या देवी सर्वभूतेषु चेतनेत्यभिधीयते

By: Sep 16th, 2017 12:08 am

शक्ति की कल्पना प्रायः हम प्रभुत्व स्थापित करने के संदर्भों में करते हैं, परंतु शक्ति केवल प्रभुत्व के संदर्भों तक सीमित नहीं होती। विद्वान भी शक्तिशाली होता है और धनवान को भी शक्तिमान माना जाता है। संभवतः इसी कारण भारतीय मनीषा में शक्ति की  विविध रूपों में कल्पना और उपासना की गई है। त्रिदेवियों के साथ नवदुर्गा की उपासना इस चिंतन का प्रतिफल है। नवरात्र, शक्ति के इन समस्त रूपों की उपासना का सर्वाधिक उपयुक्त समय माना जाता है…

Aasthaसाधना के माध्यम से, संयम को अपनाकर, शक्ति अर्जित करने की परंपरा भारतीय दर्शन की विशिष्टता कही जा सकती है। नवरात्र, इस सनातन पद्धति से शक्ति अर्जित करने का महापर्व है। नवरात्र हमें सद्मार्ग पर चलते हुए, संयमित तरीके से शक्ति अर्जन करने के लिए प्रेरित ही नहीं करता, यह अर्जित शक्ति के सदुपयोग का संदेश भी हमें देता है। शक्ति अर्जन के इस दर्शन की अभिव्यक्ति नवरात्रों के माध्यम से है।   शक्ति ईश्वर के हाथों में छिपी हुई एक अदृश्य डोर है, जिसमें सारा नियंत्रण निहित है, जिससे बंधकर संसार रूपी पतंग अठखेलियां करती है। यह जटिल ब्रह्मांड या संपूर्ण सौरमंडल जिस गुरुत्वाकर्षण बल से एक-दूसरे से जुड़ा है, वहां भी शक्ति ही तो है। शक्ति प्रत्यक्ष भी है और अप्रत्यक्ष भी। अदृश्य शक्ति, हम सिर्फ आत्मीय रूप से महसूस कर सकते हैं, जिससे सृष्टि का अस्तित्व और उसकी गति कायम है, उसको जब मानव नमन करना चाहता है तो उसे देवी दुर्गा के रूप में देखता, परिकल्पित करता या रूपायित करता है। यह परम आराध्य है, मातृ-स्वरूपा है। हिंदू धर्म में शक्ति को पत्नी का आसन दिया गया है, अर्थात पुरुष की शक्ति उसकी पत्नी है। स्त्री के बिना पुरुष न तो पूर्ण है और न ही उसकी कल्पना की गई है। शिव-पार्वती के अर्द्धनारीश्वर रूप में भी पुरुष-प्रकृति के अन्योनाश्रय संबंध को दिखाया गया है।  भक्त के लिए शक्ति का रूप मातृस्वरूपा है। पौराणिक काल से आज तक प्रत्येक सामाजिक कार्य में स्त्री की सहभागिता रही है, चाहे वह दैनिक जीवन हो या यज्ञ आदि। त्रेता युग में सीता-त्याग के उपरांत श्रीराम ने अश्वमेध यज्ञ शुरू किया तो सीता (पत्नी) के स्थान पर सोने की सीता स्थापित कर यज्ञ को पूर्ण करना पड़ा। इसके बिना यज्ञ हो ही नहीं सकता था। भगवान कृष्ण भी राधा के बिना अपने को अपूर्ण ही मानते है। शास्त्रों में उल्लेख मिलता है कि श्री कृष्ण ने प्रसंगवश राधा से कहा कि राधा के बिना मैं कृष्ण हूं और राधा के संग श्री कृष्ण। इतिहास के पन्नों में हमें मातृ पूजा की सशक्त धारा की झलक मिलती है। प्राचीन भारतीय सभ्यता के केंद्रों मोहनजोदड़ो व हड़प्पा आदि जगहों से मिली मातृदेवी की मूर्तियां भी मातृपूजा और मातृप्रधान समाज की ओर इंगित करती हैं। यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि संसार में मां से बढ़कर कुछ भी नहीं। ऋग्वेद में भी वाक्, पृथ्वी व रात्रिदेवी की कल्पना की गई है। अथर्ववेद में तीनों लोकों की माता के रूप में विराजदेवी का वर्णन है। चूंकि जीवन के उद्गम व विकास का हर चरण मातृशक्ति द्वारा ही परिचालित है, अतः मातृपूजा का ही प्रतिरूप दुर्गा पूजा है। भारतीय दर्शन की आद्याशक्ति प्रकृति है, अर्थात प्रकृति ही शक्ति है। इस हेतु शक्ति ही संसार में सर्वोपरि है। आद्याशक्ति दुर्गा की आराधना आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से आरंभ होकर विजयादशमी तक की जाती है, जिसे शारदीय नवरात्र भी कहा गया है। साधना द्वारा शक्ति की आराधना के नवरात्र पूजनोत्सव में शक्ति के नौ रूपों की पूजा होती है, जिनमें प्रथम हैं शैलपुत्री, द्वितीय ब्रह्मचारिणी, तृतीय चंद्रघंटा, चतुर्थ कूष्मांडा, पंचम स्कंदमाता, षष्ठम कात्यायनी, सप्तम कालरात्रि, अष्टम महागौरी एवं नवम सिद्धिदात्री हैं। शक्ति की उपासना से साधक के मन का मूलाचक्र जागृत होता है, उसकी सारी सिद्धियां पूर्ण होती हैं। मनुष्य में तप, त्याग, वैराग्य, सदाचार व संयम आदि की वृद्धि होती है। सांसारिक कष्टों से मुक्ति मिलती है व कर्त्तव्य पथ पर चलने का साहस पैदा होता है। नवरात्रों में नवदुर्गा और त्रिदेवियों की उपासना की जाती है।  शक्तियों के इन स्वरूपों पर चिंतन करने और उनकी उद्भव की कथाओं पर दृष्टिपात करने से यह स्पष्ट होता है कि देवी ‘सर्वशक्तिसमन्विते’ हैं। जो इस संसार में चलायमान विविध शक्तिपुंजों को पहचान लेता है और उन सभी में यथायोग्य समन्वय स्थापित कर लेता है, वही शक्तिमान बन जाता है। अहं, अति आग्रह और दुराग्रह के कारण, समन्वय की शक्ति क्षीण हो जाती है और समन्वय शक्ति क्षीण होते ही व्यक्ति, राष्ट्र अथवा समाज कमजोर हो जाता है। अतः नवरात्र हमें शक्तिमान बने रहने के लिए अपने स्वत्व पर अडिग रहते हुए भी विविध प्रतिभाओं-योग्यताओं के समन्वय का सेतु स्थापित करने का सूत्र प्रदान करता है।


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