गांव-शहर से गायब होती रामलीला मंडलियां
(श्रेया शर्मा, कांगड़ा)
भारत देश में हर धार्मिक त्योहार बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। पुराने लोगों में स्नेह और भाईचारा इस कद्र था कि वे हर सुख-दुख में एक-दूसरे के साथ खड़े रहते थे। आज के दौर में वे गुण कम ही देखने को मिलते हैं। युवा पीढ़ी में आगे बढ़ने की दौड़ इस कद्र हावी है कि उसके पास अपनी परंपराओं को जानने व उन्हें अपनाने के लिए भी समय नहीं बचा। जहां तक बात रामलीला की की जाए, तो पहले लोगों में रामलीला को देखने का इतना शौक था कि गांव में टोलियां बनाकर लोग रामलीला देखने जाते थे। इससे एक बात तो जाहिर होती है कि रामलीला देखने के बहाने एक-दूसरे के साथ जुगलबंदी भी हो जाती थी। इसी बहाने लोग अपनी भावनाओं को भी दूसरों से साझा कर लेते थे। उस समय गांव में मनोरंजन की सुविधा मात्र नाटक और रंगमंच ही थे, लेकिन इसे दुःखद ही माना जाएगा कि रामलीला की सदियों से चली आ रही भारतीय परंपरा आज खत्म होने के कगार पर है। एक जमाना था जब गांव-गांव में रामलीला का मंचन होता था और विजयदशमी के दिन रावण वध का मंचन किया जाता था। आज रामलीला मंडलियां धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही हैं। अब तो गांवों में भी मनोरंजन और जीवन का पर्याय समझाने वाली हमारी इस विरासत को बचाने वाला कोई नजर नहीं आता। बच्चे मोबाइल और टीवी देखने में व्यस्त रहते हैं। उन्हें तो रामलीला के बारे में कोई ज्ञान भी नहीं है। ऐसे में हमारा कर्त्तव्य बनता है कि अपनी प्राचीन परंपराओं और धार्मिक कथाओं के विषय में उन्हें जागरूक करें। समय रहते अगर हम अपनी पारंपरिक धरोहर को सहेज कर नहीं रख सकते, तो वह दिन दूर नहीं जब बच्चों का धार्मिक ज्ञान शून्य से ज्यादा कुछ नहीं होगा।
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