अभिव्यक्ति के लिए कीमत चुकानी पड़ती है

By: Oct 15th, 2017 12:06 am

लिखना, अक्षर-अक्षर जुगनू बटोरना और सूरज के समकक्ष खड़े होने का हौसला पा लेना, इस हौसले की जरूरत औरत को इसलिए ज्यादा है क्योंकि उसे निरंतर सभ्यता, संस्कृति, समाज और घर-परिवार के मनोनीत खांचों में समाने की चेष्टा करनी होती है। कुम्हार के चाक पर चढ़े बर्तन की तरह, कट-कट कर तथा छिल-छिल कर, सुंदर व उपयोगी रूपाकार गढ़ना होता है। इसके बावजूद वह अपने लिए पर्याप्त जगह बना ले और अपने हक में फैसला लेकर, रोने-बिसुरने या मनुहार करने की अपेक्षा उस पर अडिग रह सके। इसके लिए अध्ययन और लेखन एक मजबूत संबल, माध्यम हो सकता है। यदि वह स्वतंत्र चेता होकर, निर्णायक की भूमिका में आना चाहे…..यद्यपि पहाड़ की कुछ अपनी (भीतरी व बाहरी) मुश्किलें व दुष्चिंताएं हैं। इसके बाद भी यह अत्यंत सुखद है कि हिमाचल में, महिला लेखन की सशक्त परंपरा रही है जिसका सतत् निर्वाह हो रहा है। इन रचनाधर्मी महिलाओं की रचना प्रक्रिया को समझने के प्रयास में कुछ विचार बिंदु इनके सम्मुख रखे हैं। इस अनुरोध सहित कि कुछ ऐसा जो इन बिदुंओं तक नहीं सिमटता हो, वे वह भी कहें। संक्षिप्त परिचय व तस्वीर के साथ।…‘तुम कहोगी नहीं तो कोई सुनेगा नहीं। सुनेगा नहीं तो जानेगा नहीं और निदान इसी में कि कोई सुने, तुम कहती क्या हो/ कोई जाने/ तुम सहती क्या हो…

स्वतंत्र विचारों की अभिव्यक्ति के लिए, जनतांत्रिक व्यवस्था में भी कीमत चुकानी पड़ती है। विशेष रूप से इन दिनों सोचने का अधिकार, समाज की नियंता शक्तियों, सत्ता, बाजार और धर्म को ही है। सोचे हुए को शब्दबद्ध और अविलंब क्रियान्वित करते हुए। जरूरी सुविधाओं तक से वंचित लोगों की मजबूरी को ये ताकतें जिधर चाहें मोड़ दें। रचनात्मक बदलाव की कोशिश में निस्वार्थ जन आंदोलन कम होते जा रहे हैं।

ज्यादातर इन शक्तियों की कठपुतली बनी अंधभक्त और विवेकहीन भीड़ का शोर और प्रहार है, जिसका लक्ष्य सामान्य व्यक्ति यदि है तो स्वतंत्र चेता साहित्यकार व पत्रकार भी हो रहा है। क्योंकि अकसर इनके वक्तव्यों के अंतर्निहित मंतव्य हवा में ठहर जाते हैं। अस्त्र होने की फिराक में।…परंतु ये भी सत्य है कि जड़ व मूढ़ समाज को बदलने की कोशिशों का विरोध हर काल व हर देश में हुआ है। पर प्रतिगामी ताकतों के निषेध में भी उसी समय और उसी राष्ट्र के लोग आगे आए हैं, विभिन्न मंचों व माध्यमों से।….आज के समय में साहित्यिक कर्म ज्यादा कठिन हो रहा है। (साथ ही ज्यादा जरूरी भी) एक तो आधुनिक संचार माध्यमों ने संप्रेषण के मूल शब्द माध्यम को निष्प्रभावी करने में पूरी ताकत लगा दी है। दूसरा उसके सामने व्यवस्था, धर्म व पूंजीवाद की चुनौतियां हैं, जो उससे बलिदान की मांग करती हैं।

