स्वतंत्रता आंदोलन-देश भक्ति में प्रेस का योगदान

By: Aug 13th, 2017 12:05 am

मंगलवार को हम आजादी की 70वीं वर्षगांठ मना रहे हैं। इस उपलक्ष्य में ‘दिव्य हिमाचल’ ने प्रतिबिंब के इस अंक में कलम की ताकत को उकेरा है। कवियों-पत्रकारों व अन्य रचनाकारों ने आजादी की लड़ाई में क्या भूमिका निभाई, उसी का लेखा-जोखा यहां दे रहे हैं। स्वतंत्रता सेनानियों के साथ-साथ कलमकारों को याद करने का एक प्रयास…

अकबर इलाहाबादी ने एक बार कहा था–खींचो न कमानों को न तलवार निकालो, जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो। यह कहते हुए उनका भावार्थ यह था कि तलवार से नहीं, बल्कि अखबार अथवा कलम के जरिए स्वतंत्रता हासिल की जा सकती है। आजादी के आंदोलन के दौरान हालांकि कुछ वीर स्वतंत्रता सेनानी ऐसे भी हुए जो तलवार अथवा बंदूक के बल पर अंगे्रजों से आजादी छीन लेने के पक्ष में थे, इसके बावजूद ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो कलम के जरिए लोगों को आजादी के आंदोलन के प्रति जागरूक करके अहिंसक ढंग से स्वतंत्रता प्राप्त करना चाहते थे। इसी सोच का परिणाम था कि स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान भारत में अनेक अखबार और पत्रिकाएं निकलीं जिन्होंने लोगों को आजादी की लड़ाई के लिए तैयार किया और अंततः भारत को आजादी हासिल हुई भी। इस तरह भारत की आजादी में कलम का बड़ा योगदान रहा है। यह प्रेस ही थी जिसने भारतवासियों में देशभक्ति की अलख जगाकर उन्हें लामबंद किया और अंततः अंग्रेजों को भारत को आजाद करना ही पड़ा। प्रेस के प्रति अंगे्ज सरकार का रुख शुरू से ही नकारात्मक रहा और यदा-कदा उसने इस पर पाबंदी लगाने की कोशिश भी की। जेम्स अगस्टस हिक्की ने 29 जनवरी 1780 को पहला भारतीय समाचारपत्र बंगाल गजट कलकत्ता से अंग्रेजी में निकाला। इसका आदर्श वाक्य था – सभी के लिए खुला, फिर भी किसी से प्रभावित नहीं। अपने निर्भीक आचरण और विवेक पर अड़े रहने के कारण हिक्की को ईस्ट इंडिया कंपनी का कोपभाजन बनना पड़ा। हेस्टिंगस सरकार की शासन शैली की कटू आलोचना का पुरस्कार हिक्की को जेल यातना के रूप में मिला। उत्तरी अमरीका निवासी विलियम ने हिक्की की परंपरा को समृद्ध किया। बंगाल जर्नल, जो सरकार समर्थक था, 1791 में विलियम के संपादक बन जाने के बाद सरकार की आलोचना करने लगा। विलियम की आक्रामक मुद्रा से आतंकित होकर सरकार ने उसे भारत से निष्कासित कर दिया। इस शुरुआती दौर के पश्चात बाद के वर्षों में भी प्रेस को काफी कुछ झेलना पड़ा, लेकिन कलम झुकी नहीं और वह आजादी हासिल करके ही रही। हिंदोस्तान, सर्वहितैषी, हिंदी बंगवासी, साहित्य सुधानिधि, स्वराज्य, नृसिंह, प्रभा प्रभृति आदि समाचारपत्रों ने जागरण मंत्र के जरिए आंग्लो शासकों के दांत खट्टे कर दिए। 1885 में हिंदोस्तान का प्रकाशन कालाकांकर के राजा रामपाल सिंह ने शुरू किया। मदन मोहन मालवीय के अलावा अमृतलाल चक्रवर्ती, शशिभूषण चटर्जी, प्रतापनारायण मिश्र, बालमुकुंद गुप्त, गोपालराम गहमरी जैसे हिंदी सेवी पत्र के संपादक थे। इस राष्ट्रवादी पत्र ने भारतवासियों को संस्कृति एवं स्वदेश के प्रति जागरूक किया। 