अर्थव्यवस्था ‘निराशाजनक’ !

By: Oct 11th, 2017 12:02 am

भारतीय रिजर्व बैंक ने कुछ सर्वे कराए थे, जिनके निष्कर्ष हैं कि सामान्य अर्थव्यवस्था डूब रही है। कारोबार करने की भावनाएं और हौसले पस्त हो रहे हैं। मुद्रा-स्फीति बढ़ोतरी की ओर है और आर्थिक विकास दर फिसल रही है। सर्वे से ही आकलन सामने आया है कि 2017-18 के दौरान औसत विकास दर करीब 6.7 रहेगी, जबकि लक्ष्य सात फीसदी से ज्यादा का था। भारत सरकार के केंद्रीय बैंक के सर्वे के बाद अर्थव्यवस्था पर बहस करने की गुंजाइश ही समाप्त हो गई है। अब ये आरोप यशवंत सिन्हा या राहुल गांधी के नहीं हैं, बल्कि मौद्रिक नीति तय करते हुए जो निष्कर्ष केंद्रीय बैंक के सामने आए हैं, हम उन्हीं के आधार पर चर्चा कर रहे हैं। हालांकि सर्वे में ऐसा आकलन नहीं है कि यह स्थिति जीएसटी और नोटबंदी के कारण है। तो फिर सरकार के स्तर पर विरोधाभास क्यों है कि प्रधानमंत्री मोदी और उनके मंत्री देश की खुशहाल तस्वीर पेश करने में जुटे हैं और सरकार के ही अपने आरबीआई ने उससे उलट, निराशाजनक पक्ष पेश किया है? सर्वे का साफ कहना है कि लगातार चौथी तिमाही में भी लोग अर्थव्यवस्था के प्रति ‘निराशाजनक’ हैं। अर्थव्यवस्था को लेकर सामान्य अवधारणा सितंबर, 2016 में जो करीब 45 फीसदी थी, आज घटकर करीब 34 फीसदी रह गई है। सर्वे में करीब 41 फीसदी लोगों ने अर्थव्यवस्था को ‘बदतर’ करार दिया है, जबकि सितंबर, 2016 में करीब 25 फीसदी लोगों की ऐसी अवधारणा थी। रोजगार की भी बदतर तस्वीर सामने आई है। यह भी रपट किया गया है कि एल एंड टी सरीखी कंपनियों ने, टेलीकॉम सेक्टर, टेक्निकल कंपनियों और कई बैंकों ने बीते 12 महीने में या तो छंटनी की है अथवा नौकरियों में कटौती की जा रही है। एक उदाहरण भारत सरकार का ही लें। कौशल विकास कार्यक्रम के तहत 30.67 लाख लोगों को प्रशिक्षण दिया गया, लेकिन नौकरी करीब 2.5 लाख को ही मिल पाई। शेष के साथ क्या हुआ? ऐसा क्यों हुआ? प्रशिक्षित लोगों को नौकरी कब तक मिलेगी? एक और तथ्य गौरतलब है कि मैन्युफेक्चरिंग के क्षेत्र में करीब 30 फीसदी कर्मचारियों की छंटनी की गई है। वे और उनके परिवार क्या करेंगे? सर्वे में लोगों ने कीमतों के स्तर और महंगाई पर भी चिंता जताई है। क्या यही भारत की आर्थिक स्थिति की मौजूदा तस्वीर है? तो मोदी सरकार की प्रतिक्रिया क्या होगी? ये कोई राजनीतिक आकलन या पूर्वाग्रही सर्वे नहीं हैं। भारतीय रिजर्व बैंक ने कराए हैं। शायद ऐसे ही कारण रहे होंगे कि मोदी सरकार को जीएसटी परिषद में कुछ चीजों की दरें कम करने का प्रस्ताव रखना पड़ा। लेकिन आम आदमी को कम फायदा हुआ है। सूखे मैंगो स्लाइस, खाखरा, सादी चपाती, रोटी और नमकीन, अनब्रांडेड आयुर्वेदिक, यूनानी, सिद्धा, होम्योपैथिक दवाएं, पेपर वेस्ट या स्क्रैप, जरी, पोस्टर कलर, पेपर क्लिप आदि की लाभदायकता सीमित है। अन्य दाल, चीनी, चावल, आटा, बिस्कुट और पैकेटबंद माल का क्या होगा? क्या वे बाजार भाव पर ही खरीदने पड़ेंगे? दरअसल हमारा सरोकार सामूहिक अर्थव्यवस्था को लेकर है। सिर्फ जीएसटी और नोटबंदी के प्रभाव नहीं हैं, तो फिर कारण क्या हैं? कमोबेश आरबीआई के इन सर्वे पर मोदी सरकार की तुरंत प्रतिक्रिया आनी चाहिए। सरकार ने एक काम बेहतर किया है कि गहने-जवाहरात वालों को मनी लांडिं्रग कानून के दायरे से बाहर कर दिया गया है। अब दो लाख रुपए तक के सोने के जवाहरात खरीदने पर पैन कार्ड नहीं दिखाना पड़ेगा। पहले 50,000 रुपए तक की खरीद पर भी पैन कार्ड दिखाना अनिवार्य था। यह निर्णय राजनीतिक भी हो सकता है, क्योंकि गुजरात में व्यापारियों का एक बड़ा तबका यही मांग कर रहा था। गुजरात में चुनाव भी हैं। लेकिन अर्थव्यवस्था के संदर्भ में देश के औसत नागरिक की प्रतिक्रिया कैसी रहेगी, वह देखना ज्यादा महत्त्वपूर्ण होगा।


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