घाटी में वार्ता का रास्ता

By: Oct 30th, 2017 12:05 am

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

कश्मीरियों की यह मांग रही है कि घाटी को संप्रभु इस्लामी गणराज्य में परिवर्तित कर दिया जाए। यह वह चीज है, जो भारत नहीं दे सकता क्योंकि उसकी मान्यता है कि कश्मीर एक विवादित मसला नहीं है। इसे भारतीय संघ का हिस्सा माना जाता है। मैंने वार्ताकार के  रूप में कई बार कश्मीर का दौरा किया, लेकिन मैं ऐसा कुछ नहीं दे पाया जिसकी वह मांग करते रहे हैं…

केंद्र सरकार ने गुप्तचर ब्यूरो के पूर्व प्रमुख दिनेश्वर शर्मा को कश्मीर समस्या के समाधान के लिए वार्ताकार नियुक्त किया है। इस तरह की पहल पहली बार नहीं हुई है। इससे पहले भी सरकारें कश्मीर के लिए वार्ताकार नियुक्त करती रही हैं। पहले अधिकारी नहीं, बल्कि मंत्री नियुक्त किए जाते थे, यह दर्शाने के लिए कि इस समस्या का महत्त्व क्या है तथा इस ओर तुरंत लोगों का ध्यान जाए। लेकिन दुर्भाग्य से इस तरह की गतिविधियों का कोई सकारात्मक परिणाम नहीं निकला। केंद्र जो पेशकश करता रहा है, कश्मीरी नेताओं की चाहत उससे अधिक रही है। इस तरह की बैठकों का कोई बिंदु नहीं रहा। वार्ताओं में समस्या के सभी पहलुओं पर विचार किया गया, लेकिन दोनों पक्ष एक-दूसरे से इतने दूर रहे कि वार्ता थम गई। कश्मीरियों की यह मांग रही है कि घाटी को संप्रभु इस्लामी गणराज्य में परिवर्तित कर दिया जाए। यह वह चीज है जो भारत नहीं दे सकता, क्योंकि उसकी मान्यता है कि कश्मीर एक विवादित मसला नहीं है। इसे भारतीय संघ का हिस्सा माना जाता है। मैंने वार्ताकार के  रूप में कई बार कश्मीर का दौरा किया, लेकिन मैं ऐसा कुछ नहीं दे पाया जिसकी वह मांग करते रहे हैं। मुझे जिस बात ने निराश किया, वह है ग्रे एरिया का विलुप्त हो जाना, जिसे कुछ वर्षों पूर्व तक देखा जा सकता था। स्थितियां इतनी विकट हो चुकी हैं कि हिंदू व मुसलमानों में सामाजिक संपर्क तक नहीं रहा है। निजी मिसाल देने का मुझे दुख है। पूर्व में यासीन मलिक ने मुझे अपने घर पर रात्रि भोज के लिए बुलाया था और हमने कई मसलों पर वार्ता की।

यह सत्य है कि अब वह अलगाववादी बन चुका है। लेकिन मैं व्यर्थ में ही उससे किसी शब्द का इंतजार करता रहा। मैं यह विश्वास नहीं रखता कि उसे मेरी कश्मीर में उपस्थिति का कोई पता नहीं था। जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट, जिसका वह नेतृत्व करता है, ने अपने लोग श्रीनगर हवाई अड्डे पर यह देखने के लिए तैनात कर रखे थे कि वहां भारत की ओर से कौन आता है और खुद वह कहीं और अलगाववादियों से फीडबैक लेता रहा।  मैंने यह कह कर यासीन मलिक का आमरण अनशन तुड़वाया कि मैं निजी तौर पर इस बात की जांच करूंगा कि भारतीय सुरक्षा बल वहां किस तरह मानवाधिकारों का उल्लंघन कर रहे हैं। एमनेस्टी इंटरनेशनल की जांच के बजाय उसने मेरी सुपरविजन को स्वीकार किया था और आमरण अनशन तोड़ दिया था। हमने एक रिपोर्ट तैयार की और यासीन मलिक के आरोपों को अधिकतर सही पाया। इस रिपोर्ट का पाकिस्तान ने व्यापक स्वागत किया था, लेकिन इससे आगे कुछ नहीं हुआ। यह सही है कि यासीन कहता है कि वह भारतीय नहीं है। लेकिन हमारे संबंध राष्ट्रीयता के आधार पर नहीं थे। क्या कड़वाहट निजी रिश्तों को भी खत्म कर देती है। क्या मुझे यह मान लेना चाहिए कि मैंने यह गलत सोचा कि राजनीतिक हितों के आगे समस्या समाधान में व्यक्तिगत संबंध भी काम आ सकते हैं। एक अन्य उदाहरण देता हूं कि किस तरह राजनीतिक उद्देश्यों के आगे निजी संबंधों को पृष्ठभूमि में धकेल दिया गया। अन्य कश्मीरी नेता शब्बीर शाह पर आजकल केस चल रहा है। वह मेरे चेले की तरह था। वह तब भारत समर्थक था। वह अब एक कड़े विरोधी के रूप में उभर गया है। फिर भी मैं यह नहीं जानता कि क्यों निजी संबंध खत्म हो जाने चाहिएं। यह वह कीमत है, जो मुझे शब्बीर के विचारों में बदलाव के लिए चुकानी है। कश्मीर का मसला उन लोगों का ध्यान खींचता है, जो पंथनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक भारत में विश्वास रखते हैं। कितना भी विरोध हो, उन्हें उनकी वचनबद्धता से अलग नहीं किया जा सकता। अगर वे बदलते हैं तो यह माना जाएगा कि उनके पहले के प्रयास फर्जी थे। यह पूरे भारत के लिए ठीक होगा।