1890 में अमृतलाल चक्रवर्ती के संपादन में हिंदी बंगवासी निकला। पत्र की नीति प्रगतिशील नहीं थी, फलतः पराड़कर जी, बाबू बालमुकुंद गुप्त व अंबिका प्रसाद वाजपेयी जैसे उग्र राष्ट्रवादी पत्रकारों को पत्र से अलग होना पड़ा। राजस्थान से प्रकाशित सज्जन कीर्तिसुधाकर, जयपुर गजट, राजपूताना गजट, मोहन चंद्रिका, सधर्म प्रचारक, राजस्थान समाचार व सर्वहित आदि पत्रों ने स्वदेशोन्नति के जागरण का मंत्र फूंका। इसके अलावा लोकमान्य तिलक के संदेशों को जन-जन तक फैलाने के लिए पूना से केसरी के हिंदी संस्करण को पं. माधवराय सप्रे ने 13 अप्रैल 1907 को नागपुर से निकाला। मराठी केसरी के विभिन्न अवतरणों एवं लेखों के हिंदी अनुवाद को छापकर पत्र ने उग्र विचारधारा का पोषण किया। वास्तव में सप्रे जी प्रखर पत्रकारिता के पक्षधर थे। इलाहाबाद से 1907 ईस्वी में स्वराज्य नामक साप्ताहिक का प्रकाशन शुरू हुआ जिसके संस्थापक संपादक शांति नारायण भटनागर थे। अढाई वर्षों में इसके 75 अंक निकले। आपत्तिजनक सामग्रियों के प्रकाशन के अपराध में शांतिनारायण भटनागर, रामदास, बाबू राम हरि, मुंशी राम सेवक, नंदलाल चोपड़ा, लड्ढाराम कपूर व अमीरचंद बम्बवाल को न्यायालय द्वारा दंडित किया गया। पत्र की उग्रता का परिचय इस तथ्य से मिलता है कि रौलेट कमीशन के सर रौलेट, सर बासिल स्काट, सीवी कुमार स्वामी, बर्ने लोवेट तथा पीसी मित्तर ने इस पत्र का उल्लेख कमीशन की रिपोर्ट में किया। सभी ने यह लिखकर संतोष प्राप्त किया कि पत्र का मुंह तभी बंद हो सका जब 1910 में भारतीय प्रेस अधिनियम लागू हुआ। इलाहाबाद से 1907 में बसंत पंचमी के दिन मदन मोहन मालवीय ने अभ्युदय साप्ताहिक निकाला। निर्भीकता, राष्ट्रप्रेम तथा समाज सुधार में अग्रणी यह पत्र 1918 में दैनिक भी हुआ। सरदार भगत सिंह की फांसी के बाद पत्र ने फांसी अंक निकालकर क्रांति मचा दी। मालवीय की प्रेरणा से ही लीडर का प्रकाशन हुआ जिसने स्वतंत्रता आंदोलन को गति प्रदान की। इसी प्रकार नवंबर 1907 से पं. अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने नृसिंह का प्रकाशन शुरू किया जो न्याय व औचित्य का रक्षक था। यह पत्र कांग्रेस के गरम दल को राष्ट्रीय तथा नरम दल को धृतराष्ट्रीय कहता था। इसी तरह एक लिपि विस्तार परिषद ने जातीय उत्थान के लिए भावनात्मक एकता को महत्व दिया, फलतः शारदाचरण मित्र के इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए देवनागर का संपादन यशोदानंदन अखौरी ने किया। 1907 ईस्वी में इसका प्रथम अंक प्रकाशित हुआ। तिलक के पथ पर चलकर इस पत्र ने एक लिपि विस्तार द्वारा राष्ट्रीय चेतना को उद्दीप्त किया। नागरी प्रचारिणी पत्रिका (1897) तथा सरस्वती (1900) ने अपने साहित्यिक स्वरूप को बनाए रखा तथा जागरण संदेश को प्रसारित कर राजनेता और पत्रकारों ने 1885 से 1919 ईस्वी तक भारतवासियों को स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए जागरूक किया। इसके अलावा महात्मा गांधी, ऐनी बेसेंट, राजाराम मोहन राय, दयाल सिंह मजीठिया तथा कई अन्य स्वतंत्रता सेनानियों ने भी कई अखबार निकाले और भारत की आजादी के लिए बहुमूल्य योगदान दिया। न केवल हिंदी व उर्दू अखबारों, बल्कि अंग्रेजी व स्थानीय भाषाओं के अखबारों का भी स्वतंत्रता आंदोलन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इस तरह कलम कभी भी अंग्रेजों के सामने नहीं झुकी। उसकी बदौलत ही भारतीयों में यह आशा जगी ः

