संवेदना के प्रहरी कहानीकार : सुशील फुल्ल

By: Nov 12th, 2017 12:05 am

लेखक के संदर्भ में किताब

हिमाचल का लेखक जगत अपने साहित्यिक परिवेश में जो जोड़ चुका है, उससे आगे निकलती जुस्तजू को समझने की कोशिश। समाज को बुनती इच्छाएं और टूटती सीमाओं के बंधन से मुक्त होती अभिव्यक्ति को समझने की कोशिश। जब शब्द दरगाह के मानिंद नजर आते हैं, तो किताब के दर्पण में लेखक से रू-ब-रू होने की इबादत की तरह, इस सीरीज को स्वीकार करें…

दिहि : क्या साहित्य को अपने भीतर खोज पाए। भीतर और बाहर के बीच अभिव्यक्ति की मर्यादा है क्या?

डा. फुल्ल : पारिस्थितिक द्वंद्व की उथल-पुथल साहित्यकार को भी प्रभावित करती है और आहत भावनाओं की संवेदनशील अभिव्यक्ति अंततः साहित्य के रूप में प्रस्फुटित होती है। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहती है। यह मंथन भी है। बाहर-भीतर के संघर्ष का अंतर्द्वंद्व भी है। साहित्य सृजन के लिए कोई फार्मूला निर्धारित नहीं है। इसे सांचे-खांचे में भर कर नहीं बनाया जा सकता। हर व्यक्ति अपने ढंग से सोचता एवं विरोध-प्रतिरोध को अभिव्यक्त करता है। साहित्य किसी तापस की तरह अनंत साधना का नाम है। यह साधना सदाशयता एवं मंगल कामना से प्रेरित होती है। लेखक उच्छृंखल नहीं हो सकता, भले ही उसे लगे कि स्थितियों को उघाड़ने का उसे पूरा अधिकार है। अभिव्यक्ति में मर्यादा लेखन को उदात्त बनाती है।

दिहि : लेखन के लिए उत्तेजना कितनी जरूरी?

डा. फुल्ल : लेखन के लिए प्रेरणा का स्रोत सामयिक भी हो सकता है या फिर मन की गहराइयों में निरंतर चल रहा चिंतन भी। तात्कालिक लेखन पत्रकारिता में अधिक कारगर होता है, साहित्यिक सृजन में उतना नहीं। मात्र उत्तेजना के आधार पर कोई रचना गढ़ देना ज्यादा उपयोगी नहीं हो सकता। उत्तेजना की अपेक्षा संवेदना होना परमावश्यक है। उसी से रचना समाज का हित संपादन करने वाली बनेगी। वैसे भी साहित्य कोई तुरंत परिवर्तन करने में सक्षम नहीं होता। इतना अवश्य है कि धीरे-धीरे पता नहीं कब और कहां कोई पाठक प्रभावित हो जाता है। साहित्य के माध्यम से क्रांति धीरे-धीरे, परंतु दीर्घकालिक होती है।

दिहि : कितना अंतर है किसी रचना के छपने या उसके सही मूल्यांकन होने में?

डा. फुल्ल : आज रचना का छपना कोई कठिन काम नहीं है। पैसे के जोर से सब कुछ छप रहा है। बड़े-बड़े प्रकाशक भी आज धन राशि लेकर पुस्तकें छाप रहे हैं…15-20 वर्ष पहले तक ऐसा नहीं होता था। पहले लेखक पत्र-पत्रिकाओं में अपनी रचनाएं छपवाते थे। संपादक ईमानदार थे। रचना पढ़ कर अपनी टिप्पणी देते थे। स्वीकार-अस्वीकार होता था। संपादक आज भी ईमानदार हैं, परंतु अब रचनाएं पढ़ते कम हैं…बस छाप देते हैं या फेंक देते हैं। ईमेल से आई रचना तुरंत छप जाती है। सही मूल्यांकन का समय होता ही नहीं।

दिहि : अभिव्यक्ति का किताब बन जाना कितना सार्थक, कितना कठिन हो सकता है। कोई खास अनुभव?

