हर भय हरते हैं भगवान वराह

By: Aug 19th, 2017 12:08 am

वराह भगवान का यह व्रत सुख-संपत्तिदायक एवं कल्याणकारी है।  उनकी उपासना से व्यक्ति सभी भयों से मुक्त होकर निर्भय हो जाता है। जो श्रद्धालु भक्त इस दिन वराह भगवान के नाम से व्रत रखते हैं उनके सोए हुए भाग्य को स्वयं भगवान जागृत कर देते हैं।  हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की तृतीया को भगवान विष्णु ने वराह अवतार लिया था और हिरण्याक्ष नामक दैत्य का वध किया…

Aasthaअवतारवाद हिंदू धर्म की प्रमुख विशिष्टिताओं में से एक है। ऐसी मान्यता है कि अधर्म का प्रभाव बढ़ने पर भगवान विष्णु धर्म की स्थापना के लिए विविध रूपों में धरती पर अवतरित होते हैं। शास्त्रों के अनुसार भगवान विष्णु मत्स्य,कूर्म,वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम राम, कृष्ण, बुद्ध, कल्कि के रूप में अवतरित होकर दुष्टों का विनाश करते हैं। पहले तीन अवतार यानी मत्स्य, कूर्म और वराह कृत युग में हुए है। नरसिंह, वामन, परशुराम और राम त्रेतायुग में अवतरित हुए हैं। कृष्ण द्वापर युग में अवतरित हुए। बुद्ध कलियुग में अवतरित हुए और कल्कि अवतार का अवतार अभी होना है। भगवान विष्णु के तृतीय अवतार वराह की पूजा भाद्रपद शुक्ल तृतीया के दिन की जाती है जो वराह अवतार जयंती के नाम से जानी जाती है। वराह भगवान का यह व्रत सुख-संपत्तिदायक एवं कल्याणकारी है।  उनकी उपासना से व्यक्ति सभी भयों से मुक्त होकर निर्भय हो जाता है। जो श्रद्धालु भक्त इस दिन वराह भगवान के नाम से व्रत रखते हैं उनके सोए हुए भाग्य को स्वयं भगवान जागृत कर देते हैं।  हिंदू धार्मिक मान्यताओं के अनुसार भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की तृतीया को भगवान विष्णु ने वराह अवतार लिया था और हिरण्याक्ष नामक दैत्य का वध किया। भगवान विष्णु के इस अवतार में श्रीहरि पापियों का अंत करके धर्म की रक्षा करते हैं। इस जयंती के अवसर पर भक्त लोग भगवान का भजन-कीर्तन, उपवास एवं व्रत इत्यादि का पालन करते हैं।

कथा

दिति के गर्भ से हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप ने जब जुड़वां पुत्रों के रूप में जन्म लिया तो पृथ्वी कांप उठी। आकाश में नक्षत्र और दूसरे लोक इधर से उधर दौड़ने लगे, समुद्र में बड़ी-बड़ी लहरें पैदा हो उठीं और प्रलयंकारी हवा चलने लगी। ऐसा प्रतीत होने लगा कि मानो प्रलय आ गया हो। हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप दोनों पैदा होते ही बड़े हो गए। दैत्यों के बालक पैदा होते ही बड़े हो जाते हैं और अपने अत्याचारों से धरती को कंपाने लगते हैं। यद्यपि हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप दोनों बलवान थे, किंतु फिर भी उन्हें संतोष नहीं था। वे संसार में अजेयता और अमरता प्राप्त करना चाहते थे।

तप तथा वरदान

हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप दोनों ने ब्रह्मा को प्रसन्न करने के लिए कठिन तप किया। उनके तप से ब्रह्मा जी प्रसन्न हुए। उन्होंने प्रकट होकर कहा- ‘तुम्हारे तप से मैं प्रसन्न हूं। वर मांगो, क्या चाहते हो।’ हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप ने उत्तर दिया- ‘प्रभो, हमें ऐसा वर दीजिए, जिससे न तो कोई युद्ध में हमें पराजित कर सके और न कोई मार सके।’ ब्रह्माजी ‘तथास्तु’ कहकर अपने लोक में चले गए। ब्रह्मा से अजेयता और अमरता का वरदान पाकर हिरण्याक्ष उद्दंड और स्वेच्छाचारी बन गया। वह तीनों लोकों में अपने को सर्वश्रेष्ठ मानने लगा। दूसरों की तो बात ही क्या, वह स्वयं विष्णु भगवान को भी अपने समक्ष तुच्छ मानने लगा।

