कांग्रेस एक कहानी

By: Aug 29th, 2017 12:05 am

हिमाचल कांग्रेस के मुख्य पात्र नाराज हैं, तो यह कहानी चरितार्थ कैसे होगी। यूं तो कांग्रेस का वजूद एक ऐसी कहानी सरीखा हो चला है, जो अतीत की परछाइयों में सूर्य को पाने की चेष्टा है। हिमाचल में राजनीति के अपने फलक पर कांग्रेस का किरदार आखिर पाना क्या चाहता है और इसके लिए किसका हठ जायज माना जाएगा। यह घर्षण पार्टी की सतह पर है, तो सरकार की इबारत भी टेढ़ी निगाहों से क्या देख रही है। हिमाचल कांग्रेस के नए प्रदेश प्रभारी सुशील शिंदे के फीडबैक की सौगंध न तो प्रदेश की सत्ता को अपनी सीमा बता पा रही है और न ही उस संभावना को देख रही है जो मुख्यमंत्री के अंदाज में समाहित है। क्या एक नई कांग्रेस यकायक पैदा हो जाएगी या पार्टी की कहानी अपने लिए नए पात्र ढूंढ लेगी, यह असंभव होता दिखाई दे रहा है। यह वाकई हैरानी की बात है कि जिन मुद्दों पर सत्तारूढ़ पक्ष को अपनी पैरवी करनी चाहिए, उनसे हटकर खूंटे की लड़ाई हो रही है। पार्टी को सरकार और सरकार को पार्टी बना देने के बीच वीरभद्र सिंह बनाम सुखविंदर सिंह सुक्खू की आपसी कशमकश खतरनाक अंजाम पर शहीद होने की फिराक में है। इसमें दो राय नहीं कि हिमाचली कहानी के नायक रहे वीरभद्र सिंह के कारण ही पिछला चुनाव कांग्रेस के हाथ में आया, लेकिन फितरत में मुगालता हो जाए तो कहानी बिगड़ती है। कहानी दोनों तरफ से बिगड़ रही है, क्योंकि मुकम्मल करने के बजाय शिंदे भी पार्टी की राष्ट्रीय विवशताओं के पात्र बने ही हिमाचल में घूमते रहे। मुख्यमंत्री सारी कहानी को अंजाम तक ले जाने के लिए अपने पात्र चुनना चाहते हैं, जबकि सुक्खू पहले से ही कुछ नेताओं द्वारा चुने गए ऐसे पात्र हैं जो परिवर्तन की कहानी लिखना चाहते हैं। हालांकि यह स्वाभाविक है और राजनीति में हर नेता को अपनी कहानी को अंजाम दिए बिना सफलता नहीं मिलती, लिहाजा सुक्खू की पृष्ठभूमि में कांग्रेस का असंतोष सीधे मुख्यमंत्री को चुनौती दे चुका है। अब कहानी का एक दूसरा किरदार बनने के लिए, मुख्यमंत्री ने चुनाव की सांझ में अपना रुतबा फिर से लिखा है। दबाव यह है कि वह चुनाव अपनी शर्तों पर लड़ेंगे और कमोबेश इन शर्तों से अलग भाजपा के भीतर भी द्वंद्व को नहीं देखा जाएगा। भाजपा के भीतर भी असंतोष के साथ बेचैनी है और इसे मीडिया रिपोर्टिंग के अर्थ में खंगालें, तो अपनी-अपनी कहानी बयान करते परिदृश्य सामने आ रहे हैं। एम्स की स्थापना पर राजनीतिक दीवार पर जो चित्रित हुआ, उससे दिशाओं का अंतर स्पष्ट है। भले ही भाजपा ने इससे पूर्व अन्य राज्यों में मुख्यमंत्री पद का चेहरा न दिखाया हो, लेकिन हिमाचल में पार्टी का एक सतत पक्ष अपनी हिफाजत में हर दिन मुख्यमंत्री बनने के कसीदे गढ़ रहा है। पार्टी की सशक्त होती उम्मीदों के बीच भाजपा की कहानी भी फिलहाल दो पात्रों की लड़ाई है, तो कांग्रेस की एक जमात का खून खौल रहा है। यह दीगर है कि छह बार मुख्यमंत्री होने के असर से वीरभद्र सिंह ने दूसरी तरफ को हमेशा ग्रहण से भरे रखा और यह प्रमाणित भी होता रहा कि पार्टी का यही शख्स खेवनहार है। मलाल के कुंड में ठाकुर कौल व पंडित सुखराम सरीखे नेताओं की संभावनाओं का डूब जाना एक कहानी है, लेकिन क्या सुक्खू इन दोनों नेताओं से बड़ी चुनौती बने रहेंगे। रोचकता तो कांग्रेस आलाकमान की लाचारी में है, जो शिंदे को हिमाचल भेजकर भी हाथ बांधे खड़ी है। विडंबना यह कि विपक्ष के हमलों का अकेले वीरभद्र सामना करते रहे और पार्टी राजनीतिक नजारे में चंद नेताओं का उद्गम देखती है। हरियाणा में भाजपा की फजीहत के बावजूद हिमाचल में कांग्रेस अगर लकवाग्रस्त है, तो इस कहानी का अंत समझा जा सकता है।

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