लालचौक पर ‘तिरंगे’ की बेटी !
आतंकी कितना भी कहर बरपा लें, अलगाववादी देश को गालियां दे लें और पाकिस्तान के इशारों पर साजिशों के दलाल बनते रहें, एक तबका कट्टरपंथी और भारत विरोधी है, जो दुष्प्रचार करता रहा है कि कश्मीरी हिंदोस्तानियों से बात ही करना नहीं चाहते, समाधान और गले लगना तो दूर की कौड़ी है। ऐसे माहौल में जम्मू-कश्मीर की एक बेटी ने देश की आजादी के मौके पर श्रीनगर के लालचौक पर न केवल तिरंगा फहराया, बल्कि वंदे मातरम् के नारे भी गुंजाए। इस बेटी की तिरंगा फहराते फोटो कुछ प्रमुख अखबारों ने पहले पन्ने पर छापी है। कश्मीरी बेटी के इस हौसले और भारत प्रेम से सियासत और पाकपरस्त रणनीति का एक तबका स्तब्ध है। वह अवाक है कि ऐसा कैसे हो गया? इसके प्रतीकात्मक फलितार्थ क्या होंगे? क्या अब कश्मीर की बेटियां, हाथों में तिरंगा थामकर, बदलाव के मोर्चे का नेतृत्व करेंगी? क्या कश्मीरी बेटियां ही घाटी में अमन-चैन की अग्रदूत बनेंगी और ‘दुनिया की जन्नत’ को कुरूप करने वाले खलनायकों की छाती पर मूंग दलेंगी? लालचौक पर 15 अगस्त के मौके पर अभी तक कोई भी तिरंगा नहीं फहरा सका है। भाजपा अध्यक्ष के तौर पर डा. मुरली मनोहर जोशी के नेतृत्व में एक प्रयास किया गया था, लेकिन जैसे ही कोई बम विस्फोट हुआ, तमाम भाजपाई वहां से रफू चक्कर हो गए। हमारा अभिप्रायः सिर्फ स्वतंत्रता दिवस और तिरंगे के सामंजस्य से है। तिरंगा ही भारत की संप्रभुता और गणतांत्रिक आजादी का राष्ट्रीय प्रतीक है। जो आंदोलन तिरंगे को थाम कर लड़े गए हैं, वे अपने आप राष्ट्रीय होते गए हैं। बेशक लालचौक के ऐतिहासिक स्थल पर तिरंगा फहराते और वंदे मातरम् की हुंकार भरते सुनीता अरोड़ा ने, अपने स्तर पर ही, यह प्रयास किया। कोई भाजपा, संघ या राजनीतिक दल की ताकत और समर्थन उनके पीछे नहीं था। सिर्फ राष्ट्र प्रेम की भावना थी और कश्मीर को भी भारत का अभिन्न अंग मानते हुए तिरंगे की व्यापकता दिखाने की कोशिश थी। कश्मीर पर प्रधानमंत्री मोदी का बयान, लालकिले की प्राचीर से, बाद में आया है। तब तक सुनीता तिरंगे को दोनों हाथों में ऊंचा उठाकर लालचौक पार कर चुकी थीं। एक तरफ सुनीता ने यह ऐतिहासिक काम किया, तो दूसरी ओर मुस्लिम हिना खान ने रेडियो पर वंदे मातरम् गाकर पूरे देश को आंदोलित करने की कोशिश की है। इन कश्मीरी बेटियों के हौसले और राष्ट्र प्रेम को सलाम, साधुवाद, शाबाश….! कई कठमुल्लों की तल्ख प्रतिक्रिया आई है। आरोप है कि कश्मीर के कथित आंदोलन में सरकार औरतों की आड़ में लड़ना चाह रही है। सुनीता का यह प्रयास यहीं समाप्त नहीं होगा। कुछ आतंकियों की धमकी आ सकती है या उन पर भी कोई हमला किया जा सकता है, लेकिन कश्मीर की बेटी निश्चिंत है। एक लंबे वक्त से उनके भीतर यह भावना थी कि लालचौक पर तिरंगा फहराया जाए। लेकिन यह प्रयास उन्हें अकेले ही करना पड़ा। भारत के इतिहास में झांसी की रानी लक्ष्मीबाई सरीखे उदाहरण हैं, देश के स्वतंत्रता आंदोलन में असंख्य महिलाओं और बेटियों ने खुद को झोंक दिया था। पड़ोस के देश अफगानिस्तान की मलाला युसूफजई ने तालिबान के आतंकियों से लोहा लिया। उनका संघर्ष और आंदोलन आज वैश्विक स्तर पर जारी है। मलाला को नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया है, लेकिन उन्होंने किसी भी स्तर पर हार नहीं महसूस की। सुनीता भी कश्मीर के हालात से द्रवित और चिंतित हैं। कुछ बच्चों का ‘पत्थरबाज’ के तौर पर इस्तेमाल किया जाता रहा है। सुरक्षा बलों से भिड़ंत में वे मारे भी जाते हैं। खुद सुनीता एक मां हैं, लिहाजा दूसरी मांओं की पीड़ा और शोक को भी शिद्दत से महसूस करती हैं। सुनीता का यह प्रयास इसलिए है कि सभी कश्मीरी, अंततः, एहसास करें कि हम सब हिंदोस्तानी हैं और इसी एहसास के तहत समाधान हासिल किए जा सकते हैं। कश्मीर के सभी हिंदू और मुसलमान शांति चाहते हैं। सभी काम सरकारें नहीं कर सकतीं। अमन-चैन के संवाहक तो खुद कश्मीरी हैं, लिहाजा कश्मीरियों को ही सोचना पड़ेगा कि उनके हित क्या और कहां हैं? जय तिरंगा, जय सुनीता और जय कश्मीर…!
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