फिर सतह पर सिनेमाई आजादी का प्रश्न

By: Nov 20th, 2017 12:08 am

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

हर फिल्म को सेंसर बोर्ड से प्रमाण पत्र लेना होता है, जबकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संविधान की ओर से गारंटी दी गई है। ऐसे में यह सभी तरह के मीडिया व विधियों में अपेक्षित होती है। सेंसर बोर्ड से प्रमाण पत्र लेने की अनिवार्यता स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करती है। फिल्म निर्माताओं ने इसे क्यों कभी भी मुद्दा नहीं बनाया, यह मेरी समझ से परे है। ऐसा करना अब भी देर से करना नहीं होगा। संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती को लेकर चल रहा विवाद इस मसले को फिर जीवित कर रहा है…

कई संघर्षों के बाद प्रेस अपनी स्वतंत्रता को मजबूत बनाने में सफल रही है। आज प्रेस आम तौर पर सरकारी दबाव से मुक्त है। हालांकि अभी भी कई ऐसी ताकतें हैं, जो इसे पूरी तरह आजाद होने की इजाजत नहीं देतीं। फिर भी विश्व के सभी लोकतांत्रिक देशों में से भारतीय प्रेस को स्वतंत्र माना जाता है। काफी हद तक इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ऐसे संपदा मालिकों की दया पर निर्भर है, जो प्रापर्टी डीलिंग से पैसा कमाते हैं तथा एक अथवा दो चैनल के संचालन पर इसे खर्च करते हैं। इस तरह की बात प्रिंट मीडिया के बारे में निश्चित रूप से नहीं कही जा सकती।

जब फिल्मों की बात करते हैं, तो सरकार का दबाव कठोर व देखने योग्य होता है। हर फिल्म को सेंसर बोर्ड से प्रमाण पत्र लेना होता है, जबकि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की संविधान की ओर से गारंटी दी गई है। ऐसे में यह सभी तरह के मीडिया व विधियों में अपेक्षित होती है। सेंसर बोर्ड से प्रमाण पत्र लेने की अनिवार्यता स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करती है। फिल्म निर्माताओं ने इसे क्यों कभी भी मुद्दा नहीं बनाया, यह मेरी समझ से परे है। ऐसा करना अब भी देर से करना नहीं होगा। संजय लीला भंसाली की फिल्म पद्मावती को लेकर चल रहा विवाद इस मसले को फिर जीवित कर रहा है। फिल्म निर्देशक भंसाली ने परिणाम भुगतने को तरजीह दी है। उन पर राजस्थान में हमला हुआ, जहां वह फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। फिर भी वह बंदूकों के निशाने पर हैं। राजस्थान में करणी सेना के नेतृत्व में संगठित कट्टर हिंदुओं ने राज्य के एक कस्बे में सिनेमा हाल में फर्नीचर तोड़ दिया तथा इसे आग के हवाले कर दिया।

इस मसले पर अधिकतर उदारवादी लोगों की चुप्पी से संदेह पैदा हो रहे हैं। भंसाली ऐसी स्थिति में अकेले महसूस कर रहे होंगे। मसले का केंद्र बिंदु यह नहीं है कि यह फिल्म कल्पना पर आधारित है अथवा तथ्यों पर। भंसाली को यकीन है कि वह इसे प्रदर्शित करेंगे ही करेंगे। उनकी इस दृढ़ता के लिए उन्हें पूरे अंक दिए जाने चाहिए। बड़ी मात्रा में धन के दांव पर लगे होने के कारण कई फिल्म निर्देशक उनकी मिसाल का अनुकरण नहीं करेंगे। फाइनेंसर पैसा लगाने से हिचकिचाएंगे। वे फिल्म से होने वाली कमाई के प्रति रुचि रखते हैं। भंसाली ने जो आदर्श स्थापित किया है, उसके प्रति उनकी कोई रुचि नहीं होती है। इस समय एक अच्छी फिल्म अंध-राष्ट्रीयता की शिकार हो गई है। इस विवाद का सबसे बुरा पक्ष यह है कि मसले का पूरी तरह राजनीतिकरण हो गया है। सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी भंसाली विरोधी तत्त्वों का समर्थन कर रही है। उनके लिए यह फिल्म हिंदुत्व पर हमला है तथा इसे प्रदर्शित होने से रोका जाना चाहिए।

