आचार संहिता का मनोविज्ञान

By: Dec 5th, 2017 12:05 am

आचार संहिता के मनोविज्ञान में हिमाचली पलकों पर सवार इंतजार, अब यह भी समीक्षा कर रहा है कि राज्य का पुरुषार्थ अपने संयम में कितना साहसी है। इस दौरान एक राष्ट्रीय पत्रिका ने हिमाचल का मूल्यांकन टॉप पर किया, तो अब वेलनेस डेस्टिनेशन में हिमाचल ने पर्यटन के अपने क्षेत्र का हवाला दिया। इतना ही नहीं आचार संहिता के कठोर पहाड़े से अलग हिमाचल अपने मंतव्य पर अग्रसर दिखाई देता है, इसलिए कहीं अंतरराष्ट्रीय विंटर स्पोर्ट्स में कुल्लू के शिवा सहज सफलता के ध्वजवाहक बन जाते हैं, तो हर दिन खेलों में रिकार्ड बनाती हिमाचली क्षमता का सूरज चमकता है। सियासत में जागरूक हिमाचल अपने होने के इजहार में, खुद से संघर्ष करता है तो उपलब्धियों के दर्पण में राष्ट्रीय मंच पर उपस्थिति जाहिर होती है। यही वजह है कि जिस गुजरात मॉडल पर भाजपा इतराती है, उससे बेहतर स्थिति में हिमाचल के दस्तावेज सुर्खरू रहे हैं। यह दीगर है कि पर्वतीय प्रदेश होने के नाते इसकी छवि को राजनीतिक फैसलों में अहमियत नहीं मिली। किसी भी तरह यह प्रश्न बड़ा नहीं बना कि हिमाचल जैसे प्रदेश को तीन महीने से भी अधिक समय के लिए आचार संहिता की फांस क्यों लगाई गई। उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव परिणामों की घोषणा में लाभार्थी राजनीति, इन्हें गुजरात तक खींच रही है तो हिमाचली चुनाव का मुंह बंद रखने का तात्पर्य क्या है। यह भी अजीब इत्तफाक है कि आचार संहिता के बीच हिमाचल को पर्यावरण संहिता सिखाई जा रही है। इस दौरान हिमाचल में राष्ट्रीय एजेंसियां व संस्थाएं अवश्य ही सक्रिय हैं। सीबीआई ने कोटखाई प्रकरण को चाबुक बनाकर इतनी चमड़ी तो इस राज्य की उधेड़ ही दी कि यहां पुलिस का पूरा महकमा अपनी खाल बचाता नजर आता है। न्याय के मार्ग पर जांच का दायरा इतना व्यापक तो हो ही गया कि पुलिस के कुछ अधिकारी वर्दी पहनने लायक नहीं बचे। दूसरी ओर राष्ट्रीय ग्रीन ट्रिब्यूनल हर दिन एक नया शंखनाद कर रहा है, ताकि हिमाचल सनद रहे। ऐसा प्रतीत होने लगा है कि एनजीटी अपनी प्रणाली और हिदायतों के सख्त मानदंडों का यहां परीक्षण और प्रक्षेपण कर रहा है। हैरानी यह कि राष्ट्रीय कानून को अमलीजामा पहनाने से विस्थापन सुनिश्चित किया जा रहा है। यह भी एक रोचक तथ्य है कि एनजीटी के अब तक के फैसलों ने प्रत्यक्ष रोजगार को छीनने की जो मुहिम शुरू की उसके खिलाफ अब नागरिक अपने अधिकार की चिंता करने लगे हैं। यह इसलिए भी कि केंद्र के साथ विकास का अर्थ समझते हुए हिमाचल को भाखड़ा-पौंग विस्थापन के अलावा भी घर छोड़ने का पैगाम तो मिला, पर न्याय नहीं। एनजीटी जिस आचार संहिता में रोहतांग, शिमला, मनाली या कसौली को देख रहा है, उसके सामने बड़ी बांध परियोजनाओं पर खामोशी क्यों। यह कैसी संहिता जो पानी के बलिदान को नजरअंदाज करे, लेकिन जो पानी ले जाए उसके साथ रहे। वर्षों से पौंग जलाशय को अपने बलिदान से भर कर भी विस्थापित अपमानित हैं। हैरानी यह कि पौंग जलाशय में प्रदेश  की सबसे उपजाऊ जमीन खोने वालों को जैसलमेर के तपते रेत पर ऐसे विकल्प दिए गए जो सीमा पार से दुश्मन की गोली के निशाने पर हैं। बहरहाल अच्छी खबर यह कि अब मुरब्बों की जगह धन आबंटित होगा, लेकिन ऐसा क्यों नहीं कि कुछ वन भूमि को ऐसे बलिदान के एवज में पुनर्वास के लिया दे दिया जाए। एक राज्य के अस्तित्व व प्रगति में बाधक की तरह खड़ी आचार संहिता ने जितना रक्तचाप राजनीति का बढ़ाया है, उतने ही कठिन कयास में राजनीतिक नेताओं और समर्थकों की जिज्ञासा अब खतरनाक अंजाम पर इंतजार कर रही है। नकारात्मकता के स्थिर लम्हों में भविष्य के सन्नाटे को तोड़ना फिलहाल मुश्किल है और इसलिए न्याय-अन्याय के बीच चुनाव आयोग से यह बार-बार पूछा जाएगा कि कुछ दिन उत्तर प्रदेश नगर निकाय चुनाव परिणामों पर विराम न लगाने का कौन सा तर्क था। संघीय ढांचे की यह अजीब बपौती है कि हिमाचल चुनाव आयोग के पिंजरे में कैद होकर अपनी पैरवी नहीं कर पा रहा है। हिमाचली विकास या सुशासन के अधिकारों पर ताला लगाकर गुजरात में लोकतंत्र कितना सुदृढ़ होता है, यह चुनाव परिणाम ही बताएंगे।


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