रियान्वित करने की रूप रेखा तैयार करने के केंद्र भी बन गए। तात्या टोपे अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोश की अग्नि और स्वतंत्रता की ललक का विस्तार करने के लिए सन् 1858 में नर्मदा पार कर दक्षिण की ओर गए। बड़ौदा से लगभग 50 किलोमीटर दूर चांदोद का गंगनाथ आश्रम क्रांतिकारियों की गतिविधियों का प्रमुख गुप्त केंद्रीय स्थल बना…

भाषायी परिवर्तन और लोकभाषा के प्रभाव में अश्वत्थामगिरी का नाम अस्थमगिरी और अंत में असीरगढ़ हो गया। किले की चट्टानों पर अकबर और उसके पुत्र दानियाल, शाहजहां और औरंगजेब द्वारा खुदवाए गए शिलालेख भी हैं। औरंगजेब की हिंदू विरोधी नीति के कारण सारे देश में हिंदू शक्तियां संगठित हुई। मराठा, राजपूत, चंदेल, बघेल एक साथ आने लगे और 18वीं सदी में नर्मदा घाटी में दूर-दूर तक मराठा आधिपत्य स्थापित हो गया। हिंदू साम्राज्य (हिंदू-पद-पादशाही)का उद्देश्य लेकर बाजीराव पेशवा नर्मदा के उत्तर से विजय प्रारंभ कर दिल्ली तक पहुंचना चाहता था, किंतु वह नर्मदा से चंबल के बीच के प्रदेश का शासक ही बन सका। सन 1741 में अमरकंटक और उसके दक्षिण पूर्व से सन 1987 में गढ़ा मंडला भी मराठों के अधिकार में आ गया। यद्यपि पानीपत के तृतीय युद्ध (सन 1761) में मराठा शक्ति को भारी आघात लगा था फिर भी सन् 1818 तक नर्मदा घाटी में मराठा शक्ति का ही प्रभुत्व रहा। इसी काल में (सन् 1765-95) देवी अहिल्याबाई ने इंदौर में शासन किया और नर्मदा किनारे महेश्वर को अपनी राजधानी बताया। मंडला की वीरांगना रानी दुर्गावती के 200 साल बाद नर्मदा किनारे महेश्वर में एक ऐसी रानी अहिल्याबाई का उदय हुआ, जिन्होंने धर्म, संस्कृति और लोकहित के क्षेत्र में ऐसे काम किए कि लोग उन्हें देवी मानने लगे।  अठाहरवीं शताब्दी का अंत और उन्नीसवीं शताब्दी का प्रारंभ नर्मदा घाटी में अकाल अराजकता, लूट और अत्याचार का समय रहा। देश में कुछ अन्य भागों की तरह नर्मदा घाटी में भी मराठों और राजपूत राजाओं के संरक्षण में पठानों और पिंडारियों का आतंक चरम पर पहुंचा। जबलपुर, होशंगाबाद, नरसिंहपुर तथा निमाड़ जिलों का हर गांव पिंडारियों की लूट और अत्याचार का शिकार हुआ। इन्होंने पूरी नर्मदा घाटी में अपने अड्डे बना लिए। इनके मुख्य नेता  थे-चीतू, करीम खान, अमीर खान, मोहम्मद खान और शाह …पठानों और पिंडारियों ने जब अंग्रेजी राज्य में भी लूट और आतंक मचाना शुरू किया तो लार्ड हेस्टिंग्ज के आदेश पर अंग्रेजी सेना ने सन् 1817-18 तक पिंडारियों का पूरी तरह सफाया कर दिया। निमाड़ जहां एक ओर पिंडरियों द्वारा लूटा गया, वहीं दूसरी ओर सन् 1800 से सन् 1818 तक होल्करों और सिंधियाओं में चले संघर्ष में भी यह क्षेत्र लूट और यातना का शिकार रहा। सिंधिया, होल्कर, पेशवा और भोंसलों से संघर्ष और समझौतों के बाद अंगे्रजों ने नर्मदा घाटी में सर्वत्र अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।

