‘अश्लीलता का अड्डा’ सोशल मीडिया

By: Oct 16th, 2017 12:02 am

बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट में सोशल मीडिया को लेकर गंभीर चिंता जताई गई। न्यायिक पीठ का अब मानना है कि इसकी निरंकुशता पर लगाम जरूरी हो गई है। दरअसल ‘सोशल मीडिया’…इन शब्दों का इस्तेमाल करते हुए भी घिन आती है। यह एक निरंकुश और बदनाम चेहरा है। सूचनाओं के विस्तार के लिए सोशल मीडिया का मंच खोला गया था, लेकिन उस सार्वजनिक मंच पर गालियों और अश्लीलता का इतना प्रयोग होता है कि उसे ‘असामाजिक’ करार देने का मन करता है। कुछ उदाहरण ही गौरतलब हैं। खुद को वरिष्ठ वकील मानने वाला एक शख्स कभी गधे के चेहरे पर, तो कभी कुत्ते या बंदर के चेहरे पर एक ऐसा मुखौटा लगाकर, नीचे भद्दी सी गाली लिख कर, फेसबुक पर पोस्ट करता रहा है। वे मुखौटे देश के प्रधानमंत्री मोदी के चेहरे सरीखे लगते हैं। कुछ भद्दे शब्दों पर वकील की दलील है कि ये शब्द गाली नहीं, संसदीय हैं। उनकी ऐसी पोस्टें सोशल मीडिया पर अकसर देखी जा सकती हैं। फेसबुक पर ही एक अश्लील चित्र दिखाते हुए लिख दिया जाता है-पीएम फैंस क्लब। देश की राष्ट्रीय और राजनीतिक घटनाओं पर सोशल मीडिया पूरी तरह विभाजित है। एक गुट भाजपावादी है, तो दूसरा सौ फीसदी मोदी विरोधी। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के फैशन तले सब कुछ लिखा जा रहा है, जिसमें किसी भी किस्म की सूचना या विश्लेषण नहीं है। इन गुटों में अधिकतर वे चेहरे हैं, जो अखबारों में पत्रकार रहे हैं और आज भी स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। दरअसल सोशल मीडिया सूचनाओं का स्रोत नहीं है, बल्कि अपशब्दों, अश्लीलता और अपसंस्कृति का अड्डा बन गया है। यह राष्ट्रहित में है कि इस मुद्दे पर एक संविधान पीठ का गठन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में किया गया है। जस्टिस एएम खानविल्कर और जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ भी संविधान पीठ में हैं। फली नरीमन और हरीश साल्वे सरीखे वरिष्ठ वकील इस मामले में कोर्ट के न्याय मित्र की भूमिका में हैं। साल्वे ने अपने कुरूप और भद्दे अनुभवों के साथ अपना पक्ष रखा है। उनका कहना था कि ट्वीटर सोशल मीडिया का एक सार्वजनिक मंच है। उसमें इतनी गालियां दी जाती हैं कि उन्हें अपना ट्विटर अकाउंट बंद करना पड़ा है। जो लोग इसका दुरुपयोग कर रहे हैं, उन्हें हर हाल में गंभीर नतीजे भुगतने का भय होना चाहिए। लोगों को जवाबदेह बनाना पड़ेगा। सोशल मीडिया के नियमन तय करने पड़ेंगे, ताकि उसका इस्तेमाल करने वाले संयम में रहें और अश्लील गालियां न दें। साल्वे ने हैरानी जताई कि सरकारी कर्मचारी भी इस मंच का खूब प्रयोग कर रहे हैं और व्यक्त विचारों को ‘निजी’ करार दे रहे हैं। दूसरे न्याय मित्र फली नरीमन सोशल मीडिया को ‘खौफनाक’ मानते हुए कहते हैं कि ऐसा लग रहा है मानो इस भदेसपन की किसी को परवाह न हो! इसके कुछ सिद्धांत तो तय करने पड़ेंगे। जस्टिस चंद्रचूड़ सोशल मीडिया पर सक्रिय रहे हैं, लेकिन उसके निरंकुश बर्ताव और चरित्र पर उन्होंने भी चिंता जताई है। उनका कहना था कि अदालत की प्रक्रिया संबंधी गलत सूचनाएं भी पोस्ट कर दी जाती हैं। एक मामले का संदर्भ देते हुए जस्टिस चंद्रचूड़ ने कहा कि सोशल मीडिया पर अदालत की टिप्पणी भी प्रसारित कर दी जाती हैं। ऐसा लगता है मानो वह अदालत का फैसला है! नतीजतन लोग सुप्रीम कोर्ट पर भी शाब्दिक हमले शुरू कर देते हैं। जस्टिस ने बताया कि रोहिंग्या शरणार्थी के लिए अदालत में पेश होने पर नरीमन को सोशल मीडिया पर खूब गरियाया गया। जस्टिस चंद्रचूड़ ने यह भी कहा कि एक टीवी चैनल पर बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष ने चर्चा के दौरान कहा कि सुप्रीम कोर्ट में भी सरकार समर्थक जजों का वर्चस्व हो गया है। जज भी सरकार की जुबान में बोलने लगे हैं। ऐसे वकील कोर्ट में एक दिन ही आएं और खुद देख लें कि कोर्ट में सरकार की कितनी खिंचाई की जाती है। हालांकि इस वकील को ‘कारण बताओ’ नोटिस भेजा गया है, लेकिन ऐसी ही टिप्पणियां सोशल मीडिया पर ‘तिल का ताड़’ बनाकर पेश की जाती हैं। दरअसल सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर शुरुआत समाजवादी नेता आजम खां के एक बयान से हुई। जस्टिस चंद्रचूड़ उस न्यायिक पीठ के भी सदस्य हैं, जो आजम खां मामले की सुनवाई कर रही है। उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री रहे आजम खां ने जुलाई, 2016 के बुलंदशहर गैंगरेप को लेकर बयान दिया था कि यह सियासी साजिश का नतीजा भी हो सकता है। वह बयान सोशल मीडिया पर खूब वायरल हुआ। पीडि़त परिवार ने उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका डाल दी। उसे संविधान पीठ को भेजा गया। सुनवाई का दायरा बढ़ाते हुए उसमें सोशल मीडिया को भी शामिल किया गया। बहरहाल अब सोशल मीडिया की बहस उस हद तक पहुंच गई है, जहां उस पर नकेल जरूरी लगती है। हालांकि यह विचार भी सामने आया है कि नियंत्रण इतना न हो कि आम आदमी की हंसी-मजाक की प्रवृत्तियां ही मर जाएं, लेकिन अब सोशल मीडिया के कुछ कायदे-कानून तय करने होंगे। ऐसे बदनाम मंचों पर संविधान पीठों को भी गालियां देना स्वीकार नहीं किया जा सकता। इसी दौरान एक विशेषज्ञ कमेटी की अनुशंसा आई है कि भारतीय दंड संहिता, कॉड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर और सूचना प्रौद्योगिकी कानूनों में पर्याप्त संशोधन किए जाएं और कड़े प्रावधान जोड़े जाएं। सोशल मीडिया और अन्य साइबर स्थानों पर जो नफरत फैलाई जाती है, भावनाओं को भड़काया जाता है और अश्लीलता हदें पार कर गई है, उनके लिए एक निर्णायक सजा तय की जा सके।


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