एक था मोगा…

By: Aug 7th, 2017 12:05 am

वर्ष 2017 की गुरु पूर्णिमा के दिन मोगा इस दुनिया को छोड़ कर चला गया। उसकी मृत्यु का समाचार मुझे अगले दिन सुबह उस समय मिला, जब मैं बस अड्डे पर रोजाना की तरह अखबार लेने गया। मोगा ‘कहलूरी शटराला’ का वह पात्र था जो हर किसी पर कटाक्ष करता था। कहलूरी शटराला के माध्यम से वह बड़ी से बड़ी शख्सियत से भी भिड़ जाता था। मोगा बस अड्डे के बाहर लगती फल-सब्जियों की रेहडि़यों पर मजदूरी करता था। कुछ लोग उससे मखौल करते रहते। उसकी हंसी उड़ाते रहते। वह सीधा-सादा जो था। एक बार कुछ रेहड़ी वालों ने मुझसे कहा ‘भाई साहब, कहलूरी शटराला में मोगे का नाम भी दिया करो। यह वीआईपी है। इसकी बात सीधी सोनिया गांधी से होती है।’ मैंने मोगा की ओर देखा था। हंसी को मुश्किल से रोक पाया था। मोगा की मौन स्वीकृति मिल गई थी। इससे अगले दिन मोगा कहलूरी शटराला का हीरो बन गया था। उसका नाम छप गया था। सब तरफ मोगा-मोगा हो रही थी। उसने मुझे रेहड़ी पर बैठे-बैठे दिव्य हिमाचल की प्रति दिखाते हुए कहा, ‘आज सुबह ही खरीद ली थी।’ इसके बाद वह अकसर दिव्य हिमाचल खरीद कर लोगों को कहलूरी शटराले के साथ अपना नाम भी पढ़ाता रहता था। इससे वह बहुत खुश होता था। एक बार जिला भाषा अधिकारी (अब सेवानिवृत्त) डा. अनीता शर्मा की कार में बैठ कर हम काम खत्म करके वापस घर की तरफ आ रहे थे। मैडम ड्राइव कर रही थी। मेरी नजर रेहड़ी पर बैठे मोगे पर पड़ी। मैंने कहा, ‘मैडम जी, यही है मोगा। कहलूरी शटराले वाला।’ मैडम बोलीं, ‘बड़ा जीवंत पात्र है आपकी कलम का।’  खैर आज वह जीवंत पात्र नहीं रहा, लेकिन उसकी यादें मेरे मानस पटल पर सजीव बनी हुई हैं। कौन था यह मोगा? कहां से था? पंजाबी बोलता था। पहाड़ी और पंजाबी का मिश्रण थी उसकी बोली। सत्तर के दशक में मोगा के पिता बिलासपुर में थानेदार थे। तब वह स्कूल में पढ़ता था। वैसे उसका नाम राकेश कुमार था। मोगा नाम तो उसे इसी समाज ने दिया था। फिर उसके पिता सरकारी नौकरी करते नालागढ़ को एसएचओ के पद पर पदोन्नत होकर चले गए थे। उसके जीवन में उस समय अंधियारा छा गया, जब उसके माता-पिता की अचानक मृत्यु हो गई। मोगा तब लड़कपन में था। कहते हैं उसे पिता की मृत्यु के बाद काफी पैसा मिला था। उसके संगी-साथी उस समय ऐसे थे कि उन्होंने उसका सारा धन खर्च करवा कर उसे धक्के खाने के लिए अकेले छोड़ दिया। मंदबुद्धि मोगा अब समाज के रहमोकर्म पर था। ऐसे व्यक्ति को कब सुख दिया है समाज ने। लोग सीधे-सादे की हंसी उड़ाना अपनी काबिलियत समझते हैं। मोगा सड़क पर चल रहा होता तो कोई पीछे से उसे केले का छिलका मारता, तो कोई संतरे का छिलका। फिर हंसी उड़ाई जाती थी। उस बेचारे से मजाक भी गजब का होता। एक बार उसे चिढ़ाया गया कि संदीप सैंटी ने तेरा रिश्ता तुड़वा दिया। बड़ी खूबसूरत लड़की से तेरा रिश्ता हो रहा था। बस फिर क्या था? वह संदीप के पीछे पड़ गया। संदीप हाथ जोड़ कर कहता, ‘बाबा मैंने कुछ नहीं किया है। झूठ बोलते हैं।’ पर मोगा नहीं मानता। वह उस पर बड़बड़ाता ही रहता। यह मोगे की दुनिया थी। सारा दिन रेहड़ी-फड़ी वालों का काम करने के बाद उसे जो मजदूरी मिलती, उससे रात को ढाबे पर खाना खा लेता। कुछ पैसों की शराब पी जाता। अगले दिन फिर अपनी ड्यूटी पर तैनात होता। मोगे को एमपी कहलाना अच्छा लगता था। उसे सब एमपी साहब कहा करते थे। 