डा. फुल्ल : कब कोई अभिव्यक्ति किताब बन जाए, नहीं कहा जा सकता। व्यक्तिगत संदर्भों में कहना चाहूं तो मेरी एक कहानी ‘बाहर का आदमी’ जयपुर से प्रकाशित होने वाली पत्रिका में सन् 1978 में छपी। यह क्षेत्रीय भावना पर प्रहार था…रिजनेलिज्म ने पूरे देश को डस लिया है। हम बात राष्ट्रवाद की करते हैं और बिहारियों को मुंबई से बाहर फेंक देना चाहते हैं। उक्त कहानी बाद में ‘मिट्टी की गंध’ उपन्यास के रूप में प्रकट हुई। ‘हारे हुए लोग’ उपन्यास में भी यही थीम बार-बार प्रकट होती है। जो स्वतः अनुभूत होता है, उसका गहन प्रभाव वैचारिकता पर पड़ना स्वाभाविक होता है। तो पता ही नहीं चलता कब कोई अभिव्यक्ति पुस्तक के रूप में व्यापक रूप धारण कर लेती है। मेरी एक अन्य कहानी ‘खड़कन्नू’ है, जो जर्मन अंगोरा खरगोश पालकों की समस्या पर आधारित है। इसमें जो यथार्थपरक अभिव्यक्ति थी, वही ‘खुलती हुई पांख’ उपन्यास के रूप में किताब बन गई। कहानी किताब बन जाए, तो इसमें कठिनाई तो बिलकुल नहीं होती, बल्कि यह अभिव्यक्ति की सार्थकता सिद्ध करती है।

दिहि : अमूमन आपको किसी कहानी का आमंत्रण कैसे मिलता है और विषय का रंगमंच कैसे सज जाता है?

डा. फुल्ल : कोई भी रचना मेरे लिए आहत भावनाओं की संवेदनशील, सहानुभूतिपूर्ण अभिव्यक्ति होती है। समकालीन भारतीय साहित्य के 2013 के अंक में प्रकाशित मेरी कहानी ‘मुक्तिद्वार’ की प्रेरणा मेरे एक प्रिय छात्र एवं सफल वैज्ञानिक की आत्महत्या से उद्भूत हुई। सब कुछ होते हुए भी कोई व्यक्ति जीवन से भागता है और अपने को मुक्त करवाना चाहिए…यह कैसी विडंबना है…फिर उसकी पृष्ठभूमि, संपन्नता, मानसिकता, तात्कालिक कारण सब अपने आप जुड़ गए…और एक ही बैठक में कहानी बन गई…एकदम संश्लिष्ट…घटना से घटना, संवाद से संवाद जुड़ता चला गया। ‘जलजला’ कहानी पालमपुर के वीर योद्धा के माता-पिता के दुख की कहानी है…बेटा शहीद हो गया कारगिल युद्ध में…मां-बाप तिल-तिल बेटे की पीड़ा ही महसूस कर मरते हैं…यह आमंत्रण था कहानी का…लेखक की तड़प उस मानवीय बर्बरता से टकराई और कहानी बन गई। ‘होरी की वापसी’ का भी कुछ ऐसा ही रहा…कहानी बन जाती है, कंट्राइव नहीं करनी पड़ती। विषय का रंगमंच स्वयं सज जाता है…अनुभूति की तीव्रता एवं तीक्ष्णता के अनुसार।

दिहि : आपके संदर्भों में मेमना क्यों बार-बार प्रकट होता है?

