प्रकृति संरक्षण को कुछ कड़वे घूंट जरूरी

By: Dec 4th, 2017 12:05 am

इंदु पटियाल

लेखिका, कुल्लू से हैं

बेतहाशा निर्माण से हिमाचल प्रदेश कंकरीट का जंगल बनता जा रहा है। आने वाले समय में हिमाचल प्रदेश के पर्यावरण को संरक्षित व व्यवस्थित करने हेतु एनजीटी को अपनी भूमिका निभाते हुए सख्त फैसले लेने होंगे। निश्चय ही इसके परिणाम प्रदेश के पर्यावरण के लिए सुखद रहेंगे…

राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (एनजीटी) का गठन एक अधिनियम के तहत पर्यावरण संबंधी कानून के अंतर्गत दिशा-निर्देश निर्धारित करने हेतु किया गया है। इसमें जल, जंगल, वायु और जैव विविधिता संबंधी नियम-कानून एनजीटी के दायरे में आते हैं। एनजीटी को कोर्ट में दायर अपील पर ही सुनवाई करने का अधिकार है। देश-प्रदेश में बन रही विद्युत परियोजनाओं, सीमेंट कारखानों, औद्योगिक इकाइयों के अलावा हर गांव तक सड़क-सुरंग बनाने में पेड़ों के कटान से हरित पट्टी का क्षरण हो रहा है। वहीं स्कूल-कालेज कैंपस, स्वास्थ्य संस्थान, बड़े-बड़े आवासीय परिसर, शॉपिंग कांपलेक्स आदि के बेतहाशा निर्माण से प्रदेश कंकरीट का जंगल बनता जा रहा है। इसी का नतीजा है कि कोई भी हिल स्टेशन अपने प्राकृतिक स्वरूप में नहीं दिखता। उनके सौंदर्यीकरण के नाम पर शहरीकरण हो रहा है।

पर्यावरण को हो रहे अंधाधुंध नुकसान को रोकने हेतु एक अधिनियम के अंतर्गत 2010 में एनजीटी लागू हुआ, जिसका कार्य सरकार के साथ मिलकर पर्यावरण संरक्षण को लेकर उठे मुद्दों को सुलझाना, पर्यावरण संबंधी कानूनी अधिकारों को लागू करना, पर्यावरण संबंधी मामलों का त्वरित न्याय करना और पर्यावरण संबंधी नुकसान के मामले में मुआवजा दिलवाना है। आदेश न मानने पर एनजीटी को जुर्माना करने का अधिकार है, जो कि नियम उल्लंघन के आकलन के अनुसार लाखों या करोड़ों में भी किया जा सकता है। मान लीजिए किसी परियोजना या औद्योगिक इकाई के प्रदूषण की वजह से संबंधित क्षेत्र में कोई बीमारी फैली हो या फसलों, घरों व संस्थानों को किसी भी प्रकार का नुकसान पहुंचा हो। व्यक्ति या समुदाय के लोग क्षति पूर्ति के लिए एनजीटी में अपील दायर कर गुहार लगा सकते हैं। मनाली के समीप रोहतांग दर्रे में ग्लेशियर पिघलने की वजह, रोहतांग में प्लास्टिक कचरा व प्रदूषण को माना गया है। इस बारे दायर मामले में सर्वेक्षण के पश्चात एनजीटी ने वहां से रेहड़ी-फड़ी मार्केट को प्रतिबंधित किया तथा प्रदूषण मुक्त वाहन चलाने के निर्देश दिए। प्रशासन को रोहतांग पास में पर्यटकों को सीमित संख्या में भेजने के आदेश दिए, बल्कि निजी वाहनों को भी परमिट आधार पर रोहतांग जाने की अनुमति लेना सुनिश्चित बनाया।

