जीएम फसलों का खतरनाक जाल

By: Sep 20th, 2017 12:05 am

कुलभूषण उपमन्यु

लेखक, हिमालयन नीति अभियान के अध्यक्ष हैं

हाइब्रिड तकनीक से अच्छी उपज देने वाले बीज बनाए जा सकते हैं। धान में श्री विधि जैसी तकनीक सरसों में अपना कर बिहार में सरकारी प्रयोग में सरसों की तीन टन प्रति हैक्टेयर पैदावार प्राप्त की जा सकती है तो जीएम बीजों को इतने खतरों के बावजूद प्रसारित करने के प्रयासों की कोई जरूरत नहीं है। हरियाणा, राजस्थान और मध्य प्रदेश तो पहले ही जीएम सरसों के परीक्षण के लिए इनकार कर चुके हैं, शेष प्रदेशों को भी इस पहल का अनुसरण  करना चाहिए… 

जीन के स्तर पर संशोधित फसलों का खाद्य शृंखला में शामिल किया जाना और उनके परीक्षण को लेकर दुनियाभर में विवाद कोई नया नहीं है। यह प्रौद्योगिकी आरंभ से ही विवादित रही है। इसीलिए दुनिया के बहुत से देशों ने अभी तक जीन संशोधित फसलों को खाद्य शृंखला में शामिल करने की अनुमति नहीं दी है। यूरोपीय देश और जापान इनमें प्रमुख हैं। भारत में बीटी कपास जीन संशोधित फसल है जिसे बड़े पैमाने पर प्रचारित किया गया है। हालांकि इसे खाद्य फसल नहीं माना गया है, फिर भी अप्रत्यक्ष रूप से खली और तेल के माध्यम से यह खाद्य शृंखला में शामिल हो रहा है। इसके बाद बीटी बैंगन को प्रचारित करने के प्रयास हुए, किंतु जन विरोध और वैज्ञानिक तर्क की स्पष्टता के अभाव में इसके परीक्षण को 2010 में रोक दिया गया। अब फिर से जीन संशोधित सरसों के क्षेत्र परीक्षण की अनुमति देने की तैयारी हो रही है। जीईएसी इसकी अनुमति देने वाली संस्था है। हालांकि कई प्रदेश सरकारों ने इस अनुमति का विरोध दर्ज करवा दिया है। हम चाहते हैं कि हिमाचल प्रदेश और अन्य पर्वतीय प्रदेश भी शीघ्र अपना विरोध दर्ज करवाएं क्योंकि पर्वतीय क्षेत्र जैव विविधता के घर हैं और जीन संशोधित फसलों के खुले परीक्षण से आसपास के क्षेत्रों में प्राकृतिक परागण से जीन संशोधित फसल के गुण अन्य फसलों और वनस्पतियों में पहुंच सकते हैं। इससे वनस्पति जगत पर क्या प्रभाव पड़ेगा, इसका अभी तक कोई शोध नहीं हुआ है और कोई अंदाजा भी नहीं है। जीव जगत पर इन फसलों के प्रभाव के जो थोड़े-बहुत परीक्षण हुए हैं, उनके परिणाम उत्साहवर्धक नहीं हैं। जीएम सोयाबीन खिलाकर पाले गए चूहों के शरीर पर कई दुष्प्रभाव देखे गए। डा. सेरालिनी ने पाया कि चूहों के आंतरिक अंगों को नुकसान पहुंचा है। शरीर में गांठें बन गई हैं और मृत्यु दर में वृद्धि हुई है। आगे बढ़ने से पहले जीन संशोधन को आम आदमी की भाषा में समझने का प्रयास करते हैं।