अंग्रेजों ने नर्मदा घाटी में प्रशासकीय नियंत्रण तो कर लिया किंतु वे जन के मन को नहीं जीत सके। विदेशी शासन के प्रति लोगों के हृदय में आक्रोश का ही परिणाम था कि सन् 1842 में अंग्रेजों के विरुद्ध बुंदेला विद्रोह हुआ। यह विद्रोह इतना व्यापक और असरदार था कि उस समय सागर नर्मदा प्रदेश के नाम से जाने जाने वाले क्षेत्र का अधिकांश भाग विद्रोहियों के नियंत्रण में चला गया। सागर नर्मदा प्रदेश में जबलपुर, सागर, दमोह, बैतूल, सिवनी, मंडला, नरसिंहपुर और होशंगाबाद जिला सम्मिलित थे। विद्रोह को दबाने के लिए निर्मम दमन किया गया और विद्रोहियों के नेता मधुकर शाह को गिरफ्तार कर मृत्युदंड दिया गया। यद्यपि विद्रोह तो दबा दिया गया, किंतु दमन ने जनता के मन में अंग्रजों के विरुद्ध क्रोध और घृणा के भाव को और अधिक तीव्र कर दिया। यही कारण था कि सन् 1857 के विद्रोह की आग में नर्मदा घाटी के कई क्षेत्र सुलग उठे। सागर नगर और किले को छोड़कर पूरा सागर और दमोह जिला विद्रोहियों के नियंत्रण में आ गए। जबलपुर में भी विद्रोह की अग्नि भड़क उठी। गढ़ा का अंतिम राजा शंकरशाह और उसके पुत्र रघुनाथ शाह को बंदी बनाकर सरेआम तोप के मुंह में बांधकर उड़ा दिया। नरसिंहपुर क्षेत्र में बुंदेला सरदारों के नेतृत्व में प्रचंड विद्रोह हुआ। इमझिरा ग्राम में अंग्रज सेना पराजित हो गई। किंतु विद्रोहियों के सुनियोजित, सुव्यवस्थित तथा अस्त्र-शस्त्र से पूर्ण सज्जित नहीं होने और सामान्य जनता से सहयोग नहीं मिल पाने के कारण विद्रोह विफल हो गया। यह असंगठित आक्रोश का बिखरा हुआ रूप होने के कारण दबा दिया गया। हंडिया, नेमावर, हरदा, नरसिंहपुर, मंडला, निमाड़ आदि स्थानों पर विद्रोही देशभक्तों को सरेआम पेड़ों से लटकाकर फांसी दी गई। नरसिंहपुर अदालत  के सामने मृत शहीदों को कई दिनों तक उसी तरह लटके रहने दिया गया, ताकि आतंक फैल जाए और लोग सिर नहीं उठा सकें। नवंबर 1958 तक विद्रोह सर्वत्र दबा दिया गया, किंतु अंग्रेजों की पशुता और अमानवीय दमन के विरुद्ध आप जनता के मन में अंग्रेजों के प्रति गहरी घृणा और स्वाधीन होने की अदम्य कामना ने जन्म ले लिया।

सन् 1857 की क्रांति के बाद नर्मदा की धारा मानो स्वाधीनता की चेतना को सिंचित और पल्लवित करने वली प्रेरणा रेखा बन गई। नर्मदा किनारे के आश्रम ज्ञात-अज्ञात क्रांतिकारियों के शरणस्थल ही नहीं बनें, बल्कि योजनाओं और उन्हें क्रियान्वित करने की रूप रेखा तैयार करने के केंद्र भी बन गए। तात्या टोपे अंग्रेजों के विरुद्ध आक्रोश की अग्नि और स्वतंत्रता की ललक का विस्तार करने के लिए सन् 1858 में नर्मदा पार कर दक्षिण की ओर गए। बड़ौदा से लगभग 50 किलोमीटर दूर चांदोद का गंगनाथ आश्रम क्रांतिकारियों की गतिविधियों का प्रमुख गुप्त केंद्रीय स्थल बना। पश्चिम निमाड़ गजेटियर के अनुसार सन् 1957 के क्रांतिकारी रंगोजी बापू सन् 1861 के आसपास ब्रह्मानंद जी के रूप में यहां आए थे और बड़ोदा के महाराज मल्हार राव गायकवाड़ उनसे मिले थे। सन् 1893 में श्री अरविंद घोष के बड़ौदा राज्य की नौकरी में आने के बाद तो गुंगनाथ आश्रम क्रांति स्थली के रूप में प्रसिद्ध हो गया। अरविंद घोष उन्हें संरक्षण, प्रोत्साहन और मार्गदर्शन देते थे। क्रांतिकारियों ने यहां गंगनाथ विद्यालय के नाम से एक राष्ट्रीय विद्यालय खोला था, जिसमें 15 वर्ष से ऊपर की आयु के अविवाहित तरुणों को सामरिक प्रशिक्षण देकर योद्धा राष्ट्रभक्तों को तैयार किया जाता था। युवाओं का चयन पूरे देश से अनेक स्तरों पर कठोर परीक्षण के बाद ही किया जाता था। कट्टर देशभक्तों के इस केंद्र पर दिए जाने वाले प्रशिक्षण के बारे में अंग्रेज कभी नहीं जान पाए।