डा. फुल्ल : मेरी कहानियों में ‘मेमना’ इसलिए जाने-अनजाने प्रकट होता है क्योंकि इसका आर्तनाद मेरे मन-मस्तिष्क से चिपका हुआ है। भारत-पाक विभाजन के समय सन् 1947 में मैं छह-सात वर्ष का था। पाकिस्तान (वार) से आए लोग गांव में फावड़े से या दराटी से बकरे काटते, मेमने काटते…टपकता हुआ लहू और मेमने का आर्तनाद मन में चिपक गया। आज भी वह मेरे कान में गूंजता है। सन् 1970 में मैं अपने पीएचडी के शोध कार्य के लिए काशी नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी के गेस्ट हाउस में एक महीने के लिए रुका। पहले ही दिन एक चिडि़या पंखे से टकराकर फड़फड़ाती हुई चारपाई पर आ गिरी…लहूलुहान चिडि़या का बिंब भी मेरी कहानियों में प्रायः आ धमकता है। ‘दंडकीला’ कहानी में भी है।

दिहि : आपकी कहानियों की समय सीमा रेखा पहले से तय रहती है या कालखंड को परिभाषित का सूत्रपात हो पाता है?

डा. फुल्ल : मेरी कहानियों की समय सीमा रेखा पहले से बिलकुल तय नहीं होती। मन में जो घात-प्रतिघात से बवंडर उठते हैं, वे ही व्यवस्थित होकर कहानी बन जाते हैं। कभी किसी काल खंड को सोचकर कोई कहानी या उपन्यास नहीं लिखा-परिवेश ही पात्रों की गति-नियति तय करता है।

दिहि : कोई चरित्र जो हर कहानी में घुसपैठ करता है या हर समय आपके विचारों में दस्तक देता है?

डा. फुल्ल : चरित्रों के विषय में इस प्रकार कभी सोचा नहीं…कोई विश्लेषण भी नहीं किया। वस्तुतः यह काम पाठकों एवं आलोचकों का है। मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं कि हिमाचल में मेरी कहानियों का पठन-पाठन या मूल्यांकन बहुत कम हुआ है। दरअसल यहां प्रदेश के लेखकों की रचनाएं पढ़ने का रिवाज ही नहीं है। इस संदर्भ में हिमाचल प्रदेश विश्वविद्यालय, शिमला तथा केंद्रीय विश्वविद्यालय धर्मशाला के हिंदी विभागों से अपेक्षा रहती है और अपेक्षा अभी बरकरार है। बहुत से चरित्र हैं जो बार-बार मेरी कहानियों-उपन्यासों में आते हैं। उनमें से अधिकांश मेरे जाने-पहचाने हैं। ‘कहीं कुछ और’ उपन्यास, जो 1978 में छपा, उसका एक नारी पात्र तृष्णा जब भी कौंध में आता है, गुदगुदा जाता है। पालमपुर के बहुत से पात्र मेरे सामने साकार हो उठते हैं। ‘सांप’ कहानी का दहाड़ता नायक दैत्याकार आ खड़ा होता है। ‘फिरौती’ कहानी का कम्प्यूटर ब्वाय भी।

दिहि : कहानी अगर छत है तो समाज की शरण में अभिव्यक्ति का दर्द?

डा. फुल्ल : किसी भी कहानी का जान-प्राण लेखक की अभिव्यक्ति ही होती है, जिसमें कथा के रूप में समाज का अंतर्निहित दर्द होता है। किसी हंसते हुए राजनेता पर कहानी लिखनी हो, तो उसकी परतों में जाना पड़ेगा…बाहर लाफ्टर दिखाने वाला व्यक्ति अंदर ही अंदर आहत या घायल व्यक्ति भी हो सकता है। कहानी की आज तक अनेक परिभाषाएं हुई हैं, लेकिन जिस कहानी में समाज का दर्द…अंतरपीड़ा चित्रित नहीं है, वह कालजयी हो ही नहीं पाती… भले ही आलोचक अपना सिर पटक लें। समाज की वेदना, अव्यक्त चेतना को पकड़ना और उसे प्रभविष्णुता के साथ संप्रेषित करना कहानीकार का धर्म है। ‘बांबी’ कहानी में मैंने पीएचडी करने वाले छात्रों के दर्द को व्यक्त किया है। पीएचडी करवाने वाले गाइड उनका शोषण करते हैं, यह सब जानते हैं, परंतु जब कहानी में आ जाता है तो बात कुछ और बन जाती है।

दिहि : सृजन के क्षितिज पर कहानी का लौटना या इंद्रधनुष बनने के लिए बादलों को समेटना कितना सहज है?

