मुस्लिम समुदाय में ताजी हवा का झोंका

By: Aug 26th, 2017 12:05 am

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्री

लेखक, वरिष्ठ स्तंभकार हैं

डा. कुलदीप चंद अग्निहोत्रीकुछ मुसलमानों ने अपनी अलग-अलग एनजीओ बना रखी हैं और इस निर्णय को लेकर आपस में बहस कर रही हैं। इस प्रकार की एक एनजीओ ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है, जिसका कहना है कि तीन तलाक पर कचहरियों को दखलअंदाजी करने का अधिकार नहीं है। एक दूसरी एनजीओ ऑल इंडिया वूमन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है, जो न्यायालय के निर्णय का स्वागत कर रही है। मुस्लिम राष्ट्रीय मंच खुल कर न्यायालय के निर्णय का स्वागत कर रहा है, लेकिन ओवैसी जैसे कुछ इक्का-दुक्का राजनीतिज्ञ खुल कर मौलवियों के पक्ष में बयानबाजी कर रहे हैं…

तीन तलाक को लेकर देश में लंबे अरसे से बवाल मचा हुआ था। जिन लोगों का इस्लाम में विश्वास है, उनका मानना है कि वहां पुरुषों को केवल तीन बार तलाक-तलाक-तलाक कह देने से अपनी विवाहिता पत्नी से छुटकारा मिल जाता है। पुराने जमाने में इतना जरूर ध्यान रखा जाता था कि तीन बार तलाक अपनी पत्नी के सामने कहना पड़ता था। लेकिन जब से आधुनिक तकनीक विकसित हुई है तब से माडर्न टेक्नोलोजी के शौकीनों ने व्हाटसऐप से भी तलाक देना शुरू कर दिया। जिनको व्हाट्सऐप का प्रयोग नहीं आता, वे एसएमएस से ही यह काम निपटाने लगे। मुसलमानों में से भी अधिकांश लोग इसका विरोध करते थे, लेकिन मौलवियों का कहना था कि मजहब और शरीयत की व्याख्या करने पर उनका एकाधिकार है और उनकी व्याख्या स्पष्ट है। उनके अनुसार मर्दों को तीन तलाक के इस तरीके का उपयोग करने का अधिकार है। मुस्लिम समाज की औरतें इस अमानवीय प्रथा का विरोध अपने बलबूते काफी लंबे अरसे से करती रही हैं। कुछ दशक पहले शाहबानो ने तलाक की इस प्रथा को न्यायालय में चुनौती दी थी। उसके पति ने तलाक के अपने तथाकथित मजहबी अधिकार का प्रयोग किया और उसे सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया था। वह अपने पति से गुजारा भत्ता मांग रही थी। पति उसकी इस मांग को भी इस्लाम विरोधी ही मान रहा था। अंततः शाहबानो न्याय की मांग करते हुए न्यायालय पहुंच गई। यह लड़ाई देश के उच्चतम न्यायालय में पहुंच गई। उच्चतम न्यायालय में वह अपनी ऐतिहासिक लड़ाई जीत गई। उच्चतम न्यायालय ने उसके पक्ष में निर्णय दिया। अब सरकार को शाहबानो के पक्ष में यह निर्णय लागू करवाना था। शाहबानो को भी और आम मुसलमानों को भी विश्वास था कि इस मानवीय लड़ाई में देश की सरकार उनके साथ होगी और अब उन्हें सदियों से हो रहे अन्याय से मुक्ति मिल जाएगी। लेकिन इसे इतिहास की त्रासदी ही कहना होगा तत्कालीन सरकार ने निर्णय की घड़ी में आम मुसलमानों का साथ न देकर मौलवियों का ही साथ दिया।

