शब्द वृत्ति

By: Oct 2nd, 2017 12:02 am

रावण लीला जारी है…

(डा. सत्येंद्र शर्मा, चिंबलहार, पालमपुर )

दस-दस तेरे शीश हैं और सहस्त्र सौ हाथ,

अगणित सेना असुर की, देती तेरा साथ।

एक काटते सौ बने, सौ के बने हजार,

प्रतिपल बढ़ता सौ गुना, तेरा अत्याचार।

सदियों से करते दहन, नहीं बनी कुछ बात,

गली-गली में फिर रहा, बिगड़ रहे हालात।

रावण लीला चल रही, भरे चौक में आज,

सीता को हर ले गया, नहीं उठी आवाज।

पग-पग पर, हर मोड़ पर, डिगता है ईमान,

हुआ लुप्त ईमान अब, फलता बेईमान।

अच्छाई पिटती रही, पड़ी धर्म को मार,

झूठे मौज मना रहे, सत्य गया अब हार।

सुरसा मुंह बाए खड़ी, कहां गए हनुमान,

रोडरेज पर कुचल कर, निकल रही है जान।

लीला सजती राम की, नृत्य चला अश्लील,

तेल बेचने चल पड़ा, ज्ञान, धर्म और शील।

कुटिया, आश्रम दे रहे, अब महलों को मात,

दुष्कर्मों के दुर्ग हैं, साधु-संत की जात।

नवदुर्गा में नित लिया, मां का आशीर्वाद,

वृद्धाश्रम में घुट रही, मां की रही न याद।


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