व्यावसायिक महत्त्वाकांक्षाओं का मोह तो छोड़ना ही होगा। आमजन के साथ होते हुए, व्यवस्था का विरोधी होना लाजिमी है, जो समाज की बेहतरी के लिए अंधविश्वासों, अन्याय और दमनकारी वृत्तियों का विरोध करते हैं, उन्हें प्रशंसा पत्र और सम्मान नहीं दिए जाते, बल्कि घेर कर अकेला कर दिया जाता है, क्योंकि व्यवस्था जानती है कि अकेला आदमी कटघरा होता है (धूमिल)…। जिन्हें ये प्रशंसा पत्र व सम्मान चाहिए, वे पुस्तक का प्रारंभिक प्रारूप बनते ही, उन्हें हासिल करने के प्रयत्नों में लग जाते हैं। पूंजीवाद अर्थात बाजारवाद ने तो संपूर्ण साहित्य-जगत को ही अपने प्रभा मंडल के अधीन कर लिया है। जिस लेखक का उदेश्य, इनके शोषण का शिकार बनते, सामान्य जन का पक्षधर होना है, वह इनसे निर्देशित व संचालित हो रहा है। इनकी मानसिकता प्रकाशक के माध्यम से पहुंचती है कि क्या और कैसा लिखा जाए, जो बिके और लाभ दे। गांव व आदिवासियों की संस्कृति का रूमानी वर्णन हो, स्त्री-पुरुष संबंधों का बेबाक चित्रण हो। पुराने अंधविश्वासों और जादू-टोने का विवरण हो…। सरकारी कार्यक्रमों व योजनाओं की व्याख्या व उनकी सफलता पर लिखा जाए, तो तत्काल रेखांकित होगा। बस व्यवस्था में हस्तक्षेप न हो, जनमानस का दुःख व आक्रोश शब्दबद्ध न हो। ग्रामीणों, किसानों व आदिवासियों के पिछड़ेपन की बात मत उठाइए तो ठीक, परंतु नकारात्मक शक्तियों की आवाज होकर साहित्य, सर्वहारा का परचम कैसे उठा सकेगा?…इसलिए जरूरी है कि लेखक स्पष्ट कर ले कि वह क्यों लिख रहा है? केवल चर्चा, प्रसिद्धि व धर्नाजन के लिए? या अपने आसपास घटित की पड़ताल करते हुए, सही की स्थापना के लिए। पीडि़त व वंचित के साथ खड़े होने के लिए…। लक्ष्य यदि स्पष्ट होगा तो पा लेने की हड़बड़ी व कवायद थम जाएगी। पुरस्कृत होने का दबाव नहीं रहेगा। चेतन में नहीं तो अवचेतन में, कहीं न कहीं जिसकी उपस्थिति रहनी ही है।….महिला साहित्यकारों की आकांक्षाएं संयमित होती हैं और सीमित भी। उनमें अपने विचारों का झंडा गाढ़कर वर्चस्व प्राप्त करने की जिद नहीं होती, लेकिन वर्षों से स्वयं को एक निर्धारित खांचे में समोने का अभ्यास करते हुए उन्होंने स्वयं के लिए नियम व कायदे बना लिए हैं। यही उनकी अभिव्यक्ति की मुखरता में बाधा बनते हैं।

रचनात्मक स्तर पर अवरोध उनकी मानसिक बनावट की वजह से है, तो परिवेशगत दबावों के कारण भी है। उन्हें सिखाया गया है और उन्होंने सीख लिया है कि उन्हें अपनी इच्छाओं के लिए नहीं, घर के लिए जीना है। औरों के यज्ञ की ही समिधा बनना है। औरत के हिस्से में/नहीं आती कोई आग/आग के हिस्से वह आती है। गजल लिखने व कहने में सिद्धस्थ व स्थापित साहित्यकार नलिनी विभा ने कहानियां व बाल साहित्य भी लिखा है। उनके अनुसार लेखिका पर बाहरी/भीतरी दबाव व संकोच तो रहता ही है, उसे अपनी बात सांकेतिक भाषा व मुहावरे में ही कहनी होती है। अभिव्यक्ति की जंग अभी जारी है। कलम अभी जिंदा है। दो कविता संग्रह व दो कहानी संग्रह लिखकर सुशील गौतम ने हिमाचल के साहित्य को समृद्ध किया है। उनके अनुसार हर नारी किसी न किसी समस्या के कारण स्वयं को पीडि़त पाती है। कुछ ऐसे बिंदु हैं, जिन्हें अभिव्यक्त करते हुए झिझकती है, परंतु वक्त के साथ-साथ यह सामर्थ्य भी वह पा लेगी। क्योंकि हठी मन, लिखने को आतुर रहता है।

संवेदनशीलता व व्यंग्यात्मकता का अद्भुत सामंजस्य युवा कवयित्री शैली की कविताओं में मिलता है। हिंदी व पहाड़ी में समान गति से लिख रही शैली, कोई दबाव अनुभव नहीं करती। एक बहुत महत्त्वपूर्ण बात वह कहती हैं कि स्त्री को समाज की नहीं, खुद को खुद की नजर से देखना आना चाहिए। स्त्री सरोकारों का मूल है कि स्त्री सदैव पुरुष व समाज की दृष्टि से स्वयं को तोलने की कवायद में न रहे। स्वयं को अपनी अपेक्षाओं के अनुरूप गढ़े…। सृजनधर्मी महिला साहित्यकार रीतिगत परंपराओं, सामाजिक उम्मीदों और सच्च कहने केपरिणामों की चिंता की जद में आती तो हैं, परंतु उनका खिलंदड़ व स्वच्छंद स्वभाव, हठी मन, खुद को खुद की नजर से देखने की प्रवृत्ति उनकी कलम को जिंदा रखती है…। यह आश्वस्त करता है।

               -चंद्ररेखा ढडवाल, धर्मशाला

विमर्श सूत्र

* रचना प्रक्रिया में घर व परिवार/समाज व परिवेश, आपसे आगे रहता है। अनुगामी होता है या साथ-साथ चलते हुए प्रोत्साहित

करता है।

* वर्तमान के संदर्भ में, अंचल विशेष के मानस को, उसकी मौलिकता में उद्घाटित कर पाने में अनुष्ठान व संस्कार गीतों तथा लोक गाथाओं की क्या भूमिका रहती है?

* स्त्री-विमर्श को सभ्यता-विमर्श के आलोक में एक वंचित व शोषित मानवीय इकाई की चिंता की परिधि में लाना कितना अनिवार्य है।

* भोगे हुए व देखे/समझे हुए यथार्थ को ईमानदारी से निर्द्वंद्व कह पाने में दबाव या संकोच महसूस करती हैं?


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