शिंदे के शिविर में कांग्रेस

By: Aug 18th, 2017 12:02 am

शिंदे शिविर में हिमाचल कांग्रेस को सबसे पहले जो सीखना है वह आंतरिक अनुशासन व पार्टी की संगत में रहने की संयमित व्यवस्था होनी चाहिए। बेशक प्रदेश प्रभारी सुशील कुमार शिंदे के आगाज में कड़े संदेशों की भरमार तो दिखाई देती है, लेकिन गुटबाजी के छोर पर प्रहार जैसा कोई उदाहरण नहीं मिलता। जीत की चुनौतियों के बीच पार्टी की द्वितीय पंक्ति का संघर्ष और प्रथम बने रहने की परंपरा का प्रसार कहीं तो खंदक में बैठा है। प्रदेश जानता है कि कांग्रेस चोट कहां खा रही है या बिना किसी सरकार विरोधी लहर के क्यों लड़खड़ा रही है, लेकिन बड़े नेताओं को लगता है कि उनका आधार व जनाधार कम नहीं होगा। इसमें दो राय नहीं कि इस बार के चुनाव राजनीतिक परिपाटी बदलेंगे और इसी बदलती परिभाषा में भाजपा की चुनौती को समझना होगा। इसलिए कांग्रेस प्रभारी शिंदे जब धर्मशाला में कुनबे को साहस व एकजुटता का पाठ दे रहे थे, तो इसके विरोध में भाजपा ने गद्दी समुदाय की जंग छेड़कर अपनी सरहद और सुदृढ़ की। जाहिर है गद्दी विवाद को भाजपा आंदोलन की व्यापकता में देख रही है और इसके प्रभाव से कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में सियासी उफान व ध्रुवीकरण बढ़ेगा। इसमें दो राय नहीं कि कांगड़ा संसदीय क्षेत्र में चोट खाकर ही भाजपा का तंबू उखड़ा था। कांगड़ा माइनस की पिछली सियासी फिरौती में भाजपा को खुद अपनी ही राजनीतिक संपत्ति गंवानी पड़ी, तो इस बार भी पार्टी के बीच मतैक्य की कमी इसी क्षेत्र के समीकरणों को कमजोर कर रही है। ऐसे में राजनीतिक रीढ़ बनकर आया गद्दी समुदाय पूरे परिदृश्य में अपनी धाक बना पाएगा या भाजपा इसी के सहारे मंजिल लांघ जाएगी। बहरहाल शिंदे की राह देख रही कांग्रेस को गद्दी समुदाय से अपने रिश्तों को रेखांकित करने की आवश्यकता बढ़ जाती है। हिमाचल में हालांकि विभिन्न समुदायों के कल्याण बोर्डों की संख्या बढ़ाने में इस बार वीरभद्र सिंह सरकार ने काफी श्रेय लूटा, तो सदस्यों की फौज में अब गद्दी समुदाय के हिमायती कहां चले गए। खैर वन मंत्री ठाकुर सिंह भरमौरी भी देखे व परखे जाएंगे, फिर भी कांग्रेस के मंथन में ऐसे विषयों का निष्पादन एक सामूहिक जिम्मेदारी की तरह रहेगा। इसलिए शिंदे की बैठकों का सामूहिक चित्रण आवश्यक हो जाएगा। धर्मशाला के आरंभिक दौर में तो कांग्रेस के निर्धारण शांति से हुए, लेकिन इस नब्ज को बरकरार रखने की कठिन परीक्षा तो चुनाव तक रहेगी। तारीफों के ताजा दौर में शहद से कांग्रेसी मिलन की पहली बैठक यकीनन, एक-दूसरे को स्वीकार करने की रही। यह भी तय है कि पुनः वीरभद्र सिंह के कंधे पर सवार होकर कांग्रेस चुनाव लड़ेगी, तो मिशन रिपीट के खाके पर सहमति का इंतजार रहेगा। मिशन रिपीट में सुशासन और विकास के संतुलन का फैसला इस पर भी रहेगा कि प्रदेश में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की गूंज का कितना असर है। अभी तक विपक्ष के मुद्दों में फोरेस्ट गार्ड की खुदकुशी, कोटखाई रेप-मर्डर तथा गद्दी समुदाय के खिलाफ वक्तव्य के इर्द-गिर्द जो तूफान खड़ा हुआ, उसके खिलाफ कांग्रेस का सामूहिक प्रदर्शन कमजोर माना जाएगा, तो आगे भाजपा के आक्रामक तेवरों से निपटने की बुनियाद क्या रहेगी। प्रदेश में राजनीतिक परिवर्तन की परंपरा और अन्य प्रदेशों में कमजोर हो रही कांग्रेस के लिए हिमाचल का मॉडल अंततः वीरभद्र सिंह पर टिका है, तो पार्टी के भीतरी असंतोष को भी शांत करना होगा। शिंदे ने एकतरफा मंजूरी देते हुए वीरभद्र सिंह के हाथ में कमान दी है, तो भाजपा में चेहरों की अपनी चाल जरूर व्याकुल होगी। ऐसे में यह भी तय है कि पहाड़ी प्रदेश में वीरभद्र सिंह को मोदी का मुकाबला करना पड़ेगा। बहरहाल कांग्रेस ने अपने सबसे बड़े युद्ध क्षेत्र कांगड़ा में भाजपा की दुखती रग पर हाथ रखा है, लेकिन पार्टी के अपने घाव भी चीख-चीख कर आंतरिक दर्द का एहसास करा रहे हैं। देखना यह भी होगा कि कांग्रेस अपने प्रत्याशी कितने स्वतंत्र व निष्पक्ष अंदाज में चुन पाती है और बदले में भाजपा के सर्वेक्षण क्या चुन कर मुकाबले में लाते हैं। आरंभिक तौर पर सुशील कुमार शिंदे ने खौलते समुद्र को शांत किया है, लेकिन तासीर बदलने का इम्तिहान तो हर बूंद का होगा। यह इसलिए भी क्योंकि राजनीतिक महासागर बनने की ललक में भाजपा इससे पहले भी कांग्रेस की कई नदियों को चूस चुकी है, तो कांग्रेस की आपसी नाराजगी को एकत्रित करने के मंसूबे विरोधी पक्ष के चरित्र में अब एक खुला आमंत्रण है।

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