यही नहीं, बल्कि मनाली के समीप रोहतांग से पहले पड़ाव पर, मढ़ी नामक स्थान पर ईको फ्रेंडली मार्केट लगाने की अनुमति स्थानीय कारोबारियों को दी गई। ये सब निर्देश इसलिए क्योंकि रोहतांग प्रतिबंधित होने के कारण स्थानीय नागरिकों द्वारा रोजी-रोटी को लेकर सरकार से गुहार लगाई थी। मनाली वासियों का कहना था कि एनजीटी का डंडा गरीब, छोटे कारोबारियों पर तो खूब चला, जबकि रोहतांग के लिए प्रस्तावित रोप-वे और सोलंग नाला में वन भूमि पर निर्मित रोप-वे को स्थानीय जनता के विरोध के बावजूद प्रतिबंधित नहीं किया गया। रोहतांग में जो गतिविधियां चल रही थीं, ठीक वही गतिविधियां शिमला के कुफरी और नालदेहरा में भी चल रही हैं। ऐसे में सवाल उठता है कि फिर मनाली से ही भेदभाव क्यों? मनाली में निर्माण पर भी रोक है, जबकि शिमला में अंधाधुंध निर्माण हो रहा है, बल्कि बहुमंजिला भवनों के निर्माण पर रोक के बावजूद अवैध तरीके से सरकारी भूमि पर बने भवनों के नियमतीकरण को लेकर मंत्रिमंडल में प्रस्ताव पारित हुए हैं। हर सरकार ने वोट बैंक की खातिर हिमाचल प्रदेश के खूबसूरत हिल स्टेशनों को पूरी तरह से कंकरीट का जंगल बना छोड़ा है। किसी के पास इस प्रदेश के पर्यटन को पंख लगाने हेतु कोई व्यवस्थागत योजना ही नहीं है, तो उन्हें यह हक भी नहीं होना चाहिए कि वे मंत्रिमंडल में ऐसे प्रस्ताव पारित करें, जिससे प्रदेश का पर्यावरण प्रभावित ही नहीं बल्कि तहस-नहस हो जाए।  मनाली में स्की-विलेज योजना पहले ही राजनीति की भेंट चढ़ चुकी है और सरकार की मध्यस्थता के बावजूद एनजीटी के फरमान से छोटे कारोबारी जो स्थानीय बेरोजगार युवा हैं, को दो जून की रोटी के लाले पड़ गए हैं। रोजगार की व्यवस्था किए बिना रोजगार छीनना तो किसी सूरत में न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि सरकार का काम पुनर्वास होता है, न कि विस्थापित करना।

ये कैसी सरकारें हैं, जो विद्युत परियोजनाओं से प्रभावित लोगों, कुल्लू जिला के बंजार उपमंडल में दि ग्रेट हिमालयन नेशनल पार्क के प्रभावितों, नेशनल हाई-वे या फोरलेन प्रभावितों को रोजगार देना तो दूर, मुआवजे के लिए भी संघर्ष हेतु विवश कर रही हैं, जबकि पुनर्वास तो शायद किसी के भी एजेंडे में ही नहीं है। अगर हो भी, तो वह महज कोरे आश्वासनों तक सीमित रहा है। विदित है कि प्रदेश में निर्मित या निर्माणाधीन विद्युत परियोजनाओं से प्राप्त करोड़ों-अरबों रुपयों की राशि पर्यावरण संरक्षण हेतु तथा लाडा के तहत प्रभावित क्षेत्र के विकास हेतु हर सरकार को प्राप्त हुई है। इसका उपयोग प्रभावित क्षेत्र या वहां की जनता के विकास, पुनर्वास में न कर नेताओं ने अपने ही विकास में किया है। इसकी मिसाल नेताओं की बढ़ी संपत्तियों से भी मिलती है। आने वाले समय में हिमाचल प्रदेश के पर्यावरण को संरक्षित व व्यवस्थित करने हेतु एनजीटी को अपनी भूमिका निभाते हुए सख्त फैसले लेने होंगे। निश्चय ही इसके परिणाम प्रदेश के पर्यावरण के लिए सुखद रहेंगे।


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