भारत का इतिहास

By: Jun 14th, 2017 12:05 am

स्वयं नियम बनाए संविधान सभा ने

उदाहरण के लिए चर्चिल ने कहा कि सविधान सभा में देश की एक बड़ी जाति का ही  प्रतिनिधित्व हुआ है। लार्ड साइमन ने कहा कि सभा हिंदुओं की एक संस्था है और  पूछा कि क्या सरकार दिल्ली  में सवर्ण हिंदुओं की इस बैठक को संविधान सभा कह भी सकती है। संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद ने 20 जनवरी, 1947 को एक वक्तव्य में इन विचारों को तथ्यों के प्रतिकूल बताया और कहा कि इनसे बड़े दुष्टतापूर्ण निष्कर्ष निकल सकते हैं। सभा के सामने आरंभ से ही एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह था कि वह प्रभुता संपन्न संस्था थी या नहीं। 11 दिसंबर, 1946 को श्री गोपाल स्वामी आयंगर ने संविधान सभा में भाषण देते हुए कहा था कि जिस काम के लिए संविधान सभा समवेत हुई थी, उसके लिए वह पूरी तरह प्रभुता संपन्न थी। संविधान सभा के अध्यक्ष डा. राजेंद्र प्रसाद का मत था कि संविधान सभा के जन्म के समय ही उस पर कुछ मर्यादाएं आरोपित कर दी गई थीं और संविधान सभा के लिए यह उचित था कि वह अपनी कार्यवाही के दौरान या कोई निर्णय करते समय इन मर्यादाओं को न भूले और उनकी उपेक्षा न करें। किंतु इन मर्यादाओं के बावजूद संविधान सभा एक स्वशासी, स्वनिर्णायक, स्वतंत्र संस्था थी और बाहर की किसी शक्ति को यह अधिकार न था कि वह उसकी कार्यवाही में हस्तक्षेप करे या उसके निर्णयों को बदले। संविधान सभा को यह शक्ति भी प्राप्त थी कि उसके जन्म के समय उसके ऊपर जो मर्यादाएं आरोपित कर दी गई थीं, वह उन्हें भी नष्ट कर दे। श्री नेहरू ने भी यह स्वीकार किया था कि जिस समय संविधान सभा का निर्माण हुआ उस समय उसके ऊपर कुछ शर्तें लगी हुई थीं, लेकिन उनका मत था कि  संविधान सभा के पीछे असली शक्ति जनता की है और जनता जहां तक चाहेगी संविधान सभा बराबर काम करती जाएगी। श्री पुरुषोत्तम दास टंडन ने भारतीय संविधान सभा की फ्रांस की संविधान सभा से तुलना की। फ्रांस की संविधान सभा राजा के निमत्रंण पर समवेत हुई थी, लेकिन उसने अपनी कार्यवाही अपने आप आरंभ की और जब राजा ने उसे विसर्जित होने की  आज्ञा दी, तब उसने राजा का यह आदेश अस्वीकार कर दिया। इस प्रकार संविधान सभा के प्रभुता संपन्न स्वरूप के बारे में संविधान सभा में आम राय यह थी कि यद्यपि 16 मई, 1946 के वक्तव्य ने उसके ऊपर कुछ  मर्यादाएं आरोपित कर दी थीं, इन मर्यादाओं को स्वीकार करना या न करना सभा की अपनी मर्जी पर निर्भर  था। कुछ भी हो, संविधान सभा इसी धारणा को लेकर चली और उसने अपने नियमों का अपने आप निर्माण किया। एक नियम में स्पष्ट रूप से कहा गया था कि सभा का विघटन केवल तभी हो सकेगा जबकि उसके कुल सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई सदस्य इस आशय का एक प्रस्ताव पास कर दें। नेहरू के अनुसार इस नियम का उद्देश्य यह था कि बाहर की कोई सत्ता सभा को भंग न कर सके और  थोड़ा सा बहुमत भी यह काम न कर सके।

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