विष्णु पुराण

By: Aug 19th, 2017 12:05 am

तब देवताओं की बात सुनकर पितामह ने उनसे कहा-हे देवताओ! तुम दैत्यों का संहार करने वाले भगवान विष्णु की शरण में जाओ जो विश्व की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कारण हैं, किंतु कारण ही नहीं चराचर के स्वामी, प्रजापतियों के अधिपति, सभी प्राणियों में व्याप्त, अंतःरहित और कभी पराजित न होने वाले हैं …

यतः सत्व ततो लक्ष्मीः सत्वं भूत्यनुसारि च

निःश्रीकाणां कुताः सत्व विना तेन गुणाः कुतः

बलशौर्याद्यभावश्च पुरुषार्णा गुणैर्विना।

लंघनीयः समस्या बलशौर्यविवर्जितः

भवत्यपघ्वस्तमतिर्लघितः पूथितः पुमान्

एवमत्यन्तानिःश्रीके त्रेलोक्य सत्सवमर्जिते।

देवान् प्रति बयोत्तोगं चक्रुदेतेयपानवाः

लोभाभिताः निःश्रीकादत्याः सत्वविवर्जिताः

श्रिया विहीनैनिं: सत्वैदेवैश्क्रुस्तो रणम्।

विजितास्त्रिदशा दैत्यैरिन्द्राद्याः शरण ययुः

पितामह महाभागा हुताशनपुरोगमाः

यथावत्कथितो देवैर्ब्रह्मा प्राह ततः सुरान

परावरेश शरणं ब्रजध्वममसुरार्दनम्।

उत्पत्तिस्थितिनाशनामाहे हेदुमीरश्वम्।

प्रजापतिपति विष्णुमनन्तमपराजितम्।

प्रणार्त्तिहरं विष्णु सवः श्रेयौ विधास्यति।

सत्व लक्ष्मी जी का ही साथी है, इसलिए जहां वह होता है, वहां लक्ष्मीजी का भी निवास रहता है। श्री हीनों में सत्व नहीं होता, इसलिए गुण की स्थिति भी कैसे होगी। जब गुण नहीं तो पुरुष में बल, शौर्यादि हीन भी रहता है और जिसमें बल शौर्यादि नहीं, उसे कभी आदर प्राप्त नहीं होता। इस प्रकार जब तीनों लोक श्रीहीन हो गए, तब उन श्रीहत देवताओं पर दैत्यों और दानवों ने आक्रमण करदिया। सत्व और वैभव रहित होने पर भी दैत्यों ने लाभ के वशीभूत होकर सत्वहीन और श्रीहीन देवताओं से संग्राम छेड़ दिया। अंत में देवताओं की पराजय हुई, तब इंद्रादि सभी देवताओं ने अग्नि के नेतृत्व में पितामह ब्रह्माजी की शरण ली। तब देवताओं की बात सुनकर पितामह ने उनसे कहा, हे देवताओ! तुम दैत्यों का संहार करने वाले भगवान विष्णु की शरण में जाओ जो विश्व की सृष्टि, स्थिति और प्रलय के कारण हैं, किंतु कारण ही नहीं चराचर के स्वामी, प्रजापतियों के अधिपति, सभी प्राणियों में व्याप्त, अंतःरहित और कभी पराजित न होने वाले हैं एवं अजन्मा होकर कार्य रूप में परिवर्तित प्रकृति और पुरुष के कारण हैं। इसलिए वे ही शरणागत वताल तुम्हारा अवश्य ही कल्याण करेंगे।

एवमुक्त्वा सुरान्सर्वान ब्रह्मा लोकपितामहः।

धोरोदस्योत्तरं तीर तैरेव सहितो ययौ।।

स गत्वा त्रिदशै सर्वेः समवेतः पितामहः।

तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभि परावरपति हरिम्।।

नमामि सर्व सर्वेशमनंत्रमजमव्यम्।

लोकधाम धराधारमप्रकाशमशेदिनम्।।

नारायणमणीयामशेषांणः मणीयसाम्।

समस्तानां गरिष्ठ च भूरादीनां गरीयसाम्।।

यत्र सर्व यतः सर्वामुत्पन्न मतुरः सरम।

सर्वभतश्च यो देवः पराणामपि य परः।।

परः परस्मात्परुषात्परमात्मस्वरूपधृक।

योगिभिश्चिन्त्यते योऽसौमुक्तिहेतोमुमुक्षुभिः।।

सत्वादयो न सन्तीशे यत्र च प्राकृता गुणाः।

 स शुद्धः सवशुद्धेभ्यः पुनानाद्य प्रसीदतु।।

श्रीपाराशरजी ने कहा, हे मैत्रेयजी! सब देवताओं से ऐसा कहकर ब्रह्माजी उनके साथ उस क्षीरसागर के उत्तरी किनारे पर पहुंचे, जहां भगवान विष्णु का धाम है। वहां जाकर सभी देवताओं के साथ उन्होंने उन भगवान की अत्यंत मंगलमय वाणी में स्तुति की। ब्रह्माजी ने कहा, जो समस्त अणुओं से सूक्ष्म तथा पृथ्वी आदि समस्त गुरु पदार्थ से भी भारी हूं, उन अखिल लोक के आश्रय, पृथ्वी के आधार, अप्रक अमेद्य, सर्वरूप, सर्वेश्वर, अंत रहित, अजन्मा तथा अव्यय भगवान नारायण को नमस्कार करता हूं। जिस परब्रह्म में मेरे सहित यह संपूर्ण विश्व स्थित है तथा जिससे उत्पन्न हुआ है, जो सर्व भूतमय और परे से परे है, जो पुरुष परे होने के कारण मुमुक्षुओं के द्वारा ध्यान में ही दृष्टि गोचर होते हैं, जिसमें सत्वादि गुणों का अभाव है।

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