निकट अब ऐवाने-आजादी है, क्यों मायूस होता है।

तब्बसुम कामयाबी का मुझे महसूस होता है।।

कविता ने लिखा आजादी का पाठ

स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लोगों को लामबंद करने, उनमें देशभक्ति की भावना पैदा करने तथा आजादी के बाद उसे कैसे संभाल कर रखना है, इन विषयों पर कवियों ने अनेक रचनाएं की हैं। उन्हीं रचनाओं में से महत्वपूर्ण कुछ रचनाओं का सार इस अंक में पेश है। इन रचनाओं में कवियों की भावनाएं बरसाती मौसम में बादलों की तरह उमड़ आई हैं। निम्न पंक्तियों में आजादी मिलने के बाद सुमित्रा नंदन पंत का सुकून देखने को मिलता है ः

चिर प्रणम्य यह पुण्य अह्न जय गाओ सुरगण,

आज अवतरित हुई चेतना भू पर नूतन!

नवभारत, फिर चीर युगों का तिमिर आवरण,

तरुण अरुण-सा उदित हुआ परिदीप्त कर भुवन!

सभ्य हुआ अब विश्व, सभ्य धरणी का जीवन,

आज खुले भारत के संग भू के जड़ बंधन!

शांत हुआ अब युग-युग का भौतिक संघर्षण

मुक्त चेतना भारत की यह करती घोषण!

इसी तरह हरिवंश राय बचन भी सुकून लेते दिखते हैं :

हम ऐसे आज़ाद हमारा झंडा है बादल

चांदी सोने हीरे मोती से सजती गुडि़यां

इनसे आतंकित करने की बीत गई घडि़यां

इनसे सज धज बैठा करते जो हैं कठपुतले

हमने तोड़ अभी फेंकी हैं बेड़ी हथकडि़यां

जयशंकर प्रसाद का उत्साह भी देखने योग्य है :

अरुण यह मधुमय देश हमारा

जहां पहुंच अनजान क्षितिज को

मिलता एक सहारा।

सरस तामरस गर्भ विभा पर

नाच रही तरुशिखा मनोहर।

छिटका जीवन हरियाली पर

मंगल कुंकुम सारा।।

आजादी मिलने के बाद डा. विजय तिवारी किसलय एक और क्रांति लाने की बाद करते हैं :

आज सभी आज़ाद हो गए, फिर ये कैसी आज़ादी

वक्त और अधिकार मिले, फिर ये कैसी बर्बादी

संविधान में दिए हक़ों से, परिचय हमें करना है,

भारत को खुशहाल बनाने, आज क्रांति फिर लाना है

हिंदी के अन्य कवि प्रदीप शहीदों को याद रखने की सलाहदेते हैं :

ऐ मेरे वतन के लोगो तुम खूब लगा लो नारा

ये शुभ दिन है हम सब का लहरा लो तिरंगा प्यारा

पर मत भूलो सीमा पर वीरों ने है प्राण गंवाए

कुछ याद उन्हें भी कर लो जो लौट के घर न आए

ऐ मेरे वतन के लोगो ज़रा आंख में भर लो पानी

जो शहीद हुए हैं उनकी ज़रा याद करो कुर्बानी

गजानन माधव मुक्तिबोध कुर्बानी का आह्वान करते हैं :

आंधी के झूले पर झूलो

आग बबूला बनकर फूलो

कुर्बानी करने को झूमो

लाल सवेरे का मुंह चूमो

ऐ इंसानो ओस न चाटो

अपने हाथों पर्वत काटो

माखन लाल चतुर्वेदी ‘पुष्प की अभिलाषा’ में कुर्बानी पथ की पवित्रता समझाते हैंः

चाह नहीं मैं सुरबाला के, गहनों में गूंथा जाऊं

चाह नहीं प्रेमी-माला में, बिंध-प्यारी को ललचाऊं

चाह नहीं सम्राटों के शव पर हे हरि, डाला जाऊं

चाह नहीं देवों के शिर पर, चंद्र भाग्य पर इठलाऊं

मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृ भूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ पर जाएं वीर अनेक

निम्न पंक्तियों में मुहम्मद इकबाल देश के प्रति अपनी भावनाएं प्रकट कर रहे हैं :

सारे जहां से अच्छा

हिंदुस्तान हमारा

हम बुलबुले हैं उसकी

वो गुलसितां हमारा।

परबत वो सबसे ऊंचा

हमसाया आसमां का

वो संतरी हमारा

वो पासबां हमारा।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला आजादी मिलने के बाद का चित्र खींच रहे हैं :

भारति जय विजय करे

कनक शस्य कमल धरे

लंका पदतल-शतदल

गर्जितोर्मि सागर-जल

धोता शुचि चरण युगल

स्तव कर बहु अर्थ भरे

तरु तृण वन लता वसन

अंचल में खचित सुमन

गंगा ज्योतिर्जल-कण

धवल धार हार गले!

