यह पाबंदी संस्कृति विरोधी है

By: Oct 13th, 2017 12:02 am

त्रिपुरा के राज्यपाल तथागत रॉय की टिप्पणी है कि आज दही-हांडी और पटाखों पर पाबंदी लगाई गई है, तो कल चिता जलाने पर भी पाबंदी लगाई जा सकती है। यदि दिवाली के मौके पर सिर्फ दिल्ली-एनसीआर में ही पटाखों की बिक्री के संदर्भ में एक राज्यपाल को अपनी संवैधानिक मर्यादा लांघनी पड़ी है, तो मुद्दा सामान्य नहीं है। दिवाली हिंदू संस्कृति का सबसे बड़ा पर्व है, जो किन्हीं भी मायनों में प्रदूषण का पर्याय नहीं है। दीपावली रोशनी का त्योहार है, पटाखे फोड़ने, आतिशबाजी जलाने का पर्व है और हम मिठाई खाकर-खिलाकर अपनी इस संस्कृति को मनाते हुए बड़े हुए हैं। कल ऐसा भी हो सकता है कि कोई प्राधिकरण दीया या मोमबत्ती जलाने पर भी पाबंदी चस्पां कर दे, क्योंकि कुछ प्रदूषण तो उनमें भी पैदा होता है। दिवाली पर उल्लास मनाने का सांस्कृतिक और ऐतिहासिक कारण भी है। उस दिन भगवान राम अयोध्या लौटे थे। 14 साल का वनवास पूरा कर और लंका पर विजय प्राप्त करने के बाद। जिनकी आस्थाएं राम को ‘भगवान’ के रूप में देखती हैं और पूजती आई हैं, वे ऐसी पाबंदियों से जरूर खंडित होंगे। हम न तो न्यायपालिका को और न ही अन्य पक्षों को हिंदू विरोधी करार देना चाहते हैं। भारतीय लोकतंत्र में न्यायपालिका को संवैधानिक विशेषाधिकार हासिल है। यदि वह न हो तो हमारी समूची व्यवस्था ‘जंगल राज’ होकर रह जाए। मुद्दा दिवाली सरीखे पर्व का है, असंख्य लोगों की भावनाओं और संवेदनाओं का है, सांस्कृतिक मूल्यों का है, उन्हें यूं ही नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। कानून की धाराएं भी उनके ऊपर नहीं हैं। सिर्फ पटाखे जलाने से ही प्रदूषण फैलता है, यह एकांगी सत्य हो सकता है। दिल्ली में प्रदूषण सड़कों की धूल, वाहनों के धुएं, खाना पकाने से निकलने वाले धुएं, बिजली के प्लांटों, बड़े उद्योगों और पंजाब-हरियाणा में खेतों में जलाई जाने वाली पराली (फसल के अवशेष) आदि से होता है। क्या किसी पर पाबंदी थोपी जा सकी है? बेशक प्रयास किए जाते रहे हैं कि इनके प्रदूषण में कमी आए या वह नियंत्रित किया जा सके, लेकिन अभी तक तमाम कोशिशें नाकाम रही हैं। नतीजतन दिल्ली उच्च न्यायालय को दिसंबर, 2015 में यहां तक टिप्पणी करनी पड़ी थी कि दिल्ली ‘गैस चैंबर’ बन गई है, जिसमें हम सभी रहने को मजबूर हैं। दिल्ली की हवा इतनी जानलेवा हो गई है कि लोगों को फेफड़े और त्वचा के कैंसर हो रहे हैं। दिल्ली में जहरीली बारिश की नौबत भी आ सकती है। हार्मोन असंतुलन के साथ-साथ बच्चों का शारीरिक विकास प्रभावित हो रहा है। एक डाक्टर ने ‘काले फेफड़ों’ की तस्वीर जारी की थी, जो अत्यंत भयावह लगी, जानलेवा तो है ही। ऐसे माहौल में सिर्फ एक दिन, एक रात के पटाखे ‘यमदूत’ बनकर नहीं आएंगे। बेशक हम मानते हैं कि प्रदूषण बढ़ेगा और हर साल दिवाली के मौके पर दिल्ली सर्वाधिक प्रदूषित होती रही है, लेकिन त्योहार मानने की अपनी उमंगों, उल्लासों पर भी गौर किया जाना चाहिए। पटाखों की बिक्री पर पाबंदी है, लेकिन फोड़ने पर नहीं। हास्यास्पद है कि प्रदूषण कैसे कम होगा, क्योंकि पटाखों की उपलब्धता तो करीब के शहरों में है? सवाल यह भी है कि जिन कारोबारियों ने पटाखे खरीदने में 500 करोड़ रुपए का निवेश कर दिया है, वे अब क्या करेंगे? आत्महत्या की कोशिशों की खबरें आने लगी हैं। यह फैसला दो-तीन माह पहले दिया जा सकता था। ऐसे ‘बंजर’ निवेशों से भी देश की अर्थव्यवस्था प्रभावित होती है। एक और तथ्य सामने आया है कि नए साल के मौके पर 199 देश पटाखे फोड़ते हैं। फिर दिवाली के मौके पर ही पाबंदी क्यों? बेशक यह प्रवृत्ति ‘संस्कृति विरोधी’ लगती है। यदि दिवाली पर पटाखे छीन लिए जाते हैं, तो होली के रंग भी बदरंग किए जा सकते हैं, दही-हांडी पर तो पाबंदियां थोपी जाती रही हैं, मूर्ति विसर्जन पर भी रोक के आदेश दिए जाते रहे हैं। आखिर इस देश का करीब 85 फीसदी समुदाय ‘हिंदू’ किन अंधेरों और रंगहीन माहौल में रहे? प्रदूषण सिर्फ दिल्ली में ही नहीं, अन्य महानगरों की भी समस्या है, तो फिर उनके संदर्भ में कोई फैसला या निर्देश क्यों नहीं दिया गया? क्योंकि इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री मोदी, उनके मंत्रीगण और पूरी व्यवस्था ‘व्यापार विरोधी’ लग रही है, क्या ऐसे संकेत सही हैं? कमोबेश भाजपा को जरूर चिंतन करना चाहिए।


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