विष्णु पुराण

By: Sep 16th, 2017 12:05 am

फिर मंदराचल की रई और बासुकि नागकी नेती बनाकर अत्यंत वेगपूर्वक समुद्र में अमृत का मंथन करने लगे। जिस ओर वासु की पूंछ थी उसी और भगवान ने देवताओं को तथा मुख की ओर दैत्यों को खड़ा किया। अत्यंत तेजस्वी वासुकि नाग के मुख से निकलती हुई श्वास ज्वाला में जलते हुए दैत्यगण तेजहीन हो गए तथा उसी श्वासोच्छवास से छत-विक्षत हुए मेघों के पूंछ की ओर बरसते रहने से देवताओं की शक्ति में वृद्धि होती गई।

श्रीरादमध्ये भगवान्कूर्मरूपी स्वयं हरिः।

मन्थनाद्ररधिष्ठान भ्रमतोऽभून्महामुने।।

रूपेणान्येत देवानां मध्ये चक्रगदाधरः।

चकर्षनागराजानदत्यमध्येऽपरेण च।।

उपर्याक्रांतवाञ्च्छूलं वृहद्रू पेश केशवा।

तथापरेण मंत्रययन्र दृष्ट सुरासुरैः।।

तेजसा नागरजानं तथाप्यायितवान्हरिः।

अन्येन तेजसा देवाननपवृ हितवान्प्रभु।।

मध्यमाने ततस्मस्मिग्क्षारब्धौ देवदानवैः।

हविर्थामाभवत्पूर्व सुरजि सुरपूजिताः।।

जग्मुर्मुद ततो देवा दानवाश्वचमहाने।

व्यक्षिप्तकेतश्चैव वभूवुः स्तिनिते क्षणा।।

किमेतदिति सिद्धनां दिवि चिन्तयतां ततः।

वभूव वारुणो देवी मदधूर्णितलोचना।।

हे महामुने! भगवान ने कूर्म रूप धारण कर क्षीर सागर में घूमते हुए मंदराचल को आश्रय रूप हो अपने ऊपर धारण किया। वही गदा के धारण करने वाले भगवान एक अन्य रूप से देवताओं में तथा एक और रूप से दैत्यों में मिलकर वासुकि रूप नेती को खींचने लगे एक अन्य अत्यंत विशाल रूप से जो देवता या दैत्य किसी को दिखाई नहीं दे रहा था। उस रई रूपी मंदराचल को ऊपर से दाब रखा था। अपने ही तेज से उन्होंने वासुकि में बल संचार किया और अपने ही तेज से देवताओं में बल की वृद्धि की। इस प्रकार देवताओं और दैत्यों के क्षीर सागर का मंथन किए जाने पर सर्वप्रथम हवि को आश्रय रूपा कामधेनु निकली। उस समय देवता और दैत्य सभी अत्यंत आनंदित हुए और उसकी ओर चित्त के आकर्षित होने के कारण वे उसे एकटक देखने लगे। फिर क्या है? इसे जानने के कारण वे उसे एक टक देखने लगे। इसे जानने के इच्छुक सिद्धों के मामले मद से फिरते हुए नेत्रों वाली वारुणि देवी उत्पन्न हुई।

कृतावर्त्तात्ततस्स्मात्क्षीरीदाद्वयसंजगत्।

गंधेन पारिजातोऽ  मूददेवस्त्रीनंदनस्तरूः।

रूपौदार्य गुणोपेतस्था चाप्सरसां बणः।

क्षीरोदधे समुत्पन्नौय परत्रैय परमामादनुतः।

ततः शीतांशुरभवञ्जगृहे त महेश्वरः।

जग्रहुश्च विषं नागाः नाग क्षीरोदाविब्धसमुत्थितम्।

तो धनवंतर्रिर्देव श्वेताम्बरधास्वयम्।

विभ्रत्कमण्डलूं पूर्णमस्य समुत्थितः।

ततः स्वस्थमनस्कास्ते सर्वेदतेयानवाः

बभूवर्मुदिताः सर्वे मैत्रैय मुनिभिः सह।।

ततः स्फूरत्कांति बिक सिमिले स्थिता।

श्रीर्देवी पयसस्तमादुभूता धृतपंकजा।

तां तुष्टूवर्मुदा युक्ताः श्रीसूक्तेन महर्षय,

विश्वावसुमुखास्दया गन्धाः पुरतो जगुः।

धृताचीप्रमुखास्तत्र ननृतृश्चाप्सर्रोगणः।

गङ्गाद्या सरितास्तायै, स्नानार्थमुपतस्थिरे।।

उसके पश्चात पुनः मंथन आरंभ हुआ और अपनी गंध से त्रैलोक्य को सुगंधित करने वाला और देव नारियों के आनंद को बढ़ाने वाला कल्प मेघ उससे प्रकट हुआ। फिर रूप एवं उदारता आदि गुणों से परिपूर्ण अत्यंत अद्भुत अप्सराएं उस क्षीर सागर से निकलीं।

तत्पश्चात चंद्रमा उत्पन्न हुआ, जिसे शिवजी ने ले लिया अैर फिर जो विष निकले, उन्हें नागों ने ग्रहण किया। इसके पश्चात श्वेत वस्त्र धारण किए, भगवान धनवंतरिजी प्रकट हुअए, उनके हाथ में अमृत से परिपूर्ण कमंडल था। हे मैत्रेयजी! उस समय मुनियों के सहित सभी दैव्य-दानव अत्यंत स्वस्थ्य चित्त ओर हर्षित हो उठे। फिर खिले हुए कमल पर बैठी हुए अत्यंत कांतिमयी लक्ष्मी जी हाथों में कमल का पुष्प लिए हुए क्षीर सागर से निकली। उस समय महर्षियों ने श्रीसूत ने उनकी स्तुति आरंभ की और विश्वावसु आदिगन्धर्व उनके सामने गाने लगे। घृताची आदि अप्सराएं नाचने लगीं तथा लक्ष्मी जी को अपने जल से अभिषेक कराने के लिए गंगा आदि सरिताएं स्वयं ही उपस्थित हुईं।


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