दीपदान की उज्जवल परंपरा

By: Aug 19th, 2017 12:07 am

इस संस्कृति में बाहरी अंधकार के साथ अपने भीतर पसरे अंधकार को दूर कर संसार और अपने जीवन को प्रकाशमय बनाने पर जोर दिया जाता रहा है। इस प्रकाशप्रेमी संस्कृति का एक अहम हिस्सा है-दीपदान। भारतीय संस्कृति में दीपदान व्रत की विशेष महिमा बताई गई है। जिस प्रकार घर में दीपक जलाने पर घर का अंधकार दूर हो जाता है उसी प्रकार भगवान के मंदिर में दीपदान करने वाले को भी अनंत पुण्यफल प्राप्त होते हैं…

Aasthaभारतीय संस्कृति ‘तमसो मा ज्यातिर्गमय’ के घोष वाक्य से प्रेरित और संचालित होती रही है। इस संस्कृति में बाहरी अंधकार के साथ अपनी भीतर पसरे अंधकार को दूर कर संसार और अपने जीवन को प्रकाशमय बनाने पर जोर दिया जाता रहा है। इस प्रकाशप्रेमी संस्कृति का एक अहम हिस्सा है-दीपदान। भारतीय संस्कृति में दीपदान व्रत की विशेष महिमा बताई गई है। जिस प्रकार घर में दीपक जलाने पर घर का अंधकार दूर हो जाता है उसी प्रकार भगवान के मंदिर में दीपदान करने वाले को भी अनंत पुण्यफल प्राप्त होते हैं। दीपदान व्रत कभी भी किसी भी दिन से आरंभ किया जा सकता है। शास्त्रों में ऐसा उल्लेख मिलता है कि स्वयं अग्निदेव ने दीपदान व्रत को मोक्ष प्रदान करने वाला बताया है। जो मनुष्य देवमंदिर अथवा ब्राह्मण के घर में एक वर्ष तक दीपदान करता है, वह सब कुछ प्राप्त कर लेता है। चातुर्मास्य में दीपदान करने वाला विष्णु भगवान के धाम, कार्तिक मास में दीपदान करने वाला स्वर्गलोक तथा श्रावण मास में दीपदान करने वाला भगवान शिव के लोक को प्राप्त कर लेता है। चैत्र मास में मां भगवती के मंदिर में दीप जलाने से निश्चय ही मां जगदंबा के नित्य धाम को प्राप्त कर वहां अनंत भोगों को भोगता है। दीपदान से दीर्घ आयु और नेत्र ज्योति की प्राप्ति होती है। दीपदान से धन और पुत्रादि की भी प्राप्ति होती है। दीपदान करने वाला सौभाग्य युक्त होकर स्वर्ग लोक में देवताओं द्वारा पूजित होता है।  जिस देवता का मंदिर हो उस देवता का नाम उच्चारण करके ही दीप समर्पित करें। पुराणों में दीपदान के महत्त्व और प्रभाव को रेखांकित करने वाली एक रोचक कहानी का उल्लेख मिलता है। विदर्भ की राजकुमारी ललिता दीपदान के ही पुण्य से राजा चारुधर्मा की पत्नी हुई और उसकी सौ रानियों में प्रमुख हुई। उस साध्वी ने एक बार विष्णु मंदिर में सहस्र दीपों का दान किया। इस पर उसकी सपत्नियों ने उससे दीपदान का माहात्म्य पूछा। उनके पूछने पर ललिता ने दीपदान का महत्त्व बताते हुए कहा कि बहुत पहले की बात है, सौवीरराज के यहां मैलेय नामक पुरोहित थे। उन्होंने देविका नदी के तट पर भगवान श्रीविष्णु का मंदिर बनवाया। कार्तिक मास में उन्होंने दीपदान किया। बिलाव के डर से भागती हुई एक चुहिया ने अकस्मात अपने मुख के अग्रभाग से उस दीपक की बत्ती को बढ़ा दिया। बत्ती के बढ़ने से वह बुझता हुआ दीपक प्रज्वलित हो उठा। मृत्यु के पश्चात वही चुहिया राजकुमारी हुई और राजा चारुधर्मा की सौ रानियों में पटरानी हुई। इस प्रकार मेरे द्वारा बिना सोचे-समझे जो विष्णु मंदिर के दीपक की बाती बढ़ा दी गई; उसी पुण्य का मैं फल भोग रही हूं। इसी से मुझे अपने पूर्व जन्म की स्मृति भी है। इसलिए मैं हमेशा दीपदान किया करती हूं। एकादशी को दीपदान करने वाला स्वर्गलोक में विमान पर आरूढ़ होकर प्रमुदित होता है। मंदिर का दीपक हरण करने वाला गूंगा अथवा मूर्ख हो जाता है। वह निश्चय ही ‘अंधतामिस्त्र’ नाम के नरक में गिरता है, जिसे पार करना दुष्कर है। अग्निदेव कहते हैं- ‘ललिता की सौतें उसके द्वारा कहे हुए इस उपाख्यान को सुनकर दीपदान व्रत के प्रभाव से स्वर्ग को प्राप्त हो गईं। इसलिए दीपदान सभी व्रतों से विशेष फलदायक है। धनतेरस के दिन यमुना स्नान करके यमराज और धन्वन्तरि का पूजन-दर्शन कर दीपदान करने से मनुष्य की कभी अकाल मृत्यु नहीं होती और मनुष्य स्वस्थ जीवन को प्राप्त होता है। नरक चतुर्दशी के दिन प्रदोष काल में चार बत्तियों वाला दीपक जलाने से पापों की निवृत्ति होती है तथा नरक नहीं जाना पड़ता। दीपावली के दिन महालक्ष्मी के निमित्त किए गए दीपदान से महालक्ष्मी प्रसन्न होती हैं एवं घर में धन-धान्य की वृद्धि होती है। जो प्रत्येक पूर्णमासी को अखंड दीपक घर में जलाता है, भगवान सत्यनारायण की कृपा से वह संपूर्ण भोगों को प्राप्त कर लेता है। महत्त्वपूर्ण आयोजनों के समय तो दीपदान का महत्त्व है ही, दैनिक पूजा-पाठ भी देवता को दीपदान किए बगैर सफल नहीं होते।

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