माहिल की किताब में स्वच्छ समाज की कामना

By: Nov 26th, 2017 12:05 am

पुस्तक समीक्षा

पुस्तक का नाम : स्वच्छ समाज की कामना

लेखक का नाम : प्रेमचंद माहिल

मूल्य : निशुल्क

कुल पेज : 148

कुल प्रश्न : 117

हमीरपुर के सेवानिवृत्त प्रवक्ता प्रेम चंद माहिल ‘स्वच्छ समाज की कामना’ नामक पुस्तक का दूसरा संस्करण लेकर आए हैं। किताब की विशेषता यह है कि इसे निशुल्क रखा गया है। कोई भी व्यक्ति मोबाइल नंबर 94184-05859 पर फोन करके इस पुस्तक को निशुल्क प्राप्त कर सकता है। इस पुस्तक में सामाजिक कुरीतियों पर चोट करते हुए कुछ नए सुझाव दिए गए हैं। इस पुस्तक के पहले व दूसरे संस्करण में कुल 4000 प्रतियां अथवा किताबें छापी गई हैं। निशुल्क पुस्तक मंगवाने के लिए डाक व्यय भी स्वयं लेखक वहन करेंगे। यह किताब जिला हमीरपुर, बिलासपुर, ऊना तथा तहसील सरकाघाट व पालमपुर के अधिकतर स्कूलों के पुस्तकालयों में उपलब्ध है। हर दो साल बाद लेखक किताब का नया संस्करण निकालते हैं और तीसरा संस्करण आने ही वाला है। पुस्तक का विषय सामाजिक है। हमारे समाज की कुछ ऐसी कुरीतियां हैं जो आज भी अनवरत चल रही हैं। इन्हें रोकने की जरूरत है। इन्हीं कुरीतियों पर किताब के माध्यम से चोट की गई है। किताब में अध्याय नहीं हैं, बल्कि 117 प्रश्न उठाते हुए इनके समाधान सुझाए गए हैं। किताब की विशेषता यह है कि इसमें गद्य रूप में वाक्य लिखते हुए पद्य रूप में तुक्कबंदी करते हुए वाक्य पूरे किए गए हैं। मिसाल के तौर पर लेखक ने श्री राम से जुड़े एक सवाल को उठाते हुए लिखा है कि सतयुग में दशरथ का बेटा राम आया था, जिसने पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए अपने परिवार को चौदह साल तक जंगलों में दौड़ाया था। पूरी किताब में इस तरह की तुक्कबंदी की गई है जो काफी नवीन तरीका है और रोचक भी लगता है। किताब में कुरीतियों को उठाते हुए उनके शमन के लिए सुझाव भी दिए गए हैं और साथ ही नई परंपराएं शुरू करने का आह्वान किया गया है। लेखक का मानना है कि वह समाज के नियमों के समर्थक हैं, किंतु उनमें समय व आवश्यकता के अनुसार बदलाव होने चाहिएं। समाज में भाईचारा खत्म होने तथा राजनीति में भ्रष्टाचार के कारण लेखक व्यथित हैं। लेखक का मत है कि राम राज्य मात्र अब संकल्पना में ही रह गया है। समाज में सामाजिकता की भावना कैसे आएगी, इस संबंध में लेखक ने बहुमूल्य सुझाव दिए हैं। लेखक का मानना है कि महिलाओं को मजबूत बनाने की जरूरत है और इसके लिए उन्हें उनकी शक्ति से अवगत करवाया जाना चाहिए। राजनीति में परिवारवाद खत्म होना चाहिए तथा सामाजिक कुरीतियों के शमन के लिए युवाओं को आगे आना चाहिए। लेखक का सवाल है कि जब समाज में कन्यादान शब्द प्रचलित हो तो लड़कादान क्यों नहीं। लड़की के जन्म पर होने वाले रुदन का भी लेखक ने गंभीर नोटिस लिया है। लेखक की सोच है कि लड़के के जन्मदिन के साथ ही लड़कियों का जन्मदिन भी मनाया जाना चाहिए। लेखक स्वयंवर को फिर जीवित करने तथा अंतरजातीय विवाह को अधिमान देने की वकालत करते हैं। शादियों के समय पर वर पक्ष वालों के यहां वधु पक्ष वालों द्वारा शराब के सेवन को लेखक उचित नहीं मानते हैं। उनका मानना है कि ऐसे समारोहों में शराब का सेवन तो होना ही नहीं चाहिए। बारात में बारातियों की संख्या बहुत कम होनी चाहिए तथा जयमाला के समय दान लेने की परंपरा पर रोक लगनी चाहिए। लेखक कहते हैं कि पहले कन्यादान करने वाले लड़के के घर में पानी तक नहीं पीते थे, लेकिन अब तो कई लोग शराब तक गटक जाते हैं। इस तरह लेखक प्राचीन परंपराओं का विरोध ही नहीं करते, बल्कि अच्छी परंपराओं को फिर से जीवित करने की वकालत करते हैं। लेखक का सुझाव है कि युवाओं को जीवन-साथी के चयन के समय निर्धारित सीमाओं से आगे नहीं जाना चाहिए। वह लड़का तथा लड़की, दोनों में संस्कारों की वकालत करते हैं। कपाल-मोचन संस्कार के समय अंतिम विदाई सिर में डंडा घसोड़ करके करना भी तर्कसंगत नहीं है। अस्थियों को गंगा में ले जाकर प्रवाहित करने के बजाय उन्हें खेतों में बिखेर देना चाहिए। इसी तरह किताब में कई अन्य प्रश्न भी उठाए गए हैं।

 


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