बुलेट का सपना छोड़ दें !

By: Aug 22nd, 2017 12:02 am

खतौली-मुजफ्फरनगर रेल हादसे के खलनायक और मुजरिमों के चेहरे लगभग सार्वजनिक हो चुके हैं। रेलवे बोर्ड के सदस्य, महानिदेशक और दिल्ली डीआरएम को छुट्टी पर भेजा गया है, जबकि चार इंजीनियर निलंबित कर दिए गए हैं। समझ नहीं आता कि यह कार्रवाई ही पर्याप्त है या दंडात्मक कार्रवाई भी तय की जाएगी! लेकिन मौजू सवाल यह है कि आम रेलगाडि़यों के लिए पटरियां सुरक्षित नहीं हैं, सुरक्षा और रखरखाव का एजेंडा निश्चित नहीं है, अनधिकृत तौर पर भी पटरियों की मरम्मत की जाती रही है, ‘शून्य रेल दुर्घटना’ के लक्ष्य के बावजूद हादसे हो रहे हैं, तो इस देश में 300 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चलने वाली बुलेट टे्रन कैसे संभव है? बेशक जापान ने एक फीसदी से भी कम दर पर भारत को कर्ज देना तय किया है, बेशक नई प्रौद्योगिकी देश में आएगी, तो प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से रोजगार भी बढ़ेगा, लेकिन बुनियादी सवाल है कि क्या हमारे रेल कर्मियों का मानस ऐसा है कि हम देश में बुलेट टे्रन का सपना देख सकें और उसे हकीकत में अंजाम दे सकें? जबकि जापान और चीन के विशेषज्ञों ने हमारे टै्रक का मुआयना कर निष्कर्ष दिया था कि पटरियों पर 130 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से भी टे्रन नहीं चलाई जा सकती। खतौली-मुजफ्फरनगर के पास जो रेल हादसा हुआ है, वह पूरी तरह मानवीय गलती और अनदेखी का नतीजा है। रेल कर्मियों की नालायकी भी कह सकते हैं। मरम्मत के लिए कोई आधिकारिक आदेश नहीं लिया गया था। पटरियों की मरम्मत की जानकारी न तो स्टेशन मास्टर को थी और न ही टे्रन ड्राइवर को…। मरम्मत के दौरान एक किलोमीटर की दूरी पर, दोनों दिशाओं में, जो लाल झंडे लगाए जाने थे, वे लगाए नहीं गए थे, अलबत्ता घटनास्थल के करीब जरूर पड़े थे। मरम्मत वाली पटरियों को जोड़ा तक नहीं गया था, बल्कि अधूरा काम छोड़ कर रेलकर्मी वहां से चले गए थे। ये सभी मानवीय स्वभाव की विसंगतियां हैं। ऐसे दोषी कर्मचारियों को तो नौकरी से ही बर्खास्त किया जाना चाहिए। मान लें, ऐसा हादसा बुलेट टे्रन के साथ होता है, तो उसका नुकसान कितना होगा? यह कल्पना करके ही फुरफुरी दौड़ने लगती है। बेशक हमारे करीब 40 फीसदी टै्रक पुराने  हैं और वे अकसर खराब ही रहते हैं। क्या विश्व की सबसे बड़ी रेलवे ऐसे ही भरोसे पर चलती रहेगी  और दुर्घटनाएं होती रहेंगी? हालांकि बजटीय योजना के मद में रेलवे को डेढ़ गुना राशि ज्यादा मिली है। फिर भी बीते पांच सालों में 586 रेल हादसे हुए हैं, जिनमें से करीब 53 फीसदी हादसे पटरियों से रेल के उतरने के कारण हुए हैं। इन हादसों का राजनीतिकरण नहीं किया जाना चाहिए कि किस सरकार के कार्यकाल में कितने हादसे हुए। अलबत्ता जिम्मेदारी तो सरकारों की ही तय होती है। माना जा सकता है कि बुलेट टे्रन का टै्रक अलग बनाया जाएगा, जिस तरह मेट्रो का बनाया गया है। लेकिन सवाल तो रेल कर्मियों की मानसिकता और कामचोरी का है। बुलेट के मामले में जापान, सिंगापुर, जर्मनी, फ्रांस, लंदन और चीन बनने की कोशिश न की जाए। वे देश अपने बुनियादी काम और दायित्व के प्रति अत्यंत ईमानदार हैं। चीन में भी बुलेट के जरिए नई प्रौद्योगिकी आई थी। उन्होंने भी अपने अनुभवों से ही सीखा था। भारत में रेलवे के विशेषज्ञों का कहना है कि रेलवे को आगामी पांच सालों में कमोबेश 15,000 करोड़ रुपए की दरकार है। यदि ‘शून्य दुर्घटना’ का संकल्प 2022 तक पूरा कर लिया जाए, तो रेल हादसे बेहद कम किए जा सकते हैं। रेलवे टै्रक की जांच से जुड़े करीब 40,000 पद खाली हैं। दूसरे विभागों में भी करीब 1,00,000 पद खाली हैं। कार्यबल को तय किया जाए और भ्रष्टाचार, लालच, बेईमानी की सजा कड़ी की जाए, उसके बाद ही हाई स्पीड और बुलेट टे्रन का सपना साकार होने की बात सोची जा सकती है। 2012 में रेल मंत्रालय ने रेल की सुरक्षा के मद्देनजर सुझाव देने के लिए जो अनिल काकोदकर समिति का गठन किया था, उसने कुल 106 सुझाव दिए थे। समिति की सिफारिशों पर पूरी तरह आज तक अमल नहीं किया गया, तो फिर सुरक्षा कैसे तय होगी? बहरहाल हादसे होते हैं, रेल दुर्घटनाएं होती हैं, तो सुरक्षा के विभिन्न पहलुओं पर बहस शुरू होती है। नहीं तो हमारी रेलवे राम-भरोसे चलती रहती है। यात्रियों का जीवन तो राम-भरोसे होता ही है।

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