मृत्यु होने पर वैर भी समाप्त हो जाता है
यह कहावत शत-प्रतिशत सत्य है कि यदि किसी देश को नष्ट करना हो, तो उसकी संस्कृति को नष्ट कर दो, देश स्वयं नष्ट हो जाएगा। भारतवर्ष में जब तक वैदिक संस्कृति आचरण में रही तो पिछले युगों में यह देश पूरी पृथ्वी पर राज्य करता था, सुख संपदा, शांति आदि अनंत गुणों से भरपूर था। गरीबी नहीं थी…
देश की संस्कृति ही देश के सुंदर भविष्य का निर्माण करती है। स्वनिर्मित संस्कृति और परमेश्वर द्वारा दान दी हुई संस्कृति का अंतर पाटा नहीं जा सकता। स्वनिर्मित संस्कृति को हम रीति-रिवाज भी कह सकते हैं, जो काल के प्रभाव से एक दिन नष्ट हो जाता है। परंतु ईश्वर द्वारा मनुष्य को दी हुई जो वैदिक संस्कृति है, वह सुखदायक, अनादि, अनंत और अविनाशी है। स्वनिर्मित अर्थात मनुष्य द्वारा बनाई संस्कृति जहां इंद्रियों का सुख और आपस में बैठकर सुख-दुख की बातें करके मन को हल्का कर देती हैं, वहां ईश्वर निर्मित वैदिक संस्कृति सुख-संपदा, दुखों का नाश करती हुई परम-सुख अर्थात मोक्ष पद को भी प्राप्त करा देती है। भिन्न-भिन्न देशों, प्रदेशों आदि की संस्कृति प्रायः भिन्न-भिन्न होती है, परंतु ईश्वर से उत्पन्न वैदिक संस्कृति संपूर्ण विश्व के लिए निष्पक्ष बनी एक समान सब पर लागू होती है। आज मनुष्य और विशेषकर हमारा देश भारतवर्ष इस वैदिक संस्कृति को भूलकर दुखी है। यह कहावत शत-प्रतिशत सत्य है कि यदि किसी देश को नष्ट करना हो, तो उसकी संस्कृति को नष्ट कर दो, देश स्वयं नष्ट हो जाएगा। भारतवर्ष में जब तक वैदिक संस्कृति आचरण में रही तो पिछले युगों में यह देश पूरी पृथ्वी पर राज्य करता था, सुख संपदा, शांति आदि अनंत गुणों से भरपूर था। गरीबी नहीं थी। इस संस्कृति का कुछ उदाहरण देखें।
ऋग्वेद मंत्र 1/148/4 में मनुष्य को निर्देश है कि जो मनुष्यों के बीच दुष्ट शिक्षा देते हैं अथवा दुष्टों को सिखाते हैं, ऐसे दुष्ट मनुष्यों का त्याग कर दो और जो सत्य शिक्षा देते हैं और जीवन में सत्य व्यवहार करते हैं, वे विद्वान स्वीकार करने योग्य हों। ऋग्वेद मंत्र 1/141/9 में निर्देश है कि जैसे ईश्वर न्यायकारी और अनंत विद्याओं का ज्ञाता है, वैसे मनुष्य विद्वानों के संग से बुद्धिमान, न्यायकारी और पूर्ण विद्या प्राप्त करने वाला हो। ऋग्वेद मंत्र 1/141/ 10 में उपदेश है कि जो अधर्म को छोड़ धर्म का अनुष्ठान करते हैं, केवल वे ही रमणीय, आनंद को प्राप्त करते हैं। आज वैदिक संस्कृति का प्रचलन समाप्त प्रायः सा है। अतःऊपर ईश्वर द्वारा दिए हुए निर्देशों का, आज मनुष्य पालन न करके अत्यंत दुःखी है। पुनःअथर्ववेद मंत्र 6/37/1,2 का भावार्थ निहारेंः जैसे भेडि़या भेड़ को समाप्त कर देता है उसी प्रकार गाली-गलौज, श्राप आदि देने वाले को ये गालियां और श्राप समाप्त कर देते हैं। श्राप देने वाले को श्राप ही नष्ट कर देता है। इसी प्रकार प्रत्येक विषय पर वैदिक संस्कृति उपदेशों एवं निर्देशों से ओत-प्रोत है परंतु आज हम भारतीय भौतिकवाद की चमक-दमक एवं राजनीति में कुर्सी को हथियाने के हथकंडे जुटाने में जो रात-दिन लगे रहते हैं तो फलस्वरूप हम इस अद्भुत सुखदायी वैदिक संस्कृति को भुलाकर महान दुःखों के समुद्र में डूबकर गोते खा रहे हैं, महादुःखी हैं। – क्रमशः
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