डा. फुल्ल : कहानी की बनावट और बुनावट एक क्लिष्ट प्रक्रिया है। सृजन का क्षितिज पर लौटना या इंद्रधनुष बनने के लिए बादलों को समेटना सहज प्रक्रिया तो नहीं हो सकती। इसके लिए संयोजन-प्रयोजन की स्पष्टता आवश्यक है और फिर कांगड़ा कलम की बारीकी या बाजीगरी से ही कोई रचना सार्थक कहानी बन सकती है, जो शिल्प एवं कथ्य दोनों पक्षों से सुदृढ़ हो। परवर्ती सहज कहानी आंदोलन का प्रवर्तन करते हुए सन् 1976 में मैंने और मेरे साथी अन्य तीन संपादकों ने यह परिभाषा दी थी… सहज कहानी ऐसी रचना होती है, जिसका कलात्मक सौष्ठव वैसा ही होता है, जैसा मानव शरीर की धमनियों में प्रवाहित रक्त कलात्मकता से प्रवाहित होता है। कहानी को सांचे-खांचे में नहीं ढाला जा सकता… जैसे चाकलेट बनाई जाती है। यह समांतर कहानी के विरोध में पहाड़ से उपजा आंदोलन था, क्योंकि कमलेश्वर के आंदोलन की कहानियां मेड टू आर्डर बनने लगी थीं।

दिहि :  क्या सृजन समाज की रुचि बदलने का मादा रखता है या जो परोसा जा रहा है, एक तरह का बाजार बन गया है?

डा. फुल्ल : सृजन निश्चित रूप से समाज की रुचि बदलने में सक्षम है, परंतु जब यह बाजारवाद से संचालित होता है, तो बिलकुल नहीं। बाजार या व्यापारी या कहें प्रकाशक आज कूड़ा बेचकर करोड़ों बनाने में विश्वास रखते हैं। ऐसी स्थिति में वही लिखा जा रहा है अधिकतर, जो प्रकाशक चाहते हैं, जो वे बेच सकते हैं। यह साहित्य बाजारी औरत की तरह बिक रहा है… लेकिन रुचि बदलने का काम तो सृजनात्मक साहित्य ही कर सकता है। सृजनात्मक साहित्य का आजकल बाजार में सूखा है। समाचारपत्रों / पत्रिकाओं के साहित्यिक पृष्ठ लगभग गायब हो गए हैं… ऐसी स्थिति में सब पत्र-पत्रिकाएं अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना राग अलापती हैं। समाचारपत्रों के परिशिष्टों में हेरिटेज साहित्य बार-बार छपता है… कुछ पारिश्रमिक देना नहीं पड़ता।

दिहि : युवा पाठकों के प्रति साहित्यकार के सरोकार क्यों नहीं तय होते, जबकि लेखन के बदलते विषय के समीप यह वर्ग अपने लायक सामग्री ढूंढ रहा है?

डा. फुल्ल : युवा पाठकों के प्रति साहित्यकार उदासीन है, इसमें कोई संशय नहीं। वास्तव में यहां लेखक नहीं, प्रकाशक तय करते हैं कि क्या लिखा जाए, क्या परोसा जाए। शहीद भगत सिंह के जीवन पर एक किशोरोपयोगी उपन्यास मैंने सन् 1980 में लिखा, जो धारावाहिक के रूप में बाल भारती में सन् 1980 में ही प्रकाशित हो गया, लेकिन पुस्तक रूप में यह सन् 2012 में नेशनल बुक ट्रस्ट से छप सका। इतना लंबा इंतजार लेखक को करना पड़े… तो दोष किसका? किसकी चिंता करे लेखक… लेखन की… या युवा पाठक की।

दिहि : पाठक को संजोने के लिए सृजन का खुलापन अगर एक संभावना है, तो खोने के लिए दोष कहां है?

