श्रीविश्वकर्मा पुराण

By: Oct 14th, 2017 12:05 am

इस प्रकार से दिन रात छोटे-बड़े तथा समान बनते हैं। इस प्रकार सूर्य मानसोत्तर पर्वत को छलांग कर मेरू की चारों तरफ परिक्रमा करते हुए अनुक्रम से पूर्वांहि दिशाओं में इंद्रादि लोकपालों की नगरियों में जाता है।  इसलिए सूर्य जिस नगरी में पूर्णता से प्रकाशता है और सिर के ऊपर आता है उस नगरी में मध्यान होता है तथा उसके सामने की दिशा की नगरी में मध्य रात्रि होती है…

यह भूमि अधिक सुहानी है कि उसके ऊपर रखी हुई वस्तु सरककर चाहे जहां चली जाती है और फिर उसके पाने में बहुत अधिक मुश्किल होती है, इसलिए इस भूमि के ऊपर कोई जीव या प्राणी रहता नहीं मात्र देवता ही उस भूमि पर क्रीड़ा करते हैं। यह लोकालोक पर्वत तीनों लोकों के पीछे है तथा यह इतना अधिक ऊंचा है कि सूर्य वगैरह आकाश में भ्रमण करते हुए उनका प्रकाश इस पर्वत के पीछे नहीं जा सकता, मात्र वह प्रकाश इस तरफ आए तीनों लोकों को प्रकाशित करता है। इस लोकालोक पर्वत के ऊपर चार दिग्गजें हैं, जो दिग्गज समस्त लोक को धारण किए हुए हैं। इस लोकालोेक के ऊपर भगवान स्वयं समस्त सृष्टि का रक्षक तथा विसर्जन करने के लिए स्थित हुए हैं। इस लोकालोक पर्वत के पीछे की तरफ अलोक प्रदेश है। उस अलोक प्रदेश के पीछे की तरफ अत्यंत प्रकाशमान तथा पूर्ण तेजस्वी श्री आदि नारायण का आत्मपद देने वाला स्थान है, जिस परमपद को योगी तथा सिद्ध अपने अनन्य योग बल के प्रभाव से ही प्राप्त कर सकते हैं। इस स्थान पर भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को लेकर आए थे। सूत जी बोले, हे ऋषियो! तुम्हारी जिज्ञासा वृत्ति को संतोष देने के लिए मैंने तुमको विद्वान के द्वारा कही हुई पृथ्वी का नाम बताया। इस सबको विद्वान भूगोल के नाम से जानते हैं अब विद्वानों का तय किया हुआ खगोल का नाम मैं तुमको बताता हूं, वह तुम ध्यानपूर्वक सुनो। विद्वान लोग इस तरह कहते हैं कि भूगोल तथा खगोल इन दोनों के बीच में उन दोनों को जोड़ता ऐसा अंतरिक्ष आया हुआ है, अंतरिक्ष में सभी तेजस्वी पदार्थों के अधिपति सूर्य नारायण अपनी ऊष्मा से तीनों लोकों को जीवन देता है। इस सूर्य की तीन गति हैं उत्तरायण में तेज नाम की मंद गति से वह भ्रमण करता है तथा दक्षिणायन नाम की शीघ्र गति से वह भ्रमण करता है, जबकि संधिकाल में वैपुवर्त नाम की समान गति से वो फिरता है।  इस प्रकार से दिन रात छोटे-बड़े तथा समान बनते हैं इस प्रकार सूर्य मानसोत्तर पर्वत को छलांग कर मेरू की चारों तरफ परिक्रमा करते हुए अनुक्रम से पूर्वांहि दिशाओं में इंद्रादि लोकपालों की नगरियों में जाता है।  इसलिए सूर्य जिस नगरी में पूर्णता से प्रकाशता है और सिर के ऊपर आता है उस नगरी में मध्यान होता है तथा उसके सामने की दिशा की नगरी में मध्य रात्रि होती है। उसके पीछे की नगरी में प्रातःकाल होता है इससे उसके पहले की नगरी में सायं काल होता है। इस प्रकार मेरू पर्वत की ऊपर की टोपी के ऊपर निवास करने वाले के लिए तो सदा काल दिवस ही होता है। सूर्य हमेशा नक्षत्रों के समान गति करके मेरू के दाहिनी तरफ जाता है। जब ज्योतिष चक्र की गति के कारण से सूर्य हमेशा मेरू की बाईं तरफ ही रहता है। आठ लोकपालों की नगरी में जाते साढ़े सात घड़ी लगते हैं, प्रत्येक नगरी एक दूसरी से चार करोड़ पचहत्तर लाख तथा पचास कोस दूर बसी  हुई है।


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