वैसे संपूर्ण नर्मदा घाटी में स्वातंत्र्य चेतना का विस्तार हो रहा था, किंतु मातृभूमि के लिए बलिदान होने की जो पवित्र भावना दुर्गावती के गौरवपूर्ण बलिदान से गढ़ा, उसकी छाप अब भी अमिट बनी हुई है। सन् 1842 के बुंदेला विद्रोह और सन् 1857 के स्वतंत्रता आंदोलन में अंग्रेजों ने आंदोलनकारियों के साथ जो निर्मम और पाश्विक व्यवहार किया, उसने जनता की शिराओं के रक्त को उष्ण कर दिया। शिक्षा के विस्तार से स्वाभिमान के साथ स्वतंत्र जीवन जीने की आकांक्षा और विदेशी शासन से मुक्त होने की कामना को, समझ के साथ संघर्ष करने का मार्ग दिखाया। सन् 1874 ई. में महर्षि दयानंद सरस्वती की जबलपुर यात्रा ने समाज सुधार के साथ स्वतंत्रता संग्राम का बीज बोया। बंग-भंग के बाद गदर पार्टी की एक शाखा जबलपुर में भी स्थापित हुई। ढाका की अनुशीलन समिति के कुछ क्रांतिकारी ग्वारीघाट से गिरफ्तार हुए। सन् 1915 में डा.एनी बेसेंट की होमरूल शाख यहां स्थापित हुई। सन् 1916 में लोकमान्य बाल गंगाधर तलक की यात्रा ने शिक्षकों और विद्यार्थियों को स्वतंत्रता संग्राम में कूदने को प्रेरित किया और 20 मार्च, 1921 को महात्मा गांधी की यात्रा ने तो मानों पूरी नर्मदा घाटी के सभी आबाल वृद्धों को स्वतंत्रता के मंत्र से अभिमंत्रित कर दिया। सन् 1923 में स्वाधीनता के दीवानों ने जबलपुर नगरपालिका भवन पर राष्ट्रध्वज तिरंगा फहरा दिया। नमक सत्याग्रह प्रारंभ होने पर स्वतंत्रता सेनानियों के एक विशाल जुलूस ने रानी दुर्गावती की समाधि पर पहुंचकर आमरण संघर्ष करने की शपथ ली।

सन् 1933 में महात्मा गांधी की जबलपुर-मंडला यात्रा एक प्रकार से समाज सुधार और स्वतंत्रता आंदोलन को संयुक्त रूप से चलाने के उस अभियान का शिखर स्वरूप थी, जो महर्षि दयानंद सरस्वती ने सन् 1974 में प्रारंभ किया था। जाति और जनजातियों में गांधी का सम्मोहक प्रभाव हुआ। कांग्रेस की नरम और गरम धाराओं के आक्रामक वैचारिक द्वंद्व को प्रकट करने वालाल अखिल भारतीय कांग्रेस का 52वां अधिवेशन सन् 1939 में यहीं त्रिपुरी में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के सभापतित्त्व में हुआ। सुभाष बाबू चाहते थे कि अंग्रेजों को भारत छोड़ने का अल्टीमेटम दे दिया जाए, किंतु अहिंसावादियों द्वारा उनकी बात स्वीकार नहीं किए जाने पर उन्होंने फारवर्ड ब्लॉक की स्थापना की। कांग्रेस ने सुभाषचंद्र बोस द्वारा सन् 1939 में दिए गए सुझाव को थोड़े अलग तरीके से सन् 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के रूप में अपनाया। इस आंदोलन में भी संपूर्ण नर्मदा घाटी में सर्वत्र गिरफ्तारियां हुईं, लाठी और गोलियां भी चलीं। गिरफ्तारियां इतनी अधिक हुई कि मंडलेश्वर की जेल में स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के लिए ठीक से लेट पाने की जगह भी नहीं बची थी। परेशान सेनानियों ने जेल का फाटक तोड़ दिया और नगर में सभा की ओर पुनः जेल में आ गए। कई सेनानी बंदी होकर भी स्वतंत्र लोगों की तरह जेल से बाहर सोए। नर्मदा घाटी में भी पूरे देश के साथ स्वतंत्रता आंदोलन चला और अंततः सन् 1947 में देश स्वतंत्र हुआ।

महेश श्रीवास्तव (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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