श्री विश्वकर्मा पुराण

By: Sep 23rd, 2017 12:05 am

इस तरफ दुर्वासा महर्षि तो अत्यंत क्रोध में थे, जब उन्होंने जाना कि इलाचल के ऊपर सूर्यनारायण का लगन हो रहा है तथा उस लगन में श्री विश्वकर्मा ने समस्त सृष्टि को आमंत्रित किया है तथा मुझे आमंत्रण नहीं दिया। यह जानकर उनके क्रोध का पार न रहा। वह क्रोध के वश होकर अपने इस अपमान का बदला लेने को तत्पर हुए उन्होंने विचार किया कि मुझे इस महोत्सव से वंचित रखने वाले को उचित दंड देना ही चाहिए नहीं तो सृष्टि में मेरा कोई मान न रखेगा और मेरी महत्ता घट जाएगी…

हे ऋषियों! परब्रह्म स्वरूप श्री विश्वकर्मा ने इलाचल के ऊपर जब अपनी मानस पुत्रियों का लगन किया तब उन्होंने समस्त विश्व में निवास करती छोटी बड़ी जड़ चेतन तमाम सृष्टि को निमंत्रण देकर वहां बुलाया था तथा इस तरह वहां पर इकट्ठे हुए सारे समुदाय ने बड़े ही हर्ष के साथ लगन का आनंद भोगा था। इस प्रसंग पर सबको निमंत्रण देने का कार्य प्रभु ने वास्तुदेव को सौंपा। वह कुबेर को तथा दुर्वासा ऋषि को निमंत्रण देना भूल गए थे, सत्य को समझने वाले और शांत प्रकृति वाले कुबेर को ऐसा विचार आया कि प्रभु विश्वकर्मा निरंतर सृष्टि का कल्याण करने वाले हैं तथा उन प्रभु का मेरे साथ तो क्या अन्य किसी दूसरे से जरा भी बैर नहीं और उन कृपालु भगवान ने मेरे दुख को जानकर मुझे उत्तम निवास स्थान भी बनाकर दिया है। जो ऐसा न होता तो दानव मेरे पास रखे देवताओं के सारे खजाने को लूटकर ले जाते। इस संकट से उबारने के लिए जिन प्रभु ने मुझे उत्तम आवास की रचना करके दी उन्होंने मुझे किस कारण निमंत्रण नहीं दिया। शायद आमंत्रण देने वाले ही मुझसे कहना भूल गए होंगे, परंतु जहां स्नेह हो वहां बिना आमंत्रण के भी जाने में कोई चिंता नहीं इसलिए मुझे इलाचल के ऊपर जाना ही चाहिए। इस प्रकार तय करके कुवेर तो सूर्यनारायण के विवाह का आनंद लूटने इलाचल पर पहुंचे, जहां प्रभु विराजमान थे, वहां आ पहुंचे। इस तरफ दुर्वासा महर्षि तो अत्यंत क्रोध में थे, जब उन्होंने जाना कि इलाचल के ऊपर सूर्यनारायण का लगन हो रहा है तथा उस लगन में श्री विश्वकर्मा ने समस्त सृष्टि को आमंत्रित किया है तथा मुझे आमंत्रण नहीं दिया। यह जानकर उनके क्रोध का पार न रहा। वह क्रोध के वश होकर अपने इस अपमान का बदला लेने को तत्पर हुए। उन्होंने विचार किया कि मुझे इस महोत्सव से वंचित रखने वाले को उचित दंड देना ही चाहिए नहीं तो सृष्टि में मेरा कोई मान न रखेगा और मेरी महत्ता घट जाएगी। क्रोध के आवेश में दुर्वासा ने विचार किया कि अपने शत्रु समान विश्वामित्र जो कि क्षत्रिय होते हुए देवर्षि बनने का दावा करते हैं वह ही मेरे इस अपमान का कारण होंगे। विश्वामित्र ने ही प्रभु से कहा होगा कि दुर्वासा तो बहुत क्रोधी हैं, इसलिए उसको मत बुलाओ मैं विश्वामित्र को राजर्षि कहता हूं इससे बदला लेने के लिए उन्होंने ही इस प्रकार मेरा अपमान किया है। इस प्रकार विचार आते ही उनके मन में अत्यंत क्रोध व्यापा तथा उस क्रोध में से अग्नि उत्पन्न हुई दुर्वासा ने उस अग्नि को आज्ञा दी कि तू विश्वामित्र को उसके आश्रम सहित जला दे। इस प्रकार की आज्ञा मिलते ही अग्नि विश्वमित्र के आश्रम की ओर जाने लगी रास्ते में अनेक वन उपवन तथा जंगलों को जलाती हुई प्रलयकाल की भयंकर अग्नि के समान सबका नाश करती तीव्र गति से आगे बढ़ने लगी। इधर समाधि में बैठे विश्वमित्र ने दुर्वासा की भेजी हुई उस अग्नि को देखा और देखने के साथ ही उन्होंने ध्यान करके सब लीला जान ली और अकारण क्रोध से समस्त विश्व को जलाते दुर्वासा की अग्नि के सामने उन्होंने अपनी तपस्या द्वारा पैदा की हुई अग्नि को भेज दिया।


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