डोकलाम पर साम्यवादी टोले की छटपटाहट

By: Jul 22nd, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्रीडोकलाम में जो कुछ हो रहा है, उस पूरे मामले में चीन का एक दूसरा तर्क भी है। उसका कहना है कि यदि डोकलाम का यह इलाका भूटान का भी है तो इसे लेकर चीन का भूटान से ही विवाद है। भारत की सेना इस विवाद में डोकलाम में डेरा डाल कर क्यों बैठी है? शांति की खोज में निकले कुछ विद्वान चीन के इस तर्क से अभिभूत हैं। वे दिल्ली को यही तर्क बार-बार सुना रहे हैं। देश का साम्यवादी टोला तो इस पर गला फाड़ कर चिल्ला रहा है। उनके बुद्धिजीवी भी यही पूछ रहे हैं, भारत डोकलाम में क्या कर रहा है…

चीन और भारत के सैनिक डोकलाम में, जहां तिब्बत, भूटान और भारत की सीमा मिलती है, आमने-सामने डटे हुए हैं। तिब्बत पर 1950 से चीन ने कब्जा किया हुआ है, इसलिए मीडिया तिब्बत सीमा को चीन की सीमा कह कर उल्लेख कर रहा है। यदि 1950 में ही जब चीन, तिब्बत को रौंद रहा था, उसका विरोध किया जाता तो आज यह स्थिति पैदा ही न होती। लेकिन तब नेहरू शांति की खोज में निकले हुए थे, जैसा कि अब भी कुछ विद्वान शांति की तलाश में भोजन खाना छोड़ रहे हैं। तब शांति की खोज करते-करते नेहरू इस निर्णय पर पहुंच गए थे कि यदि तिब्बत चीन के हवाले कर दिया जाए तो चीन शांत हो जाएगा और हिमालय को पार करती हुई शांति सारे विश्व में फैल जाएगी। लेकिन विश्व में शांति फैली या नहीं, इसके बारे में तो विश्व के लोग ही जानते होंगे, जहां तक हिंदोस्तान का ताल्लुक है, नेहरू की उस खोज से पूरा हिमालय अशांत हो गया और 1962 में चीन के हाथों भारत को पराजित होकर अपमानित भी होना पड़ा। सरदार पटेल ने जरूर उस समय नेहरू को एक चिट्ठी लिखकर चेताया था कि यदि तिब्बत की रक्षा हम न कर पाए, तो पूरा हिमालय भविष्य में रणक्षेत्र बन जाएगा। नेहरू जी के, पटेल की विदेश नीति की समझ को लेकर बहुत अच्छे विचार नहीं थे। इसलिए उन्होंने इसे ध्यान देने योग्य नहीं समझा।

डोकलाम में जो कुछ हो रहा है, वह एक प्रकार से नेहरू की तिब्बत और चीन नीति में से निकला हुआ अजगर है, जो अब फुंकार रहा है। मामला एक बार फिर सड़क बनाने का ही है। 1950 में भी, तिब्बत पर कब्जा करने के बाद चीन ने, तिब्बत और सिक्यांग को जोड़ने वाली सड़क बनानी शुरू कर दी थी। यह सड़क भारत के लद्दाख में अक्साई चिन पठार से होकर गुजरती थी। भारत सरकार को इस सड़क निर्माण के बारे में पता था, नेहरू ने चुप्पी साधे रखी और चीन सड़क बनाता रहा। 1959 में यह सड़क बन कर पूरी हो गई तो चीन ने खुद ही तिब्बत-सिक्यांग राजमार्ग के पूरा हो जाने की बात दुनिया को बता दी। अलबत्ता उसने यह पुछल्ला भी जोड़ दिया कि जिस अक्साई चिन पठार से होकर यह सड़क गुजरती है, तीस हजार वर्ग किलोमीटर का वह पठार चीन का हिस्सा है। नेहरू लोकसभा में सफाई देते रहे और इसी सफाई में झुंझला कर उन्होंने कहा था कि वह बंजर भूमि है, जिस पर घास का तिनका तक नहीं उगता। अब लगभग वही किस्सा अपने नए रूप में 2017 में शुरू हो गया लगता है। इस बार सड़क तिब्बत में चुंबी घाटी को भूटान के डोकलाम पठार से जोड़ने के लिए चाहिए। चुंबी घाटी के बारे में कहा जाता है कि वह ऐसी कटार है, जो जिसके हाथ में आ जाए, वह उसे जब चाहे भारत के सीने में घोंप सकता है। चुंबी से डोकलाम तक सड़क बन जाने से यह कटार तेज भी हो जाएगी और इसकी मूठ पूरी तरह चीन के कब्जे में भी आ जाएगी। इसलिए भारत किसी हालत में भी चीन को डोकलाम पठार में यह सड़क बनाने की अनुमति नहीं दे सकता। यह अनुमति न देने के कारण ही महीना भर से इस क्षेत्र में दोनों देशों के सैनिक आमने-सामने खड़े हैं। जिस प्रकार 1959 में चीन ने यह कहा था कि अक्साई चिन चीन का क्षेत्र है, उसी तरह रिकार्ड के लिए चीन अब भी यही कह रहा है कि लगभग 289 वर्ग किलोमीटर का डोकलाम पठार भूटान का नहीं, बल्कि चीन का हिस्सा है।