21 मार्च, 2004 को कहलूरी शटराला ‘चलुए कारतूस’ शीर्षक के तहत छपा–राजनीति रे बजारे च सब कुछ चली पौंदा। होर तां होर चलुए कारतूस बी चली पौंदे। चलाणे ऑला चाहिए। बस अड्डे पर तां जे एमपी मोगा साहब ने ऐहड़ा बोलया तां सारयां तिस रा समर्थन कितेया। कशोरी लगया बोलना, झूठ मत बोलया कर। कदी चलुए कारतूस बी चलदे। चलदे माराज, सब कुछ चलदा इस बजारे च। देखया करा तुसें। जिआं जिआं इलेक्शना री चाढ़ पौणी तिआं तिआं कारतूस टोलुए नी मिलणे। फेरी चलुए कारतूस ही चलणे। होर क्या चलाणा। इसी तरह 26 मार्च, 2017 को ‘नोटिफिकेशन’ शीर्षक से छपे कहलूरी शटराला पर भी जरा गौर फरमाइए–कशोरी इथी नी तैं औणा। से कैं मोगया? ऐ कोई तेरी जगह ही? सरकारी जगह ही। तूं कशोरी चुप रेहा कर। मैं चूठा लीडर नहीं हां। एम्ज-एम्ज रा रौला पाई रखदे। नोटिफिकेशन करदे नी ए। बगैर नोटिफिकेशन ते थोड़ी जंगलैत मैहकमे जमीन देनी। ऐ देख मेरे के इस जगह री नोटिफिकेशन ही। अज ही डाक च आई दिल्ली ते। तूं कर लै हुण घी नो पांढ़े। तूं तां मोगया बड़े अगे पुजी गया। इस तरह एक लेखक को अपने सामने अपने जीवंत पात्र को तिल-तिल मरते देखना कितना कष्टदायक होता है, यह तो वही लेखक अनुभव कर सकता है। हां, मैं मोगा को ऐसे ही मरता देख रहा था। ऐसा नहीं था कि सभी उसका मजाक उड़ाते थे। अमरेंद्र शर्मा जैसे व्यवसायी उसकी हरसंभव मदद करते थे। मुन्ना ढाबे वाला उसे दोनों समय भोजन करवा दिया करता था। कुछ महीने पहले जब वह बीमार हुआ और अस्पताल में उपचार करवा कर ठीक होकर आया तो मैंने उससे पूछा था, ‘क्या बात थी।’ उसने जवाब दिया ‘गुरुदेव, रोज रात को अधिया नीट पी लिया करता था। उसने काम खराब कर दिया।’ ‘अब नहीं पीना।’ मैंने उसे समझाया था। ‘नहीं, कन्नां नो हथ लगाया। अब नहीं पीऊंगा।’ वह बोला था। लेकिन मुझे बताया गया कि वह दारू पी लिया करता था और फिर ऐसा हुआ कि दारू उसको पी गई। उसके गुर्दे खराब हो गए थे। उसे अस्पताल में भर्ती कराया जाता, लेकिन वह भाग कर आ जाता। मैंने उसे जब कहा कि अस्पताल में इलाज कराओ तो कहने लगा, ‘डाक्टर ठीक नहीं हैं। मैंने सोनिया गांधी को फोन पर शिकायत कर दी है।’ और धीरे-धीरे मोगा चलने-फिरने से महरूम हो गया। उसके हाथ में एक लाठी आ गई। अब वह चुप रहने लगा था। जैसे मृत्यु का इंतजार कर रहा हो। जैसे-तैसे बस अड्डे के वेटिंग रूम से बाहर सड़क तक आ जाता। दीवार के सहारे बैठा रहता। जो कोई देखता वह कहता ‘बुरा हाल है।’ पिछले यानि मृत्यु से कोई एक सप्ताह पहले से वह चलने-फिरने से रह गया था। बस अड्डे के बाहर वाले वेटिंग रूम में बैंच पर बैठा रहता था। आते-जाते को देखता रहता। अब उन लोगों ने भी उससे बात करनी छोड़ दी थी, जो हमेशा उससे मजाक किया करते थे। गुरु पूर्णिमा से पहले दिन सुबह उसकी इस लेखक पर नजर पड़ी थी। वह बैठे-बैठे हाथ उठा कर अभिवादन करता हुआ बोला, ‘गुरुदेव।’ मैंने भी हाथ उठा कर उसका अभिवादन किया। पूछा, ‘क्या हाल है।’ वह बोला, ‘गुरुदेव उठा नहीं जाता अब।’ अगले दिन जब सुना कि मोगा नहीं रहा तो मेरे मुंह से निकला, ‘कल तो कहते थे उठा नहीं जाता और आज जहां से चले जाने की ताकत आ गई।’ मोगा चला गया, लेकिन मस्तिष्क के धरातल पर अपने इस पात्र की साफगोई, निश्छल हंसी और सीधी-सादी बातें सजीव बनी हुई हैं। सुनने में आया कि मोगा की पत्नी व दो बच्चे भी हैं। कहलूरी शटराला के इस हीरो को लेखक की नमन श्रद्धांजलि। प्रभु उसकी आत्मा को शांति दे।

-कुलदीप चंदेल, बिलासपुर

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