बालकवि बैरागी भी देश के प्रति अपनी भावनाएं प्रकट कर रहे हैं :

केरल से करगिल घाटी तक

गौहाटी से चौपाटी तक

सारा देश हमारा

जीना हो तो मरना सीखो

गूंज उठे यह नारा

केरल से करगिल घाटी तक

सारा देश हमारा।

देशभक्ति की कविताओं का संकलन

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फिर युद्ध होगा, तभी कविता फूटेगी!

उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध और बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जन-जन में देशभक्ति एवं राष्ट्र प्रेम की ज्वाला धधक रही थी। भारत की मिट्टी के कण-कण में चिंगारी व्याप्त थी। हर व्यक्ति स्वतंत्रता के लिए मर-मिटने को तत्पर था। कवियों के शब्द दहकते अंगारे बने हुए थे। भारतेंदु हरिश्चंद्र, श्रीधर पाठक, अयोध्या सिंह उपाध्याय, रामधारी सिंह दिनकर आदि अनेक कवि भारतीय जनमानस को जागृत करने के लिए तथा राष्ट्रभक्ति की भावना भरने के लिए हुंकार लगा रहे थे। बाल कृष्ण शर्मा नवीन ने तो लिखा-

कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ, जिससे उथल पुथल मच जाए

एक हिलोर इधर से आए, एक हिलोर उधर से आए।।

‘हिमालय के प्रति’ कविता में दिनकर की हुंकार *

मेरे नगपति! मेरे विशाल!

साकार, दिव्य, गौरव, विराट, पौरुष के

पुञ्जीभूत ज्वाल,

मेरी जननी के हिम किरीट, मेरे भारत के

दिव्य भाल।

स्वतंत्रता से पूर्व कवि अंग्रेजी शासन को उखाड़ फेंकने के लिए कलम रूपी तलवार का उपयोग कर रहे थे। मैथिलीशरण गुप्त का समग्र काव्य इसी भावना से अनुप्राणित है। ‘बुंदेले हरबोलों के मुंह हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी, वह तो झांसी वाली रानी थी।’ ‘वीरों का कैसा हो वसंत’ कविता भी इसी परिपाटी की थी। माखन लाल चतुर्वेदी की ‘पुष्प की अभिलाषा’, प्रसाद की समुज्जवला स्वतंत्रता पुकारती, मेरा रंग दे बसंती चोला… ऐसे अनेक गीत क्रांति की ज्वाला को अनंत ऊर्जा से प्रकट कर उठते थे। कवियों ने अलग-अलग ढंग से अपनी भावनाओं को व्यक्त किया।

