हमदर्दी की सियासत

By: Sep 21st, 2017 12:05 am

रोहिंग्या मुसलमान शरणार्थियों के मुद्दे पर भारत में ही भारत-विरोधी गठबंधन उभर आया है। यह गठबंधन राजनीतिक है, जिसमें कांग्रेस, तृणमूल,बसपा और ओवैसी की पार्टी एमआईएम आदि शामिल हैं। बेशक ये देशद्रोही नहीं हैं और न ही राष्ट्रद्रोह का कोई मुकदमा दर्ज है, लेकिन इनकी सोच देश विरोधी है। इन दलों के नेता म्यांमार के रोहिंग्या मुसलमानों के हमदर्द हैं। एक अंतरराष्ट्रीय मसले पर भी देश एकमत नहीं है। भारत की मोदी सरकार ने ही सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा नहीं दिया है, बल्कि म्यांमार की सर्वोच्च नेता आंग सान सू की का भी दावा है कि रोहिंग्या आतंकी हमलों में शामिल रहे हैं। वे किसी भी देश के लिए राष्ट्रीय खतरा हो सकते हैं। फिर भी कुछ रोहिंग्या लौटना चाहें, तो वे जांच-पड़ताल के बाद म्यांमार में आ सकते हैं। तीसरा पक्ष आस्ट्रेलिया का है। कुछ रोहिंग्या एक नाव के जरिए उसकी सीमाओं में घुसने की कोशिश कर रहे थे,लेकिन आस्ट्रेलिया के सुरक्षा बलों ने उन्हें वापस खदेड़ दिया। इसी तरह अमरीका, फ्रांस, जर्मनी, तुर्की, ब्रिटेन आदि देशों ने मुस्लिम शरणार्थियों के प्रवेश पर अघोषित पाबंदी लगा रखी है। उनका कहना है कि हाल ही में जो आतंकी हमले किए गए हैं, उनमें मुस्लिम शरणार्थी लिप्त पाए गए हैं। दुनिया मुसलमान शरणार्थियों को अपने देशों की सीमाओं में घुसने नहीं दे रही है और भारत में कुछ ऐसे राजनीतिक हमदर्द पैदा हो गए हैं, जो रोहिंग्या को शरण देने की लगातार पैरवी कर रहे हैं। यह कैसी मानवता है, जो राष्ट्रीय सुरक्षा से भी आंखें फेर रही है। बहरहाल केंद्र सरकार के हलफनामे और कुछ याचिकाओं पर सर्वोच्च अदालत का निर्णय आने दें। जब हलफनामे से बंधी सरकार का दावा है कि रोहिंग्या राष्ट्रीय खतरा साबित हो सकते हैं, तो उस पर विवाद क्यों छेड़ा जाए? कुछ पार्टियां प्रलाप क्यों करें? ये तथ्य सामने क्यों रखे जाएं कि भारत में रोहिंग्या लोगों के खिलाफ  आतंकी गतिविधि में एक भी केस दर्ज नहीं है? उनकी पृष्ठभूमि देखनी चाहिए कि आखिर उन्हें म्यांमार छोड़ कर क्यों भागना पड़ रहा है? क्या राष्ट्रीय सुरक्षा सरीखे मुद्दों पर भी सियासत खेली जाएगी? सरकार को जो खुफिया सूचनाएं हासिल हैं और उन्हें सीलबंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट की न्यायिक पीठ को भी भेजा जाएगा, तो विरोधी पक्ष उनका खंडन करने में क्यों जुटे हैं? खुफिया अलर्ट जारी किया गया है कि रोहिंग्या घुसपैठिए समुद्री रास्ते से भारत में घुस सकते हैं। नतीजतन तटरक्षक और नौसेना की सुरक्षा बढ़ाई गई है और आकाश से विमान समुद्री सीमा पर निगरानी रखे हैं, लेकिन फिर भी एक ही प्रलाप जारी है कि रोहिंग्या को भारत में शरण दे दी जाए। दलीलें यहां तक दी जा रही हैं कि यदि भारत को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में स्थायी सदस्यता हासिल करनी है, तो बड़े और खुले दिल से रोहिंग्या शरणार्थियों का स्वागत करना चाहिए। यदि भारत सरकार ऐसा नहीं करेगी,तो दुनिया क्या कहेगी? ऐसे सवाल ही कथित भारत विरोधी गठबंधन की पुष्टि करते हैं। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने तो सुरक्षा परिषद में ही पत्र लिख दिया है कि बंगाल राज्य रोहिंग्या लोगों को शरण देने को तैयार है, लेकिन केंद्र सरकार उन्हें म्यांमार वापस भेजने पर आमादा है। यह पूरी तरह राजनीतिक है, धु्रवीकरण और वोट बैंक की राजनीति है और वैश्विक स्तर पर ‘विभाजित भारत’ दिखाने की कोशिश है। इस संदर्भ में एक नया मोड़ यह आया है कि फली एस. नरीमन, राजीव धवन, कपिल सिब्बल, अश्विनी कुमार, गोंजाल्विस और प्रशांत भूषण सरीखे वरिष्ठ वकीलों ने सुप्रीम कोर्ट में रोहिंग्या मुसलमानों की पैरवी करने का फैसला लिया है। उनके तर्क हैं कि यदि कोई एक बार अत्याचारों से परेशान होकर हमारे देश की सीमाओं में आ गया, तो वह शरणार्थी बनने का हकदार है। ये विशेषज्ञ वकील दलीलें दे रहे हैं कि भारत कैसे कानूनी और संवैधानिक मर्यादाओं से बंधा है। इन लोगों को वापस भेजेंगे, तो किसी की हत्या की जा सकती है, कोई बलात्कार का शिकार हो सकता है, गर्भवती औरतों के गर्भपात हो सकते हैं, लिहाजा भारत सरकार मानवीय आधार पर सोचे और जांच-पड़ताल करके रोहिंग्या को शरणार्थी का दर्जा दे। अब गेंद सुप्रीम कोर्ट के पाले में है कि वह क्या फैसला लेती है। भारत विरोधी गठबंधन दरअसल मोदी विरोधी है। सभी वरिष्ठ वकील भी मोदी और भाजपा विरोधी हैं। इस मुद्दे के जरिए राजनीति की जा रही है। कहीं इसी चक्कर में देश विखंडित होने के कगार पर न आ जाए!


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