इंद्रलोक पर अधिकार

हिरण्याक्ष ने गर्वित होकर तीनों लोकों को जीतने का विचार किया। वह हाथ में गदा लेकर इंद्रलोक में जा पहुंचा। देवताओं को जब उसके पहुंचने की खबर मिली, तो वे भयभीत होकर इंद्रलोक से भाग गए। देखते ही देखते समस्त इंद्रलोक पर हिरण्याक्ष का अधिकार स्थापित हो गया। जब इंद्रलोक में युद्ध करने के लिए कोई नहीं मिला, तो हिरण्याक्ष वरुण की राजधानी ‘विभावरी नगरी’ में जा पहुंचा। उसने वरुण के समक्ष उपस्थित होकर कहा- ‘वरुण देव, आपने दैत्यों को पराजित करके राजसूय यज्ञ किया था। आज आपको मुझे पराजित करना पड़ेगा। कमर कस कर तैयार हो जाइए, मेरी युद्ध पिपासा को शांत कीजिए।’ हिरण्याक्ष का कथन सुनकर वरुण के मन में रोष तो उत्पन्न हुआ, किंतु उन्होंने भीतर ही भीतर उसे दबा दिया। वे बड़े शांत भाव से बोले- ‘तुम महान् योद्धा और शूरवीर हो। तुमसे युद्ध करने के लिए मेरे पास शौर्य कहां? तीनों लोकों में भगवान विष्णु को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं है, जो तुमसे युद्ध कर सके। अतः उन्हीं के पास जाओ। वे ही तुम्हारी युद्ध पिपासा शांत करेंगे।’

विष्णु तथा हिरण्याक्ष का युद्ध

वरुण का कथन सुनकर हिरण्याक्ष भगवान विष्णु की खोज में समुद्र के नीचे रसातल में जा पहुंचा। रसातल में पहुंचकर उसने एक विस्मयजनक दृश्य देखा। उसने देखा एक वराह अपने दांतों के ऊपर धरती को उठाए हुए चला जा रहा है। वह मन ही मन सोचने लगा, यह वराह कौन है? कोई भी साधारण वराह धरती को अपने दांतों के ऊपर नहीं उठा सकता। अवश्य यह वराह के रूप में भगवान विष्णु ही हैं, क्योंकि वे ही देवताओं के कल्याण के लिए माया का नाटक करते रहते हैं। हिरण्याक्ष वराह को लक्ष्य करके बोल उठा- ‘तुम अवश्य ही भगवान विष्णु हो। धरती को रसातल से कहां लिए जा रहे हो? यह धरती तो दैत्यों के उपभोग की वस्तु है। इसे रख दो। तुम अनेक बार देवताओं के कल्याण के लिए दैत्यों को छल चुके हो। आज तुम मुझे छल नहीं सकोगे। आज मैं पुराने वैर का बदला तुमसे चुका कर रहूंगा।’ यद्यपि हिरण्याक्ष ने अपनी कटु वाणी से गहरी चोट की थी, किंतु फिर भी भगवान विष्णु शांत ही रहे। उनके मन में रंचमात्र भी क्रोध पैदा नहीं हुआ। वे वराह के रूप में अपने दांतों पर धरती को लिए हुए आगे बढ़ते रहे। अंत में भगवान विष्णु ने सुदर्शन चक्र का आह्वान किया, चक्र उनके हाथों में आ गया। उन्होंने अपने चक्र से हिरण्याक्ष के त्रिशूल के टुकड़े-टुकड़े कर दिए तथा इस तरह उसका वध हो गया। हिरण्याक्ष के वध के साथ ही लोगों में पृथ्वी पर धर्म की स्थापना की आस फिर से बलवती हो उठी। हिरण्याक्ष के भाई हिरण्यकश्यप का वध करने के लिए भगवान विष्णु को कालांतर में नृसिंह रूप में अवतरित होना पड़ा।

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