सुरंग ने खोली आंख

By: Oct 16th, 2017 12:02 am

पहाड़ की प्रगति को संबोधित करना आसान नहीं, फिर भी हिमाचल ने अपनी व्यथा से बाहर निकलने का हमेशा प्रयास किया है। ऐसे में जबकि रोहतांग सुरंग के दोनों छोरों से प्रगति को रोशनी मिल गई, तो अंदाजा लगाना आसान है कि इसके मायने कितने कबायली  घरों को रोशन करेंगे। लाहुल घाटी के लिए रोहतांग सुरंग ऐसी जीवन दायिनी है, जिसकी बदौलत जिंदगी को हर साल बारह माह मिल जाएंगे। यह विडंबना रही है कि बर्फाच्छादित पहाड़ की आर्थिकी में बाशिंदों को चंद महीने में खुद को साबित करना पड़ता है और इसलिए सुरंग के साथ आशाएं भी आंखें खोल रही हैं। यह सुरंग के जरिये ऐसे उजाले का संकेत है, जो दुनिया बदल देगा। करीब नौ किलोमीटर पहाड़ को खोदने में खर्च हुए 1860 करोड़ रुपए राष्ट्र की हिमाचल को मिली अब तक की सबसे बड़ी भेंट है। अब अगर राजनीति इसके अर्थ अपने लिए एकत्रित  कर ले या श्रेय लेने की कतार बन जाए, लेकिन इस उपलब्धि का पैगाम नहीं बदलता। पहाड़ का दर्द भी यही है कि राष्ट्रीय मानदंड यहां की खबर नहीं लेते या योजनाएं अपनी योग्यता-उपयोगिता के आधार पर पूरी नहीं होतीं, वरना मनाली-रेल मार्ग भी अब तक धरातल पर कुछ सफर कर चुका होता। भारत निर्माण की कसीदाकारी यूं तो हिमाचल को भी बुन लेती है, मगर पर्वत की लंबाई-चौड़ाई में कई परियोजनाएं अलाभकारी ठहरा दी जाती हैं। बहरहाल रोहतांग सुरंग बताती है कि ये दो छोर केवल इसलिए आपस में मिले, क्योंकि सदियों की बर्फ तोड़ने की इच्छाशक्ति के साथ अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने प्रीणी निवास से संकल्प लिया था। बेशक आज तक के तमाम प्रधानमंत्रियों व प्रदेश के मुख्यमंत्रियों ने परियोजना की जरूरतों को समझा, मगर यह अटल संकल्प की वजह से याद की जाएगी। इसी सुरंग के मार्फत लेह-लद्दाख तक का सफर राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान बन रहा है, तो इसके साथ रेलमार्ग की संभावना को भी यथाशीघ्र मूर्त रूप देने की आवश्यकता है। प्रदेश में रोहतांग की तर्ज पर होली-चामुंडा, बंगाना-धनेटा, भूभू जोत तथा अन्य सुरंग परियोजनाओं पर तेजी से अमल किया जाए, तो पर्वतीय वर्जनाओं पर काबू पाने का रास्ता अख्तियार होगा। लाहुल घाटी की तरह ही कई दुरूह इलाके इस आस में जी रहे हैं कि कभी वहां भी जीवन रोशनी से नहाएगा। विडंबना यह है कि हिमाचल की अपनी वित्तीय स्थिति इस हालत में नहीं है कि ऐसी परियोजनाओं का एक सिरा भी सही तरीके से छुआ जा सके। ऐसे में केंद्रीय योगदान को बदलते संदर्भों के अनुरूप उदार होना पड़ेगा। नीति आयोग से एक संभावना यह भी बनी थी कि जब राष्ट्र की नई पहचान के रास्ते विशाल होंगे, तो पर्वत की पगडंडियां भी चौड़ी हो जाएंगी। यह तभी संभव है अगर पर्वतीय अंचल को समझने के लिए स्वतंत्र एजेंसी या प्राधिकरण बने तथा सभी मंत्रालयों के बीच समन्वित आधार की खोज के लिए अलग से पर्वतीय विकास मंत्रालय की स्थापना की जाए। पर्वतीय तकनीक, नवाचार तथा वित्तीय मदद के पैमाने और सुदृढ़ नहीं होंगे, तो अंतरराष्ट्रीय सीमा की पहरेदारी में भारत का पहाड़ भी बौना लगने लगेगा। हिमाचल भी राष्ट्रीय हित में सरहद पर पहरेदारी देता है, अतः बर्फ पर दुश्मन की आंख का पीछा करने के लिए पर्वत की आंखें खोलनी पड़ेंगी और यह कार्य रोहतांग सुरंग सरीखा ही कठिन व खर्चीला होगा।


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