डोकलाम, जहां चीन और भारत के सिपाही आमने-सामने डटे हुए हैं, सिक्किम के नाथूला से कुछ ही दूर है, इसलिए सैनिक और सुरक्षा के लिहाज से यह पूरा इलाका भारत के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। डोकलाम को चुंबी घाटी का हिस्सा ही मानना चाहिए। जैसा कि ऊपर संकेत दिया गया है, चीन इस खंजर को सुदृढ़ता से अपने हाथ में करना चाहता है। लेकिन चीन को यह खंजर किस लिए चाहिए? यदि वह भारत को अपना सहयोगी और मित्र मानता है तो उसे इस खंजर की जरूरत होनी ही नहीं चाहिए। इस पूरे मामले में चीन का एक दूसरा तर्क भी है। उसका कहना है कि यदि डोकलाम का यह इलाका भूटान का भी है तो इसे लेकर चीन का भूटान से ही विवाद है। भारत की सेना इस विवाद में डोकलाम में डेरा डाल कर क्यों बैठी है? शांति की खोज में निकले कुछ विद्वान चीन के इस तर्क से अभिभूत हैं। वे दिल्ली को यही तर्क बार-बार सुना रहे हैं। देश का साम्यवादी टोला तो इस पर गला फाड़ कर चिल्ला रहा है। उनके बुद्धिजीवी भी यही पूछ रहे हैं, भारत डोकलाम में क्या कर रहा है? यही तर्क 1950 में, जब चीन ने तिब्बत पर हमला किया था, नेहरू खुद दे रहे थे। कम्युनिस्टों का तो उन दिनों नारा ही यही था कि भारत का तिब्बत से क्या लेना देना? तिब्बत और चीन का विवाद है, दोनों खुद ही सुलझा लेंगे। उन दिनों सरदार पटेल ने नेहरू को लिखा था कि यदि चीन तिब्बत पर हमला करता है, तो उसे परोक्ष रूप से भारत पर ही हमला मानना चाहिए, पर नेहरू ने उनकी सलाह नहीं मानी थी। उस समय यदि नेहरू, पटेल की यह सलाह मान लेते तो अमरीका भी तिब्बत की सहायता करने के लिए तैयार था। परंतु नेहरू गुट निरपेक्षता की रेत में गर्दन दबा कर विश्व शांति की तलाश करते रहे। यदि उस समय चीन को तिब्बत पर कब्जा करने से रोक दिया होता, तो आज डोकलाम की स्थिति पैदा ही न होती। यह खुशी की बात है कि आज जब चीन ने भूटान को घेरे में लिया है तो भारत ने उसे अपने पर हमला ही माना है। वैसे भी भारत की भूटान के साथ सुरक्षा की जिम्मेदारी की संधि है, लेकिन असली बात फिर भी अनुत्तरित है। आखिर चीन को इस कटार की जरूरत क्यों है? यह कटार और किसी के सीने में घोंपने के काम तो आ नहीं सकती। वहां केवल तिब्बत, भूटान और भारत ही हैं। तिब्बत पहले ही चीन के कब्जे में है। भूटान की चीन के लिए क्या अहमियत हो सकती है? अतः स्पष्ट है कि यदि चीन इस खंजर को कभी प्रयोग करेगा, तो हिंदोस्तान के सीने में घोंपने के लिए ही करेगा।

यह कटार कहां घोंपी जा सकती है, इसके लिए भी किसी शोध की जरूरत नहीं। सिलीगुडी के आसपास की पट्टी को काट दिया जाए तो पूर्वोत्तर भारत को हिंदोस्तान से अलग किया जा सकता है। चीन डोकलाम में सड़क बनाने के बाद इस कटार से मुर्गे की यह गर्दन काट सकता है। तिब्बत पर चीन को कब्जा करने का अवसर प्रदान करके नेहरू ने चीन के हाथ में पूर्वोत्तर भारत के हिमालयी क्षेत्रों में घुसने का मौका प्रदान किया था। लेकिन आज 2017 में मोदी सरकार चीन के हाथों पूर्वोत्तर भारत की गर्दन थमा देने के लिए तैयार नहीं है। इसीलिए सारा विवाद है। नेहरू युग की लाश कंधों पर उठाकर घूमने वाले बेताल अभी भी यही सलाह दे रहे हैं कि डोकलाम से भारत को अपने सैनिक वापस बुला लेना चाहिए और एक बार फिर विश्व शांति की तलाश में निकल जाना चाहिए। कम्युनिस्ट अभी भी कह रहे हैं कि डोकलाम में मामला सुलझ जाने के बाद चीन के साथ शांति हो जाएगी। मामला सुलझ जाने से उनका अभिप्राय है कि डोकलाम से भारत को अपने सैनिक हटा लेने चाहिए और चीन को सड़क बनाने देना चाहिए, जैसा 1950 में नेहरू ने अक्साई चिन में बनने दी थी। बाकी चीन हमला करेगा या नहीं, इसके लिए चीन के पुराने व्यवहार को देखना होगा। भारत ने 1950 में चीन को तिब्बत पर कब्जा करने दिया, 1959 में उसे भारतीय क्षेत्र अक्साई चिन में सड़क बनाने दी, लेकिन इसके बाद भी चीन ने 1962 में भारत पर हमला ही नहीं किया था, बल्कि बहुत से इलाके पर कब्जा भी कर लिया था, जो अभी भी जारी है। इसलिए यदि इस बार चीन को डोकलाम पर ही रोक लिया जाए, तो हो सकता है चीन भारत पर हमला करने का इरादा छोड़ दे और भारत 1962 से बच जाए। यदि चीन हमला ही कर दे तो उसे कम से कम इतना तो समझ आ जाएगा ही 2017 आ गया है और 1962 को गए हुए अरसा हो गया। यदि चीन की भारत के प्रति दुर्भावना न होती, तो चीन को डोकलाम के खंजर की जरूरत ही नहीं थी।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com

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