डा. फुल्ल : सृजन का खुलापन सीमाओं में ही उपयुक्त लगता है। फूहड़ सामग्री परोसेंगे, तो क्षणिक तौर पर तो लाभ हो सकता है, परंतु अंततः हानि ही होगी। भटकन पैदा कर पाठकों को संजोना देशद्रोह के बराबर है। संयमित, सदाशयपूर्ण संवेदनाओं से सम्पृक्त साहित्य ही दीर्घजीवी होता है। आज जासूसी उपन्यास कहां खो गए हैं? समय सबसे बड़ा निर्णायक होता है। लेखक भी समय की कठपुतली ही होता है, भले ही कई बार पोस्टर चिपकाकर अपनी विचारधारा का ढिंढोरा पीटने में भी नहीं हिचकिचाता।

दिहि : लेखकीय सरोकारों के सामने तड़पते समाज और राष्ट्रीय व्यवस्था के बीच कहानी का बदलना कितना संताप-कितना संतोष देता है?

डा. फुल्ल : लेखकीय सरोकार सदा समाज एवं राष्ट्र के हित में ही सक्रिय होते हैं, लेकिन जब राष्ट्रीय व्यवस्था द्वेषपूर्ण, दोषपूर्ण हो जाए तो अंतरविरोध उभरकर सामने आते हैं। कहानी साहित्यिक विधाओं में सर्वाधिक लोकप्रिय एवं लोकरंजन की विधा रही है… लेकिन आज कहानी व्यवस्था के पाटों में पिस रही है… लड़खड़ा रही है… उसे नहीं पता चल रहा कि रास्ता कहां से जाता है। पत्र-पत्रिकाएं कहानी को कोई दिशा बोध नहीं दे पा रहीं। लेखक भी लगता है चमक-दमक से दिग्भ्रमित हो गए हैं। फिलहाल यह मेंढकी बदलाव संताप ही देता है, एक छटपटाहट ही पैदा करता है, परंतु मुझे विश्वास है कि जल्द ही कहानी पुनः अपनी पटरी पर दौड़ने लगेगी, क्योंकि कहानी का काम तो पाठक का पथ आलोकित करना है।

दिहि : आपके लिए सृजन की गुदगुदी?

डा. फुल्ल : मेरे लिए लेखन-सृजन एक सुखद गुदगुदी है, मुझे निरंतर जीवित रखे हुए है। मेरी समस्त आहत भावनाएं मेरी रचनाओं में समाहित होकर मुझे आनंदित करती हैं। राजनेताओं के प्रति या राजनीति के प्रति अपनी भावनाओं को मैंने अपने इकलौते व्यंग्य नाटक ‘माई-बाप’ में गदगद होकर व्यक्त किया। इसका इंपैक्ट इस बात से पता चलता है कि जब मैंने यह पुस्तक ‘थोक खरीद’ के लिए स्वायत्त संस्था के पास भेजी, तो चयन समिति ने यह कहकर कि ‘यह तो राजनीति पर कटाक्ष है’, रद्दी की टोकरी में डाल दी… यह भी गुदगुदी… या हुदहुदी का ही एक प्रकार है। व्यवस्था बड़ी क्रूर होती है और जब चयन व्यवस्था में अपने ही मित्र लेखक बैठे हों, तो अन्याय ही गुदगुदी बन जाता है या कभी किसी कहानी में फूटकर व्यवस्था पर अदृश्य चपत बन जाता है। लड़ने-भिड़ने, सही टिप्पणी करने में जो आनंददायक गुदगुदी महसूस होती है, वह चारण-भाट या चाटुकार बनने में कहां?

कुल पुस्तकें           :           70

कुल पुरस्कार         :           20

कुल शोध :           20

साहित्य सेवा          :           50 वर्ष

प्रमुख किताबें         : चिडि़यों का चोगा, हारे हुए लोग, हिंदी साहित्य का सुबोध इतिहास


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