अग्निहोत्र यज्ञ का यथार्थ स्वरूप

By: Nov 4th, 2017 12:05 am

चतुर्थ मंत्र का अर्थः इस मंत्र का अर्थ भी उपयुक्त तृतीय मंत्र के तुल्य ही है। इतना विशेष है कि अग्निहोत्र और ईश्वर की उपासना करते हुए हम लोग सौ हेमंत ऋतु व्यतीत हो जाने पर्यंत अर्थात सौ वर्ष तक, (आरोग्य, आनंद वद्ध धनादि पदार्थों से वृद्धि को प्राप्त हों।

मंत्रः प्रातःप्रातर्गृहपतिर्नो अग्निः सायंसायं सौमनसस्य दाता। वसोर्वसोर्वसुदान एधींधानास्त्वा शतंहिमा ऋधेम।

स्वामी दयानंद जी आगे लिखते हैं कि अग्निहोत्र करने के लिए ताम्र व मिट्टी की वेदी बना के काष्ठ, चांदी व सोने का चमसा (चम्मच) अर्थात अग्नि में पदार्थ डालने का पात्र और आज्यस्थाली अर्थात घृतादि पदार्थ रखने का पात्र लें।  उस वेदी में ढाक या आम्र आदि वृक्षों की समिधा स्थापन करके अग्नि को प्रज्वलित करके घृत व यज्ञीय पदार्थों का प्रातःकाल और सायंकाल अथवा प्रातःकाल ही नित्य होम करें। इन चार वेद प्रमाणों का शब्दार्थ व  भाष्य करने के बाद ऋषि दयानंद ने दैनिक अग्निहोत्र के मंत्रों का भाष्य प्रस्तुत किया है।  प्रातःकाल की चार आहुतियों का भाष्य क्रमशः इस प्रकार है। प्रथमः जो चराचर जगत की आत्मा प्रकाश स्वरूप और सूर्यादि प्रकाशक लोकों का भी प्रकाश करने वाला है, उसकी प्रसन्नता के लिए हम लोग होम करते हैं और यह प्रथम आहुति देते हैं। सूर्य जो परमेश्वर है, वह हम लोगों को सब विद्याओं को देने वाला और हमसे उनका प्रचार कराने वाला है, उसी के अनुग्रह से हम लोग अग्निहोत्र करते हैं और यह दूसरी आहुति देते हैं। जो आप प्रकाशमान और जगत का प्रकाश करने वाला सूर्य अर्थात संसार का ईश्वर है, उसकी प्रसन्नता के अर्थ हम लोग होम करते हैं।  जो परमेश्वर सूर्यादि लोकों में व्याप्त, वायु और दिन के साथ संसार का परम हित कारक है, वह हम लोगों को विदित होकर हमारे किए हुए होम को ग्रहण करें। इस भावना से यह आहुति देते है। ऋषि लिखते हैं कि इन चारों आहुतियों से प्रातःकाल अग्निहोत्री लोग होम करते हैं। ऋषि ने सायंकाल के चार मंत्रों के भी अर्थ दिए हैं। प्रथम मंत्र का अर्थः अग्नि नामी जो ज्योतिस्वरूप परमेश्वर है उसकी आज्ञा से हम लोग परोपकार के लिए होम करते हैं और उसका रचा हुआ यह भौतिक अग्नि इसलिए है कि वह उन द्रव्यों को परमाणु रूप कर के वायु और वर्षा जल के साथ मिला के शुद्ध कर दें, जिससे सब संसार को सुख और आरोग्यता की वृद्धि हो। द्वितीय सांयकालीन मंत्र का अर्थः अग्नि परमेश्वर वर्च अर्थात सब विद्याओं का देने वाला और भौतिक अग्नि आरोग्यता और बुद्धि का बढ़ाने वाला है। इसलिए हम लोग होम से परमेश्वर की प्रार्थना करते हैं। यह दूसरी आहुति है। तृतीय मंत्रार्थः तीसरी आहुति मौन होकर प्रथम मंत्र से ही की जाती है। अतः इसका अर्थ वही है जो प्रथम मंत्र का है। चतुर्थ आहुति मंत्रार्थः जो अग्नि परमेश्वर सूर्यादि लोकों में व्याप्त वायु और रात्रि के साथ संसार का परमहित कारक है, वह हमको विदित प्रसन्न होकर हमारे किए हुए होम का ग्रहण करे। इसके बाद पूर्णाहुति से पूर्व पांच मंत्रों का विधान किया है। इनके अर्थों के विषय में ऋषि लिखते हैं कि भूः इत्यादि जो नाम हैं वह सब ईश्वर के जानने चाहिए। उनके द्वारा गायत्री मंत्र के अर्थ में इनके अर्थ किए गए हैं जिन्हें वहां देखा जा सकता है। यहां एक महत्त्वपूर्ण निर्देश करते हुए ऋषि ने लिखा है कि इस प्रकार प्रातःकाल और सायं काल संध्योपासन के पीछे उक्त मंत्रों से होम करके अधिक होम करने की इच्छा हो तो, ‘स्वाहा’ शब्द अंत में पढ़ कर गायत्री मंत्र से करें।


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