लिंगानुपात सुधार का जटिल प्रश्न

By: Jun 28th, 2017 12:05 am

( बचन सिंह घटवाल लेखक, मस्सल, कांगड़ा से हैं )

बचन सिंहलड़कियों को बोझ समझने वालों की आंखें खोलने के लिए व गिरते लिंगानुपात को रोकने के लिए सरकार विभिन्न नीतियों, कार्यक्रमों व लघु नाटकों के प्रदर्शन के मार्फत जागृति संदेश प्रसारित करती रही है। इसके बावजूद लिंगानुपात का आंकड़ा भयावह स्थिति में ही है…

मानवीय जीवन में रिश्तों का बड़ा महत्त्व होता है। मानव सभ्यता के आरंभ से लेकर वर्तमान परिप्रेक्ष्य तक के सफर को देखें तो स्त्री-पुरुष की सामाजिक सहभागिता में स्त्रियों का महत्त्व प्रकृति निर्माण की प्रक्रिया में सर्वोपरि रहा है। स्त्री के बिना पुरुष महत्त्वहीन सा होता है, क्योंकि स्त्री वंश वृद्धि और सृजन की प्रक्रिया में अग्रणी भूमिका निभाती है। इस पहलू को अनदेखा करके पुरुष स्त्री पर हमेशा अपनी मनमानी थोपता है और जीवन की धुरी समझी जाने वाली स्त्री हमेशा नियति को कोसती हुई जीवन से सामंजस्य बिठाती हुई पुरुष का साथ देती रही है।

वर्तमान समाज में भी पारिवारिक नींव व रिश्तों के विस्तार में बेटियों की सहभागिता नकारी नहीं जा सकती, क्योंकि बेटियों से जुड़े रिश्तों की एक अंतहीन शृंखला है, जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। रिश्तों की मर्यादाओं को समझने व परखने वाला इनसान आज बेटियों के साथ अन्यायपूर्ण रवैया अपनाए हुए है। यही कारण है कि लिंगानुपात का गड़बड़ाता संतुलन आज हमारी बेटियों के प्रति विपरीत मानसिकता को प्रदर्शित कर रहा है। लिंगानुपात में महिलाओं की संख्या में गिरावट प्रदर्शित करता आंकड़ा बेटियों के साथ हो रहे दुर्व्यवहार व अत्याचार की कहानी कह रहा है। वर्ष 2001 में प्रति 1000 पुरुषों के मुकाबले भारत में महिलाओं का आंकड़ा 933 था, वहीं वर्ष 2011 में यह आंकड़ा न्यूनतम वृद्धि के साथ 940 ही हुआ। हिमाचल के संदर्भ में वर्ष 2001 में 1000 पुरुषों के मुकाबले स्त्रियों का आंकड़ा 968 था और वह भी वर्ष 2011 तक 972 तक ही हल्की सी वृद्धि दर्ज कर पाया। आज के संदर्भ में महिलाओं के गिरते आंकड़ों में कोई संतोषजनक परिवर्तन परिलक्षित नहीं हुआ है, बल्कि गिरावट का स्तर जिलों के अनुसार घटते क्रम की तरफ ही अग्रसर है। इसमें मात्र लाहुल-स्पीति में 1033 तक स्त्रियों के अनुपात में वृद्धि दिखाई देती है और प्रदेश के अन्य जिले 1000 के आंकड़े से काफी नीचे की स्थिति प्रदर्शित करते हैं। लिंगानुपात के भयावह गिरावट के स्तर को देखते हुए समय-समय पर सरकारों ने ‘बेटी बचाओ, बटी पढ़ाओ’ सरीखे अभियानों के जरिए जनमानस को जागरूकता का संदेश दिया, परंतु उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप बेटे की चाह रखने वाले परिवारों पर किंचित मात्र असर नहीं हुआ। बेटियों को पराया धन समझने वाली हमारी मानसिकता आज भी जस की तस बनी हुई है। इसकी वजह से लड़के की चाह रखने वाले परिवार कन्या भ्रूण हत्या जैसे कुकृत्यों को अंजाम दे देते हैं। हालांकि लिंग परीक्षण पर प्रतिबंध है, परंतु फिर भी यह प्रक्रिया रसूख और धन के लालच में फलती-फूलती जा रही है। आज प्रगति पथ पर ऊंचाइयां छूता इनसान चांद और मंगल ग्रह पर आधिपत्य जमाने की बात करता है। महिलाएं कंधे से कंधा मिलाकर पुरुषों के समकक्ष आ चुकी हैं, परंतु इसके बावजूद हमारी मानसिकता में उस अनुरूप बदलाव व वृद्धि नगण्य ही है।

व्यक्ति जीवन की अंतिम यात्रा हेतु लड़कों को श्रेष्ठ मानते हुए लड़के की प्राप्ति हेतु सब कुछ कर बैठते हैं, परंतु इन अवधारणाओं को धत्ता बताते हुए कई लड़कियों ने अंतिम किरया के सभी क्रियाकलापों को निभाते हुए नवधारणा का संदेश दिया है। यह प्रचलन समय की कसौटी पर परिवर्तनशीलता को प्रदर्शित करता है और इसे उचित दिशा प्रदान करना हम सब का फर्ज है। कहीं उत्तराधिकारी की चाह एक-एक करके संतान के बेमतलब आंकड़े को बढ़ाती रहती है, तो कहीं टोना-टोटका जीवन को अंधकारमय बनाता जा रहा है। परिस्थितियों की अनुकूलता को नजरअंदाज करते हुए इनसान लड़के की चाह में सर्वस्व लुटा बैठता है, परंतु उसके हठ में कमी नहीं आती। लड़के को देखते-देखते दंपति घरों में बच्चों की लाइन लगाने में भी नहीं हिचकिचाते। उनकी लड़के की चाह उन्हें बर्बादी के शिखर तक पहुंचा देती है। लड़कियों की समझदारी व वफादारी पर हम वाह-वाह जरूर करते हैं, परंतु बेटा चाहे नालायक क्यों न हो, उसकी आकांक्षा व चाह पर विराम नहीं लगा पाते।

लड़कियों को बोझ समझने वालों की आंखें खोलने के लिए व गिरते लिंगानुपात को रोकने के लिए सरकार विभिन्न नीतियों, कार्यक्रमों व लघु नाटिकों के प्रदर्शन के मार्फत जागृति संदेश प्रसारित करती रही है। इसके बावजूद लिंगानुपात का आंकड़ा भयावह स्थिति में ही है। आज व्यक्ति टीवी, इंटरनेट से जुड़ा देश-विदेश की जानकारी रखता है। बेटियों के प्रति अत्याचार, दुराचार की पराकाष्ठा ने सबको हिला कर रख दिया है। बेटियों के प्रति दरिंदगी व अत्याचार का खेल कब तक चलता रहेगा। अब हमें अपना विवेक  दिखाते हुए बेटियों को पराया नहीं, बल्कि अपने जिगर के टुकड़े के समरूप समझना चाहिए। इसमें संदेह नहीं है, जब हम अपनी मानसिकता को बेटा-बेटी के अंतर से ऊपर उठाकर उसे बेटे स्वरूप नहीं मानेंगे, तब तक विचारधारा व व्यवहार के अतिरिक्त लिंगानुपात के क्रम में सुधार नहीं हो सकता। समाज में समय रहते इस परिवर्तन को लाने के लिए हर जन को आगे आने की जरूरत है।

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