बात हक की गजल के पर्दे में

By: Oct 15th, 2017 12:05 am

भावाभिव्यक्ति मानव मात्र की चाहत भी है और ज़रूरत भी। कवि-लेखक एक सजग सचेत निरीक्षक होता है जो जीवन के तमाम खट्टे-मीठे कटु अनुभवों को, जो उसे निरंतर उद्वेलित करते रहते हैं, उन दृश्यों को जो उसके हृदय को आलोडि़त कर जाते हैं, को आत्मसात् करता जाता है और उन्हें अपनी प्रतिभा, कल्पना, संवेदना तथा भावानुरूप सरस अभिव्यक्ति देता है। लेखक हों अथवा लेखिकाएं, अपने रचना कर्म के साथ-साथ स्वयं को पहचानने की तलाश में रहते हैं जो वस्तुतः जि़ंदगी के सच की तलाश है। कवि की संवेदना की यदि झलक मिल जाए तो कृतित्व को समझना कुछ सरल हो जाता है। प्रबुद्ध पाठक उनकी रचनाओं में उनके व्यक्तित्व की झलक भी पा जाते हैं। प्रत्येक का चिंतन भिन्न होता है, दर्शन, दृष्टिकोण, एहसास और शैली विलक्षण एवं नितांत व्यक्तिगत, ज़ाती, शख्सी होती है। स्त्री की रचना प्रक्रिया में घर-समाज आगे ही रहता है। सामंजस्य और समायोजन के लिए स्वयं को कुर्बान करने के बावजूद वह विरोध और प्रताड़ना की शिकार होती है, हीन और हक़ीर ही समझी जाती है। उसे हके-यकसानियत (समानता का अधिकार) नहीं दिया जाता। अपनी नज़्म ‘औरत’ से चंद अश्आर पेश कर रही हूं :

औरत थी, क़त्ल हो गई वो ख़ामुशी के साथ

अपनी अना को खो गई वो ख़ामुशी के साथ

चौखट को पार कर ले कि सहती रहे सितम

इस कशमकश में खो गई वो ख़ामुशी के साथ

जब तक नारी का मूल्यांकन देह पर किया जाएगा, उसे भोग्या वस्तु के रूप में देखा जाएगा, उस पर फिकरे कसे जाएंगे, वह संत्रास झेलती रहेगी, घुटती छटपटाती रहेगी। ऐसे भी दृष्टांत हैं जब लेखिका की पांडुलिपि तक नष्ट कर दी गई, उसका मौलिक सृजन उससे छीन लिया गया। क्या पंखुड़ी-पंखुड़ी झड़ जाना, कुचल दिए जाना ही उसकी नियति है, नारी आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो, यह तो चाहा जाएगा, लेकिन वह अपनी स्वतंत्र विचारधारा रखे अथवा उसे अभिव्यक्ति दे, यह मंज़ूर नहीं। अतः स्त्री विमर्श को सभ्यता विमर्श के आलोक में एक वंचित व शोषित मानवीय इकाई के अंतर्गत लाना अनिवार्य है क्योंकि बात अधिकांशतः की हो रही है। अपवाद स्वरूप जो औरतें खुदमुख्तार और आज़ाद हैं तथा अपनी पहचान बनाने में सफल रही हैं, अधिकांशतः एकाकी हैं। फिर भी सृजन और अभिव्यक्ति का सिलसिला चलता रहता है। मेरी एक कविता से कुछ अंश :

हों अवरोध

या घोर विरोध

हितैषी हो हवा

या विपरीत

लगें कितने भी प्रतिबंध

भरे कंठ से ही सही

आवाज़ उठाएंगे

जितना खुल कर लेखक अपने भोगे, समझे, देखे हुए यथार्थ को लिख सकता है, लेखिका निश्चित रूप से एक दबाव और संकोच महसूस करती है या कभी यूं भी कहती है :

बात हक़ की ग़ज़ल के पर्दे में

बेधड़क  बज़्म  में  उठा  दीजे

कभी-कभी यह प्रश्न भी उठाया जाता है कि लेखिका अपना ही दुःख-दर्द लिखे जा रही है। किंतु वस्तुतः लेखिका की लेखनी से समाज देश-काल का कोई विषय अछूता रहा हो, ऐसा नहीं है। उदाहरण स्वरूप अपनी गजलों से उदाहरण पेश कर रही हूं :

हाय कैसी सज़ा है जीने की

एक मुफ़लिस को अश्क पीने की

उस के हक़ में बयान देगा कौन

चीथड़े तन पे, बू पसीने  की

ये बजरी चोर इन्सां देख लीजे

पहाड़ों तक को ढोता जा रहा है

…..

बच्चों को अपने आप से फ़ुर्सत कहां मिली

पीरी में हमको देखने वाले कहां गए…

यदि अंचल विशेष के मानस को उसकी मौलिकता में उद्घाटित करना है तो वहां के परिवेश, आंचलिक बोली, त्योहारों-परंपराओं, संस्कार गीतों तथा लोक गीतों को आत्मसात् करना अत्यावश्यक है ताकि उपयुक्त वातावरण की निर्मिति हो सके, माटी की सुगंध हो, भले ही नाटक हो, कहानी हो या कविता।

                        -डा. नलिनी विभा ‘नाजली’ , नंगल

परिचय

* नाम : डा. नलिनी विभा ‘नाज़ली’

* जन्म : 05.12.1954 को नंगल (पंजाब) में

* प्रकाशित कृतियां : 1. चिंतन, 2. हर इक इन्सां बदलेगा (दोनों हिंदी काव्य संग्रह), 3 रेज़ा रेज़ा आइना (उर्दू रस्मुलख़त में), 4. ग़ज़ल के पर्दे में (देवनागरी लिपि में), 5. हर्फ़  हर्फ़  आइना (उर्दू रस्मुलख़त में), 6. दस्तख़त रह जाएंगे (उर्दू रस्मुलख़त में), 7. अनमोल सच व 8. निश्छल बचपन (दोनों बाल काव्य संग्रह)

* सम्मानोपाधियां : 200 से अधिक, प्रेरणा स्रोत सम्मान 2016-हिमाचल प्रदेश सरकार, ठाकुर वेद राम राष्ट्रीय पुरस्कार-साहित्य (2016-17 के लिए-भुट्टिको कुल्लू), शांति स्वरूप सक्सेना स्मृति-2014, नई दिल्ली, स्व पन्नालाल श्रीवास्तव नूर सम्मान-ग़ज़ल के लिए (जबलपुर, एमपी), माननीय श्रम मंत्री भारत सरकार प्रो. सत्यनारायण जटिया द्वारा दिल्ली में उर्दू अदब के लिए सम्मानित, लता मंगेशकर सम्मान-नागपुर, उमराव जान अदा सम्मान (अखिल भारतीय कवयित्री सम्मेलन नई दिल्ली) तथा अन्य सम्मान


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App