भारत को आजादी दिलाने वाले महात्मा गांधी व जवाहर लाल नेहरू ने जिस भारत की संकल्पना की थी, उसके समक्ष चुनौतियों का हम सामना कर रहे हैं। मुझे यह देख कर पीड़ा होती है कि महात्मा गांधी को मारने वाले नाथूराम गोडसे के विचारों के पक्ष में कुछ आवाजें उठने लगी हैं। मुस्लिम बहुल कश्मीर अब असुरिक्षत महसूस कर रहा है। एक कश्मीरी इंजीनियर ने बताया कि कैसे उसे उदारवादी क्षेत्र बंगलूर में संदेह की नजरों से देखा गया और पुलिस ने परेशान किया। दलों ने अपनी पहचान जाति व धर्म के नाम पर बनाने की राजनीति कम कर दी है। लोगों को भी उदारवादी संगठनों व नेताओं का अनुसरण करना चाहिए तथा यह देखना चाहिए कि कोई जाति व धर्म के आधार पर विष न फैला पाए। अगर राष्ट्र विफल हो जाता है, तो कश्मीर व अन्य कई राज्य धर्म के गंदे पानी में फंस जाएंगे। यह कश्मीर के हित में है कि यथास्थिति से छेड़छाड़ न की जाए तथा उसे कायम रखा जाए। यह तब तक जारी रहे, जब तक उनके पास कुछ बेहतर न हो। यह तभी संभव है अगर भारत, पाकिस्तान व कश्मीरी लोग संवाद के लिए आगे आएं। नई दिल्ली इसके लिए तैयार नहीं लगती है, क्योंकि पाकिस्तान अपने इस वचन से मुकर गया है कि वह अपने क्षेत्र का आतंकवादी गतिविधियों के लिए प्रयोग नहीं होने देगा। जनरल मुशर्रफ के कार्यकाल में पाकिस्तान ने यह बात मान ली थी। वह आगरा आए थे और उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से बात की थी। दोनों पक्ष समझौते के निकट पहुंच गए थे, लेकिन अंततः समझौता नहीं हुआ और कश्मीर को वार्ता के दायरे से निकाल दिया गया। कारगिल में मुशर्रफ की गुस्ताखी ने समस्या को पेचीदा ही बनाया और दोनों पक्ष वार्ता से दूर हो गए।

यह जरूर कहा जाना चाहिए कि वाजपेयी को श्रेय जाता है, जिन्होंने लाहौर के लिए बस चलाई। मैं उस वक्त उनके पीछे बैठा था, जब उन्होंने वह टेलीग्राम दिखाई, जिसमें कहा गया था कि जम्मू के निकट कई हिंदुओं को मारा गया। उन्होंने उस वक्त कहा था कि वह नहीं जानते कि लोगों की क्या प्रतिक्रिया होगी, लेकिन वह पाकिस्तान जाएंगे और वहां की सरकार से वार्ता करेंगे। इससे आगे शेष एक इतिहास है। सिंधु जल समझौते की जगह नया समझौता किया जा सकता है, लेकिन पाकिस्तान की स्वीकृति जरूरी है। वह सिंधु नदी के जल प्रयोग की अनुमति नहीं दे रहा है और न ही बिजली का निर्माण हो रहा है। ऐसी स्थिति में कोई कल्पना करना कठिन है, चाहे सिंधु नदी का जल प्रयुक्त हुए बिना ही व्यर्थ बहता रहे। पाकिस्तान में एक प्रवृत्ति है कि वहां हर मसले को कश्मीर से जोड़ दिया जाता है, जिससे यह समस्या गंभीर होती जा रही है और इसके सुलझने की उम्मीद भी कम है। सिंधु जल समझौता अगर हो जाता है तो इससे दोनों देशों को लाभ होगा तथा शांति भी कायम होगी। दोनों देशों को आपसी दूरियों को कम करने के लिए काम करना चाहिए।

ई-मेलः kuldipnayar09@gmail.com


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