आजादी मिली। संतोष एवं विजयोल्लास की लहर सब ओर फैल गई। विजय के गीत गाए गए परंतु परिदृश्य एवं परिवेश बदल जाने के कारण जोश क्षीण होता गया। कोई ऐसा लक्ष्य नहीं रह गया था, जो कवियों को उद्वेलित करता। वैसे भी सन् 1950 के बाद का हिंदी साहित्य पश्चिम में प्रचलित आंदोलनों एवं प्रवृत्तियों का अनुगामी रहा है। पश्चिम में अकविता की लहर चली, तो यहां भी वही प्रवृत्ति आई। सहज कविता, नई कविता, प्रयोगवाद, खुली कविता जैसे अनेक प्रयोग होते रहे। कहानी में भी यही सिलसिला चलता रहा। पश्चिम के आंदोलनों में ही कवि, कहानीकार, निबंधकार डूबे रहे। और सन् 1980 के बाद तो कविता वाद मुक्त ही हो गई। सब अपनी-अपनी इच्छानुसार तुक्तक, मुक्तक, खुला, बंद, छंदबद्ध काव्य सृजन करने लगे। क्रांति कहीं थी नहीं सो कविता में क्रांति कहां से आती। आधुनिक युग की भोगवादी प्रवृत्ति की भांति कविता भी निजी स्वार्थों को साधने का माध्यम बन गई। मदारी कविता ने काव्य की गंभीरता को खत्म कर दिया और अशोक चक्रधर जैसे कवि मठाधीश बन बैठे। चैनलों पर, दूरदर्शन में, रेडियो पर वैसी ही कविता, जिसका न सिर था, न पैर, लुभावनी लगने लगी। बड़े-बड़े संस्थानों में कवि बंधु स्थापित हो गए या सरकारी उपक्रमों में घुस गए, ताकि उनके प्रकाशन चलते रहें और उनकी रोजी-रोटी का जुगाड़ बना रहे। इसी से गुटबंदियां भी उभरी। साहित्य अकादमी, दिल्ली साहित्यिक राजनीति का अड्डा बन गई। अब नेशनल बुक ट्रस्ट भी उसी रास्ते पर अग्रसर है। काव्य सृजन होता है आंतरिक प्रेरणा से, किसी विषय से भावनात्मक रूप में जुड़ने से, लेकिन आज तो कवि कविता को उत्पाद समझ कर लिखते हैं, अपने स्वार्थ साधने में लगे रहते हैं, पुरस्कारों का संधान करते हैं, काव्य साधना को तपस्या नहीं, व्यवसाय या व्यापार मानते हैं। ऐसी स्थिति में संवेदनाओं का टोटा होता है और तरल व गहन भावनाओं से सम्पृक्त कविता के स्थान पर सन्नाटा पसर जाता है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद यदि किन्हीं कवियों में क्रांति, विद्रोह एवं देशभक्ति की चिंगारी धधकती मिलती है, तो वह तब जब 1962 का भारत-चीन युद्ध हो या सन् 1965, 1971 तथा 1999 का भारत-पाक युद्ध हो। ‘ऐ मेरे वतन के लोगो, जरा आंख में भर लो पानी’ वाला कवि प्रदीप का गीत किसे नहीं रुलाता… एकदम झकझोर देता है। ऐसे ही जब-जब युद्ध हुए हैं, तब-तब सृजन कर्मियों ने अपने भावों को व्यक्त किया है, लेकिन क्रांति धधकाने वाली कविता की मात्रा स्वतंत्रता पूर्व की तुलना में बहुत कम और अपेक्षाकृत शिथिल भी। स्वतंत्रता संग्राम के लिए कवि पहले छंदबद्ध कविता लिखते थे। उनके शब्दों की टंकार, भावनाओं की झंकार और कल्पना की भरमार उन्हें प्रभावशाली बनाती थी।

कारगिल युद्ध हुआ सन् 1999 में… बहुत क्षति हुई… युवा सैनिकों ने अपना शौर्य दिखाया… तथा मातृभूमि की रक्षा के लिए बलिदान दिए। बहुत से कवियों ने शौर्य गाथा को रेखांकित करती कविताएं लिखीं… जो प्रभावित करती हैं। यहां उनमें से एक-आध उदाहरण देना प्रासंगिक होगा ः

है कितना आसान बोलना ‘जय’ बाजारों गलियों में,

अपनी पूरी शक्ति झोंकना, देशभक्ति के नारों में

जलसों और जुलूसों में जयकार गुंजाना क्या मुश्किल,

क्या मुश्किल ‘जय हिंद’ बोलना, मंचों की

हुंकारों में,

लेकिन जब गोलियां गुजरती हों, छू कर दाएं बाएं,

जब चारों ही ओर धुएं के बादल मंडराएं…

कर मां का जयघोष शत्रु की टोली में जो घुस जाएं,

मां का जय-जयकार उपनिषद् रामायण बन

जाता है।

-बाल स्वरूप राही

एक और उदाहरण-

भारत की माटी का गौरव दुनिया को दिखलाएंगे,

अमर तिरंगा अब सरहद के आर-पार लहराएंगे।

-राजेंद्र जैन ‘चेतन’’

देशभक्ति या राष्ट्र भक्ति की अपेक्षा आज व्यंग्य कविताएं अधिक लिखी जा रही हैं, क्योंकि राजनीति एवं अर्थ के प्रभाव से सारी स्थितियां व्यंग्यमयी हो गई हैं, सब अपने-अपने स्वार्थों को देखते हैं, मंच पर चार जुमले या चुटकुले पढ़कर हर आदमी अपने आप को कवि समझने लगता है। यही कारण है कि आज क्रांतिकारी भावनाओं, राष्ट्रभक्ति से युक्त जो कविता लिखी भी जा रही है, उसमें से उसकी आत्मा गायब है, यह ऐसी फुसफुसी कविता है, जो शोर का पर्याय तो बनती है, लेकिन आनंदोपलब्धि के आसपास भी नहीं पहुंचती। कोई युद्ध होगा, तभी कविता फूटेगी, यह क्या विडंबना है! फिलहाल तो हवा में राजनीतिक नारे तैर रहे हैं।

-डा. सुशील कुमार फुल्ल

पुष्पांजलि, राजपुर (पालमपुर),  हिमाचल प्रदेश


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