पुरुषार्थ ही सफलता का सूत्रधार माना जाता है…

By: Oct 4th, 2017 12:05 am

पुरुषार्थ कभी व्यर्थ नहीं जाता, बल्कि सफलता का सूत्रधार है पुरुषार्थ। इसके लिए जरूरी है आप हर रोज अपने सपनों के बारे में सोचें और उनको आकार देने के लिए तत्पर हों…

आज पूरी दुनिया में उथल-पुथल का दौर चल रहा है, ऐसी स्थितियों में अकसर लोग लक्ष्य को पाने की आस छोड़ देते हैं। उनका सारा ध्यान महज अपने अस्तित्व को बचाए रखने में लग जाता है। लक्ष्य का होना जीवन को स्पष्टता देता है। अच्छी खबर यह है कि आप बंधी-बंधाई सुरक्षित राहों से अलग राह चुनते हैं तो उन अवसरों पर सोचना भी आसान हो जाता है, जो आपको मुश्किल लगते थे। पुरुषार्थ कभी व्यर्थ नहीं जाता, बल्कि सफलता का सूत्रधार है पुरुषार्थ। इसके लिए जरूरी है आप हर रोज अपने सपनों के बारे में सोचें और उनको आकार देने के लिए तत्पर हों। इलियट के शब्दों में कहा है वह जीवन जिसे हमने जीने में ही खो दिया। फिर भी हमें उस जीवन को पाना है, जहां इनसान आज भी अपनी पूरी ताकत, अभेद्य जिजीविषा अथाह गरिमा और सतत पुरुषार्थ के साथ जिंदा है। इसी जिजीविषा एवं पुरुषार्थ के बल पर वह चांद और मंगल ग्रह की यात्राएं करता रहा है। उसने महाद्वीपों के बीच की दूरी को खत्म किया है। वह अपनी कामयाबियों का जश्न मना रहा है। फिर भी कहीं-न-कहीं इनसान के पुरुषार्थ की दिशा दिग्भ्रमित रही है। मनुष्य के सामने हर समय अस्तित्व का संर्घष कायम है। जब हम अपनी ही सोच और क्षमताओं पर संदेह करने लगते हैं, तब अंधेरा घना होता है। तभी लगता है कि अब कुछ नहीं हो सकता। लेखिका एलेक्जेंड्रा फ्रेंजन कहती हैं, अगर दिल धड़क रहा है, फेफड़े सांस ले रहे हैं और आप जिंदा हैं तो कोई भी भला, रचनात्मक और खुशी देने वाला काम करने में देरी नहीं हुई। हालांकि इस संघर्ष और विश्वास से उसको नई ताकत, नया विश्वास और नई ऊर्जा मिलती है और इसी से संभवतः वह स्वार्थी बना तो परोपकारी भी बना। वह क्रूर बना तो दयालु भी बना, वह लोभी व लालची बना तो उदार व अपरिग्रह भी बना। वह हत्यारा और हिंसक हुआ तो रक्षक और जीवनदाता भी  बना। आज उसकी चतुराई, उसकी बुद्धिमता, उसके श्रम और मनोबल पर चकित हो जाना पड़ता है। इस सबके बावजूद जरूरत है कि इनसान का पुरुषार्थ उन दिशाआें में अग्रसर हो, जहां से उत्पन्न सद्गुणों से इनसान का मानवीय चेहरा दमकने लगे। इनसान के सम्मुख खड़ी अशिक्षा, कुपोषण और अन्य जीने की सुविधाओं के अभाव की विभीषिका समाप्त हो। वह जीवन के उच्चतर मूल्यों की ओर अग्रसर हो। सत्य, अहिंसा, सादगी, सच्चाई और मनुष्यता के गुणों के बारे में उसकी आस्था कायम रहे। कहते हैं एक बार इंद्र किसी कारणवंश पृथ्वीवासियों से नाराज हो गए और उन्होंने कहा कि बारह वर्ष तक वर्षा नहीं करनी है। किसी ने उनसे पूछा कि क्या सचमुच बारह वर्ष तक बरसात नहीं होगी।  इंद्र ने कहा-हां, यदि कहीं शिवजी डमरू बजा दें तो वर्षा हो सकती है। इंद्र ने जाकर शिवजी से निवेदन किया कि भगवन आप बारह वर्ष तक डमरू न बजाएं। शिवजी ने डमरू बजाना बंद कर दिया। तीन वर्ष बीत गए, एक बूंद पानी नहीं गिरा। सर्वत्र हाहाकार मच गया। एक दिन शिव-पार्वती कहीं जा रहे थे। उन्होंने देखा कि एक किसान हल-बैल लिए खेत जोत रहा है। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ। दोनों किसान के पास गए और कहने लगे क्यों भाई। जब आपको पता है कि आने वाले नौ वर्षों में भी बरसात नहीं होगी तो तुम खेत की जुताई क्यों कर रहे हो? किसान ने कहा वर्षा को होना न होना मेरे हाथ में नहीं है, लेकिन मैंने यदि हल चलाना छोड़ दिया तो बारह साल बाद न तो मुझे और न ही मेरे बैलों को हल चलाने का अभ्यास रहेगा। हल चलाने का अभ्यास बना रहे इसलिए हल चला रहा हूं। किसान की बात सुनकर पार्वती ने शिवजी से कहा कि स्वामी तीन साल हो गए आपने डमरू नहीं बजाया, अभी नौ साल और नहीं बजाना है। देखा, कहीं आप भी डमरू बजाने का अभ्यास न भूल जाएं। शिवजी ने सोचा-बात तो सही है। डमरू बजाकर देख लेना चाहिए। वह डमरू बजाकर देखने लगे। उनका डमरू बजते ही पानी झरझर बरसने लगा। मनुष्य को अपने भाग्य पर निर्भर न रहते हुए, अपनी मेहनत पर भरोसा करना चाहिए। भाग्य मेहनत से ही जुड़ा है।

– ललित गर्ग, पटपड़गंज, नई दिल्ली


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