भंसाली की व्याख्या हिंदू विरोधी समूह के नेता के रूप में हो रही है। यह व्याख्या करने वाला कोई नहीं है कि वह क्यों इस फिल्म के कारण हिंदू विरोधी माने जाएं तथा क्यों उन्हें गौरवान्वित हिंदू समझा जाए, अगर वह पद्मावती के निर्माण व प्रदर्शन के प्रयास को छोड़ दें। यह हैरान करने वाली बात है कि भाजपा का सर्वोच्च नेतृत्व इस मसले पर चुप है। कानून को तोड़कर अव्यवस्था फैलाने वालों पर वह न सख्ती से निपट रहा है और न ही उन पर कोई कार्रवाई कर रहा है। यह समझा जाना चाहिए कि अगर इस तरह की गतिविधियों को प्रोत्साहन मिलता रहा तो व्यापार को आसान बनाने का अभियान इससे बुरी तरह प्रभावित होगा। इसके कारण भारत में निवेश को भी धक्का लगेगा।

कई वर्षों पहले प्रख्यात फिल्म निर्माता व निर्देशक गुलजार को भी इस तरह की स्थिति का सामना करना पड़ा था। उनकी फिल्म आंधी को प्रदर्शन से पहले ही प्रतिबंधित कर दिया गया था। हालांकि इससे उन लोगों को एक संदेश मिल गया, जो कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के तानाशाही शासन के खिलाफ थे। संभवतः तीसरी शक्ति, जो न तो सांप्रदायिक है और न ही तानाशाह, ही इन स्थितियों जवाब है। यह अभी क्षितिज में भी नहीं है। इस तरह के उठ रहे प्रश्नों के लिए संभवतः बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार एक जवाब हैं। परंतु, अगर उन्होंने बिहार छोड़ दिया होता, तो इससे खाली हुए स्थान पर लालू प्रसाद यादव व उनके परिवार का कब्जा हो गया होता, जो कि एक बेहतर विकल्प नहीं है। केंद्र में एक के बाद एक आती रही सरकारें कुछ कारणों से प्रेस अथवा मीडिया आयोग के गठन की मांग को नामंजूर करती रही हैं। स्वतंत्रता के बाद अब तक केवल दो ही प्रेस कमीशन लागू हुए हैं। पहले का गठन स्वतंत्रता के तत्काल बाद किया गया था, जबकि दूसरे का गठन 1977 में आपातकाल लागू होने के बाद किया गया था। दूसरे आयोग की सिफारिशों को तो स्वीकार ही नहीं किया गया, क्योंकि जब तक इसकी रिपोर्ट आई, तब तक इंदिरा गांधी वापस सत्ता में आ चुकी थीं। उनके द्वारा की गई ज्यादतियों के कारण उन पर कोई कार्रवाई नहीं हो पाई तथा वह अपने विरोधियों से सख्ती से निपटती गईं। सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू अखबारों, टीवी चैनलों व रेडियो का एक ही समूह अथवा व्यक्ति द्वारा मालिकाना हक है। यहां तक कि अमरीका में भी क्रॉस ओनरशिप पर किसी न किसी प्रकार का नियंत्रण है। लेकिन भारत में इस तरह का प्रावधान नहीं है और मीडिया का संचालन एक फैक्टरी की तरह हो रहा है।

यह सच है कि भारतीय मीडिया ने एक लंबा रास्ता तय किया है। अभी तक भी भारतीय प्रेस परिषद की वर्तमान वार्षिक रिपोर्ट असहाय होकर मांग कर रही है कि टीवी चैनल इसकी देखरेख के दायरे में लाए जाने चाहिएं। शासन पर बैठे लोगों ने तो उसके प्रति कान बंद किए हुए हैं। प्रेस परिषद की मांग रही है कि मीडिया में प्रवेश करने वाले लोगों के लिए कोई न्यूनतम शैक्षणिक योग्यता तय की जानी चाहिए। उसके अनुसार चूंकि मीडिया लोगों के जीवन को काफी हद तक प्रभावित करता है, इसलिए वक्त का तकाजा है कि न्यूनतम योग्यता तय की जाए। मैं इस बात से सहमत नहीं हूं कि कोई रिमोट कंट्रोल होना चाहिए। मैं एक व्यवस्थित समाज में नियंत्रित प्रेस की बजाय एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में अनियंत्रित पे्रस की पैरवी करूंगा। निर्वाचित जन प्रतिनिधियों द्वारा चल रही राजनीतिक व्यवस्था भीड़ द्वारा किए जा रहे शासन की तरह लग रही है। इससे बेहतर तो अनुशासित कुलीन तांत्रिक शासन होगा।

ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com


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