चुनावी एतबार की फिजूलखर्ची

By: Sep 20th, 2017 12:02 am

चुनाव के अंधेरे में मंत्रिमंडलीय बैठक की रोशनी उस दीये की तरह है, जो हर सूरत सूरज होने तक जलता है। अंतिम पहर में प्रतीक्षारत चुनावी बिगुल सरीखे फैसलों की धरती का चयन विस्तृत हो सकता है, लिहाजा वीरभद्र सरकार ने अपनी अनुमति-सहमति के अंतिम बीज बो दिए। चुनावी एतबार की फिजूलखर्ची का हिसाब नहीं होता और न ही राजनीति को साधने का कोई एक आधार होता है। वीरभद्र मंत्रिमंडल के फैसलों का जिक्र भविष्य तक होगा, लेकिन चुनावी बरसात में बहने का अंदेशा कम नहीं होगा। सरकार ने तृप्त करने की मुहिम को बल देते हुए विधायक समुदाय को एक और तोहफा दे दिया। यानी विधायक या पूर्व विधायक होने से सरकारी जमीन पर अधिकारों की खेती इस कद्र कि पट्टे पर स्वामित्व मिल जाएगा। सरकार के लहजे से चुनावी भिक्षा का यह दस्तूर जनता को कितना मोहित कर पाएगा, इससे पहले प्रश्न यह कि फैसलों का यह दौर क्या अंजाम लेगा। हिमाचल सरकार के नाम यह भी एक रिकार्ड की तरह है कि योजनाएं अपनी लिखावट में चुनाव तक लिखती रहीं। कहना न होगा कि मंत्रिमंडलीय फैसलों ने विकास के मुद्दे का एक तरह से अपहरण कर लिया है। मतदाता को फैसलों की गोद में बैठाना हर सरकार का प्रयत्न रहता है, लेकिन यहां वीरभद्र सिंह मंत्रिमंडल ने सारे सपनों को इबारत दी है। तर्क और प्रासंगिकता के प्रश्न पर फैसलों का उद्देश्य समझने के बजाय इनके चुनावी नशे को समझना होगा। क्या हिमाचल यह सब कर सकता है या हिमाचल की आर्थिक सेहत के लिए यह सही है, इससे कहीं आगे निकल कर सरकार ने फैसलों की नींव हर जगह खोद दी, तो इसे कबूल करने या न करने के बजाय लाभार्थी समुदाय को खुश करने की वजह है। जनता क्या चाहती है या ताली कहां बजेगी, इसका फैसला ही जब फैसला बनता है, तो जाहिर है विपक्ष भी अपनी तैयारियों के बीच हैरत में होगा। आश्चर्य यह कि भाजपा की चुनावी रणनीति जिस तरह व्यापक व असरदार है, उससे बेखबर सरकार अपनी इमारत सजाने में लगी है। मानो दिवाली यहीं मनाई जाएगी या यही रोशनी चुनाव में हू-ब-हू उतर आएगी। मंत्रिमंडलीय फैसले कितने प्रभावशाली साबित होंगे, इसे मौजूदा सियासत में परख पाना मुश्किल है। मूड की गवाही में मतदाता के लिए सृष्टि रच पाना इतना भी आसान नहीं कि सरकारों के फैसले मीनारों की तरह दूर से नजर आएं, फिर भी बुर्जियां खामोश नहीं होतीं। सारे हिमाचल की सियासी तासीर को शांत करने की जुगत बैठाते-बैठाते वीरभद्र सरकार अपने अंतिम पैगाम में भी फैसलों की आवाज बुलंद करना जानती है, लेकिन परिदृश्य के दूसरी तरफ विपक्ष की अपनी विश्वसनीयता व समीकरण हैं। प्रश्न तो स्थानांतरणों पर उठेंगे और महत्त्वपूर्ण फैसलों से अधिक उन पदों को लेकर होंगे, जो सरकार पर तोहमत से बढ़कर नहीं। अगर स्कूल शिक्षा बोर्ड के सचिव की नियुक्तियों का आंकड़ा देखा जाएगा, तो बार-बार बदलने का प्रश्न पूछा जाएगा। सरकार को फैसलों की वजह से कम याद किया जाता है, लेकिन सुशासन के सबूत ही साधुवाद देते हैं। बेशक सरकार ने अंतिम फैसले में भी कुनिहार व रिवालसर मे दो उपतहसीलें जोड़ लीं, लेकिन सुशासन कोई तकरीर नहीं कि सुनी जा सके। देखना यह होगा कि फैसलों के उसपार, चुनावी एतबार में कैसे हस्ताक्षर होते हैं।


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