कांग्रेस के राजीव गांधी उस समय देश के प्रधानमंत्री थे। उनके बारे में कहा जाता था कि वह प्रगतिशील होने के साथ-साथ रुढि़यों के खिलाफ थे। लेकिन उनकी सरकार ने शाहबानो को न्याय दिलवाने के बजाय, न्यायालय के फैसले को निरस्त करने के लिए संसद में एक नया कानून बना दिया। जिन प्रावधानों के तहत शाहबानो को गुजारा भत्ता मिलना था, नए कानून में यह व्यवस्था की गई कि वे सभी प्रावधान मुसलमान औरतों पर लागू नहीं होंगे। उस समय की सरकार ने पीडि़त मुसलमान समाज के साथ खड़ा होने के बजाय मुस्लिम समाज के सामंतवादी मौलवी समुदाय के साथ खड़ा होना ही अपने राजनीतिक लाभ के लिए श्रेयस्कर समझा। शाहबानो के साथ अन्य लाखों मुसलमान औरतों को इससे सचमुच ही वेदना हुई। लेकिन सरकार के भी मौलवियों के साथ चले जाने के बावजूद मुस्लिम समाज की औरतें निराश नहीं हुईं। उन्होंने अपनी लड़ाई नहीं छोड़ी, बल्कि आगे चलकर इस अभियान को उन्होंने तेज धार दी। अनेक साल बाद उत्तराखंड की सायरा वानो एक बार फिर तीन तलाक का विरोध करने के लिए और न्याय की पुकार लगाते हुए न्यायालय में पहुंच गई। उसकी देखादेखी कुछ और मुसलमान औरतें तीन तलाक को चुनौती देते हुए न्यायालय आ गईं। मामला चलते-चलते एक बार फिर उच्चतम न्यायालय पहुंच गया। लेकिन इस बार एक नई बात हुई। न्यायालय ने केंद्र सरकार से पूछा कि आप बताइए कि आप इस पूरे मामले में किस के साथ हैं? आपका तीन तलाक के बारे में क्या कहना है? इस सवाल से पूरे मुस्लिम समाज में सन्नाटा छा गया।

मुसलमान औरतों के लिए तो यह उनके स्वाभिमान का प्रश्न था। क्या सरकार एक बार फिर मौलवियों का साथ देगी या इस बार आम मुस्लिम समाज के साथ खड़ी होगी? लेकिन सभी ने तब राहत की सांस ली जब इस बार केंद्र सरकार ने न्यायालय को स्पष्ट बता दिया कि सरकार तीन तलाक को संविधान विरोधी ही नहीं, बल्कि मानवता विरोधी भी मानती है। मुसलमान औरतों को सरकार पर विश्वास हुआ। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तो अपने पंद्रह अगस्त के भाषण में भी स्पष्ट किया कि सरकार मुसलमान महिलाओं के साथ है। और अब उच्चतम न्यायालय ने अपना फैसला दे दिया है। यह ऐतिहासिक फैसला है। न्यायालय ने बहुमत से निर्णय दिया है कि तीन तलाक संविधान विरोधी है और यह गैर कानूनी है। न्यायालय ने सरकार को यह भी कहा है कि वह छह माह के अंदर-अंदर इस विषय पर कानून बनाए। कहना न होगा कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय के बहुमत के फैसले ने तीन तलाक की अमानवीय परंपरा को असंवैधानिक मानते हुए उसे निरस्त कर मुस्लिम महिलाओं के सम्मान व हक को प्रतिष्ठित करने की एक अहम व स्वागत योग्य पहल की है। इस निर्णय पर मुसलमान औरतों ने मिठाइयां बांट कर अपनी खुशी का इजहार किया।

हालांकि इस कुप्रथा से मुक्ति का यह मार्ग इतना सरल नहीं था। हर कदम पर चुनौतियां बेशुमार थीं। लेकिन इसके लिए संघर्षरत मुस्लिम महिलाएं इस परीक्षाओं से विचलित न हुईं। इसके बावजूद तमाम दबावों को दरकिनार करते हुए सायरा बानो, आफरीन रहमान, अतिया साबरी, इशरत जहां, गुलशन परवीन जैसी कई जुझारू व दिलेर महिलाओं ने इस लड़ाई को न केवल जारी रखा बल्कि इसे इच्छित अंजाम तक भी पहुंचाया। कुछ मुसलमानों ने अपनी अलग-अलग एनजीओ बना रखी हैं और इस निर्णय को लेकर आपस में बहस कर रही हैं। इस प्रकार की एक एनजीओ आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है, जिसका कहना है कि तीन तलाक पर कचहरियों को दखलअंदाजी करने का अधिकार नहीं है। लेकिन एक दूसरी एनजीओ ऑल इंडिया वूमन मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड है, जो न्यायालय के निर्णय का स्वागत कर रही है। मुस्लिम राष्ट्रीय मंच खुल कर न्यायालय के निर्णय का स्वागत कर रहा है, लेकिन ओवैसी जैसे कुछ इक्का-दुक्का राजनीतिज्ञ खुल कर मौलवियों के पक्ष में बयानबाजी कर रहे हैं। लेकिन इतना स्पष्ट है कि न्यायालय का यह निर्णय मुसलमान औरतों के लिए ताजा हवा का झोंका है।

ई-मेल : kuldeepagnihotri@gmail.com

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