जब एक ही फसल की दो किस्मों को परागण के स्तर पर मिलाया जाता है तो उसी फसल की नई किस्म विकसित हो जाती है जिसमें  दोनों किस्मों के गुण आ जाते हैं। जैसे मक्का की दो किस्मों या गेहूं की दो किस्मों को मिला देना। इसे संकरण या हाईब्रीडिंग कहते हैं। इससे उपज बढ़ाने, रोग प्रतिरोध पैदा करने या किसी विशेष गुण का लाभ उठाने का उद्देश्य पूरा किया जाता है। यह प्रक्रिया नस्ल सुधार के परंपरागत तरीके जैसी ही है, किंतु जीएम संशोधन एक बिलकुल भिन्न प्रक्रिया है। इसमें किसी फसल के जीन को संशोधित कर दिया जाता है, यानि फसल के जीन में किसी भी भिन्न  वनस्पति या जीव का जीन प्रत्यारोपित किया जाता है। जैसे बीटी कपास में बैसिलस थरेंजेंसिस बैक्टीरिया का जीन प्रत्यारोपित किया गया है। बीटी बैंगन में भी इसी बैक्टीरिया के जीन के प्रत्यारोपण की ही तैयारी चल रही थी। चावल में मछली के जीन के प्रत्यारोपण के प्रयास चल रहे हैं। 1967 में  चिकित्सा के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार विजेता डा. जॉर्ज वाल्ड ने कहा था कि प्राणियों का विकास तो धीरे-धीरे हुआ है, अब एकाएक जीन को उठा कर किसी भिन्न जीव में डाल देने का मेजबान जीव और उसके पड़ोसियों पर क्या असर पड़ेगा, कोई नहीं जनता। यह खतरनाक हो सकता है। इससे नई बीमारियां, कैंसर के नए स्रोत और महामारियां आ सकती हैं। इन तमाम खतरों के बावजूद कुछ कंपनियां और  वैज्ञानिक इस कार्य को आगे बढ़ा रहे हैं। मोंनसेंटो सिंजेंता आदि कंपनियां जीन संशोधित बीजों के कारोबार से बीज बाजार पर एकाधिकार कायम  करने की दिशा में सक्रिय हैं। जीन संशोधन के पक्ष में यह दावे किए जाते हैं कि इससे पैदावार बढ़ा सकते हैं, कीटों और बीमारियों पर नियंत्रण द्वारा  फसल पर लागत खर्च कम किया जा सकता है, फसलें सूखा और बाढ़ को सहने में सक्षम बनाई जा सकती हैं, रासायनिक खादों और दवाइयों की खपत कम की जा सकती है। किंतु यह दावे बीटी कपास के संदर्भ में भी पूरे नहीं हुए हैं।

दवाइयों का खर्च घटने के बजाय बढ़ गया है। बीटी कपास के अवशेष खाने से भेड़-बकरियों के मरने के मामले सामने आए हैं। जिन फसली कीटों का बीटी  कपास में नहीं लगने का दावा किया जाता था, वह पूरा नहीं हुआ है, बल्कि कीट धीरे-धीरे दवाइयों के आदी हो गए हैं। इसलिए दवाइयों की खपत बढ़ गई है। यही कारण है कि बीटी कपास के क्षेत्रों से भी किसान आत्महत्याएं कम नहीं हुई हैं। खरपतवार नाशक दवाइयों का प्रयोग कई गुणा बढ़ गया है। जो कंपनियां जीएम बीज बनाती हैं, वही कीटनाशक और घासनाशक दवाइयां भी बनाती हैं। लगातार दवाइयां स्प्रे करने से उनका असर कम होता जाता है, इसलिए खरपतवार नियंत्रण से बाहर होते जा रहे हैं। खरपतवार नाशकों के प्रति सहनशील जीएम फसलों पर ग्लाय्फोसेट जैसे जहरीले खरपतवार नाशकों का प्रयोग किया जा रहा है। जीएम सरसों की प्रचारित किस्म लिबर्टी या बास्ता के नाम से बेची जा रही है। यह किस्म बार जीन युक्त है जो ग्लुफोसिनेट अमोनियम खरपतवार नाशक के प्रति सहनशील है। यानि इसका स्प्रे घास जलाने के लिए लिबर्टी सरसों पर किया जा सकता है। इस दवाई का प्रयोग यूरोप में  प्रतिबंधित है, किंतु भारत में प्रचलित है। इन रसायनों के प्रयोग से इनका कुछ अंश फसलों में आ जाता है। इससे कैंसर, नपुंसकता व जन्मजात विकृति जैसे दुष्प्रभाव देखे गए हैं। अमरीका के डा. हुबर ने मिट्टी में विषाणु विकृति पाई और अमरीका के कृषि मंत्री को लिखा। भारत में सरसों की 12 हजार से ज्यादा प्रजातियां हैं। समानांतर  प्रभाव प्रसार की संभावना के चलते ये सब विविधता प्रदूषित हो जाएगी। जैविक उत्पादों के बाजार को भी जीएम फसलों से प्रदूषित हो जाने के कारण खतरा होगा। दुनिया के जैविक उत्पादन करने वाले कृषकों में 40 फीसदी भारतीय हैं। यह बाजार 104 अरब रुपए तक पहुंच गया है। इसकी वार्षिक वृद्धि दर 25 फीसदी है। हाईब्रीड तकनीक से अच्छी उपज देने वाले बीज बनाए जा सकते हैं। धान में श्री विधि जैसी तकनीक सरसों में अपना कर बिहार में सरकारी प्रयोग में सरसों की तीन टन प्रति हैक्टेयर पैदावार प्राप्त की जा सकती है तो जीएम बीजों को इतने खतरों के बावजूद प्रसारित करने के प्रयासों की कोई जरूरत नहीं है। हरियाणा, राजस्थान और मध्य प्रदेश तो पहले ही जीएम सरसों के परीक्षण के लिए इनकार कर चुके हैं, शेष प्रदेशों को भी इस पहल का अनुसरण करना चाहिए।


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