मौर्य काल तक ही स्वतंत्र रूप से जनपद चले

By: Oct 11th, 2017 12:05 am

महाभारत युद्ध के बाद से लेकर पाणिनी तथा बौद्ध काल तक भारतीय इतिहास एक धूमिल काल से गुजरा। इस अवधि में कोई ऐसा शक्तिशाली राजा न हुआ जो इन छोटे-छोटे राज्यों को संगठित करता। अतः ऐसा जान पड़ता है कि जनपद स्वतंत्र रूप से मौर्य काल तक चलते रहे…

हिमाचल के प्राचीन जनपद

महाभारत के युद्ध में इन जनपदों के कुछ लोग कौरवों की ओर से लड़े थे और कुछ ने पांडवों का साथ दिया था। महाभारत युद्ध के बाद से लेकर पाणिनी तथा बौद्ध काल तक भारतीय इतिहास एक धूमिल काल से गुजरा। इस अवधि में कोई ऐसा शक्तिशाली राजा न हुआ जो इन छोटे-छोटे राज्यों को संगठित करता। अतः ऐसा जान पड़ता है कि जनपद स्वतंत्र रूप से मौर्य काल तक चलते रहे। सिकंदर के आक्रमण के पश्चात जब चंद्रगुप्त मौर्य ने भारत को सूत्रबद्ध कर एक विशाल राज्य की स्थापना की तो उसके मंत्री चाणक्य ने हिमालय पर्वत प्रदेश के एक राज्य के पर्वतक या पर्वतेश नामक प्रधान से मैत्री-संधि की थी। परिशिष्टपर्वन नामक जैन ग्रंथ में भी इस मैत्री संधि का उल्लेख मिलता है। उसमें कहा गया है कि चाणक्य हिमवत्कूट गया और उस प्रदेश के राजा पर्वतक के साथ संधि की। बौद्ध वृत्तांतों में भी चाणक्य के पर्वत नामक एक घनिष्ट मित्र का उल्लेख मिलता है। मुद्रा राक्षस से भी पता लगता है कि इस पर्वत प्रदेश के राजा के साथ मैत्री हो जाने के फलस्वरूप चंद्रगुप्त की सेना, जिसमें विविध जातियों के सैनिक भर्ती किए गए थे, सुगठित हो गई। पर्वतीय राजाओं में केवल कुलूत का राजा चित्रवर्मा और कश्मीर का राजा पुष्कराक्ष थे, जिन्होंने चंद्र गुप्त का विरोध किया था। इन पर्वतीय जनपद के लोगों का मौर्य राज्य के बड़े-बड़े नगरों के साथ नाना प्रकार का व्यापार भी होता था। इन व्यापारिक वस्तुओं में जो हिमाचल से जाती थी, हेमवत (मोती), विसी और महा विसी जाति की खालें उल्लेखनीय हैं। अशोक ने नेपाल से लेकर कश्मीर तक का सारा हिमालय प्रदेश अपने आधिपत्य में कर लिया था, परंतु राज्य व्यवस्था के लिए वहां के स्थानीय शासकों को वहीं का शासन प्रबंधक बना दिया। उसने हिमालय में आचार्य मज्झिम को बौद्ध धर्म का प्रचार करने के लिए नियुक्त किया। महावंश ने केवल उसी का नाम इस प्रदेश में प्रचार करने वाले भिक्षु के रूप में दिया है। उसकी टीका में उसके चार साथियों के नाम दिए गए हैं। ये साथी कस्सगोत, दुंदुभिसार, सहदेव और मूलक देव थे। ये नाम सांची के दूसरे स्तूप के भीतर पाए गए पत्थर के संदूक में एक धातु मंजुषा सोग्गलिपुत में खुदे हुए थे और दूसरी के तले पर तथा ढक्कन के ऊपर और अंद हारितीपुन, मज्झिम तथा सवहेमवतारिय कस्सपगोत के नाम से खुदे हैं। उस संदूकची में उन प्रचारकों के धातु रखे थे और वह स्तूप उन्हीं धातुओं पर बनाया गया था। इन स्पूतों में पाए गए अवशेषों से अनुभूति की पूरी सत्यता सिद्ध होती है। महावंश में लिखा है कि मज्झिम और उसके चार साथियों ने हिमालय के पांचों राष्ट्रों में प्रचार किया।


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