फैसलों की आमदनी

By: Oct 6th, 2017 12:02 am

हिमाचल में शाह-मोदी रैलियों की गुणात्मक शक्ति के सामने वीरभद्र सिंह सरकार की रचनाधर्मिता का मूल्यांकन किस तरह होगा, यह चुनावी पहेली है। आश्चर्य यह कि दो रैलियों के समक्ष प्रदेश सरकार अपने फैसलों की सियासी आमदनी एकत्रित करती रही, जबकि भाजपा कार्यकर्ताओं का जोश मैदान का मुरीद बन कर हिमाचली ताकत का राजनीतिक इजहार हो गया। ऐसे में राजनीतिक फायदे का मुकाबला दो अखाड़ों में हो रहा है। भाजपा सामर्थ्य और समर्थन का ऊंट बिलासपुर में अपनी करवट बता गया, लेकिन कांग्रेस के ऊंट पर सरकार अंतिम चरण तक सवार है। सरकारी तख्तपोश पर फैसलों का कालीन बार-बार बिछ रहा है, तो इस आशय को समझना पड़ेगा। जिस सरकार पर केंद्रित भाजपा के नश्तर सदा तीखे रहे, उनके सामने यह कैसा बचाव कि कांग्रेस अपनी सत्ता की सुर्खियों से आनंदित हो रही है। आचार संहिता की लक्ष्मण रेखा से पहले सत्ता के मुलायम स्पर्श के मायने कितना असर रखते हैं, इस पर आम राय बनाना मुश्किल है और विपक्ष के लिए इसे मुद्दा बनाना भी आसान नहीं, क्योंकि लाभकारी निर्णयों के तर्क नहीं होते। यह दीगर है कि चुनावी वैतरणी पार करने के लिए लाभकारी फैसले हर सूरत लोकप्रिय नहीं हो सकते, फिर भी राजनीतिक आडंबर को जनता अपने हक की पैरवी समझती है। ऐसे में जबकि पिछले कुछ महीनों से केंद्रीय योजनाओं का श्रीगणेश हिमाचल से होने लगा, तो मुकाबले के साथ प्रदेश सरकार भी लगातार अपनी कथनी और करनी में सुधारवादी होती गई। राजनीतिक अनुमान की लागत से कहीं अधिक वीरभद्र सिंह सरकार के फैसलों का राजनीतिक अर्थ अगर फैलता रहा है, तो इसे सिरे से नकार पाने में कठिनाई होगी। यह एकदम नया प्रयोग है, जो हिमाचल के सियासी माहौल का तुलनात्मक अध्ययन करेगा। ऐसा क्यों होने लगा कि एक सरकार पांचवें साल की सीमा रेखा तक अपने फलक को फलदार बनाने की चेष्टा कर रही है। यह सार्थक साबित होने की कसरत है या साधने का सत्संग, फिर भी ऐसे चुनावी वसंत में राजनीतिक पतझड़ को चुन पाना भाजपा के साठ प्लस सीटों के दावे को मुश्किल कर देता है। बेशक वीरभद्र सिंह के दामन पर छींटे गिनने में भाजपा बेहद सफल रही है और यह पार्टी के विजय रथ का मुख्य आधार भी है, लेकिन हिमाचल सरकार के फैसलों की चांदनी में काली रातों को भी ठिठकना पड़ रहा है। हम कई निर्णयों पर प्रश्न उठा सकते हैं और अनावश्यक ठहराते हुए टिप्पणी कर सकते हैं, लेकिन जो प्रभावशाली वर्गों को मिला उसका खुला विरोध चुनावी हसरतों में दर्ज नहीं होगा। हिमाचल सरकार ने अपने लिए इतना अंक गणित तैयार कर लिया है कि जब भी सियासी जमा-घटाव होगा, तो परिणाम शून्य नहीं हो सकते। यह दीगर है कि सुशासन की बारीकियों में भाजपा दरारें ढूंढने में माहिर रही है, फिर भी पार्टी का सबसे बड़ा मुद्दा सिर्फ और सिर्फ वीरभद्र सिंह ही रहेंगे। केंद्र सरकार ने भी चुनाव की सांझ को देखते हुए अपनी योजनाओं के सूर्य को पकड़ कर रखा है। खासतौर पर प्रधानमंत्री रैली के साथ नत्थी कार्यक्रमों की शृंखला दिखाई देने लगी है। कुल्लू-चंडीगढ़ उड़ान के मार्फत हिमाचली पर्यटन से पंख चुराने की सियासी कोशिश का परिचय अगर मिलता है, तो जमीन पर केंद्रीय मंत्रियों का काफिला सघन हो चला है। ऐसा लगता है कि आश्वासनों और तोहफों के बीच केंद्र और हिमाचल सरकारें तारीफ चुन रही हैं। तारीफों के पुल के नीचे आम हिमाचली की जागरूकता और सियासी समझ का क्षेत्रवाद कितना केंद्र को देता है तथा कितना निचोड़ लेता है, इसका अनुमान न मंत्रिमंडलीय फैसले लगा सकते हैं और न ही मोदी लहर प्रमाणित हो रही है।


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