राजशाही का कोई विकल्प नहीं

By: Dec 11th, 2017 12:10 am

कुलदीप नैयर

लेखक, वरिष्ठ पत्रकार हैं

यह हैरान करने वाली बात है कि राहुल गांधी वंशवाद के कारक का बचाव कर रहे हैं। वह पंजाब, उत्तर प्रदेश, तमिलनाड़ु व आंध्र प्रदेश की मिसाल देते हुए कहते हैं कि सभी दल वंशवाद पर निर्भर हैं। लेकिन वह इस बात को भूल जाते हैं कि इन राज्यों में पार्टियां बदल-बदल कर सत्ता में आती रही हैं। इस दृष्टि से कहें तो क्या राहुल गांधी या उनकी पार्टी केंद्र में सरकार बनाने के लिए बहुमत हासिल कर सकते हैं? अगर वह चाहते हैं कि कांग्रेस सत्ता में आए, तो उन्हें कठिन परिश्रम करना होगा। लेकिन अभी ऐसा नहीं लग रहा कि वह सत्ता प्राप्त करने की ओर बढ़ रहे हैं…

इसमें कुछ भी हैरानी जैसा नहीं है। यह सर्वविदित था कि तमाम तरह की निराशाओं से घिरी कांग्रेस को अंततः नेहरू-गांधी राजवंश का ही आसरा था। राहुल गांधी का कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में उभार इन्हीं अपेक्षाओं के अनुरूप माना जाएगा। पार्टी से निष्कासन से पहले कांग्रेस के दिग्गज नेता मणिशंकर अय्यर ने इस पूरे परिदृश्य के एक नए आयाम पर प्रकाश डाला था। उन्होंने राहुल गांधी की अध्यक्ष पद पर ताजपोशी को मुगल वंश से जोड़ दिया। उन्होंने कहा कि एक राजा का बेटा हमेशा राजा ही होगा। पार्टी की तरफ से अब अंतिम घोषणा चाहे जो भी हो, लेकिन निश्चय ही यह राजशाही के तमाशे से बढ़कर कुछ भी नहीं होगा। स्वतंत्र भारत के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पुत्री इंदिरा गांधी को इस पद से नवाजा था। कांग्रेस पार्टी की कार्यसमिति की एक बैठक में जब तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष उच्छंगराय नवलशंकर ढेबर (यूएन ढेबर) ने इंदिरा गांधी का नाम आगे बढ़ाया था, तो गृह मंत्री जीबी पंत ने तब कहा था कि इंदिरा को ऐसे झमेलों से दूर ही रहना चाहिए, क्योंकि उनकी तबीयत उनका साथ नहीं दे रही है। तब नेहरू ने पंत की टिप्पणी पर कड़ी आपत्ति जताते हुए कहा कि आपकी तुलना में उनकी सेहत काफी बेहतर है। इस बारे में ज्यादा चिंतित होने की जरूरत नहीं है। उसके बाद इंदिरा गांधी को पार्टी अध्यक्ष चुना गया था। हालांकि निवर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष ने तो तर्क-वितर्क करना भी मुनासिब नहीं समझा। उन्होंने सीधे तौर पर अपने पुत्र राहुल गांधी के लिए कुर्सी तक का रास्ता बना दिया। कुछ समय तक अफवाहों का बाजार गर्म रहा कि वह अपनी बेटी प्रियंका वाड्रा को इस पद के लिए आगे कर सकती हैं, क्योंकि हर जतन कर लेने के बाद भी राहुल गांधी भारतीय जनमानस में अपना स्थान नहीं बना पा रहे थे। इसी बीच भारतीयों की तरह इतालवी मां ने भी अपनी विरासत बेटी के बजाय बेटे के हाथों में थमा दी। पार्टी में राहुल गांधी के इस उदय को कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया ने यह कहकर सही साबित करने की कोशिश की है कि पार्टी में एक नए युग की शुरुआत हो रही है। वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने कहा है कि राहुल गांधी की ताजपोशी का निर्णय निवर्तमान पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस की कार्यसमिति ने मिल-बैठकर लिया है। इसके आगे उनके विचार थे-तृणमूल स्तर के पार्टी कार्यर्ताओं की भी कमोबेश ऐसी ही इच्छा थी। ‘तृणमूल स्तर के कार्यकर्ताओं में यही सामान्य भावना थी।’ हालांकि जानकार लोग इस टिप्पणी में भी दिग्विजय सिंह की कुंठा को महसूस कर सकते हैं। वास्तव में अब पार्टी का संचालन 10 जनपथ से ही किया जाएगा। यह ठीक वैसा ही अनुभव होगा, जैसा कभी नेहरू और इंदिरा गांधी के कार्यकाल में उनके आवास तीन मूर्ति या सफदरगंज में देखने को मिला। मनमोहन सिंह को जब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठाया गया था, तो उस वक्त भी सत्ता की असल कमान सोनिया गांधी के ही हाथों में थी। मैं भी तब वहीं मौजूद था, जब पार्टी कार्यकर्ताओं ने संसद के केंद्रीय कक्ष में जमकर विलाप का ड्रामा किया था कि सोनिया गांधी को प्रधानमंत्री बनाया जाना चाहिए। लेकिन उस दौरान भी सोनिया गांधी ने संयम धारण करके चुप्पी साधे रखी, क्योंकि उनके जहन में उस वक्त उनका पुत्र राहुल गांधी था। और उस वक्त यदि सोनिया गांधी प्रधानमंत्री बन भी जातीं, तो वह सब मंच से नियंत्रित एक ड्रामे से बढ़कर और कुछ भी प्रतीत नहीं होता। यहां तक कि तत्कालीन प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने भी कई मौकों पर स्वीकार किया कि जब राहुल गांधी इस जिम्मेदारी को संभालने के लिए हर तरह से काबिल हो जाएंगे, तो प्रधानमंत्री की कुर्सी छोड़ने में उन्हें बेहद प्रसन्नता होगी। अब राहुल गांधी के पार्टी की कमान संभालने से किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए, यह अपरिहार्य था। राहुल ने पहले ही पंथनिरपेक्षता को मुद्दा बना लिया है। उधर, भारतीय जनता पार्टी हालांकि सार्वजनिक रूप से यह घोषणा नहीं करेगी, लेकिन लगता ऐसा है कि वह 2019 का लोकसभा चुनाव हिंदुत्व के मुद्दे पर ही लड़ेगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को लेकर अब यह कोई छिपी हुई बात नहीं है कि वह राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नागपुर स्थित मुख्यालय में जाकर उसके प्रमुख मोहन भागवत से चर्चा करते हैं और उनसे मार्गदर्शन भी लेते हैं। सबका साथ, सबका विकास वाला उनका नारा अब मात्र एक नारा बनकर रह गया है। कोई भी यह देख सकता है कि मुसलमान प्रधानमंत्री की योजनाओं में कोई स्थान नहीं रखते हैं। यह दुखद बात है कि मुसलमानों ने स्वयं ही उनकी योजनाओं से निकाला हुआ समझ लिया है। उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में भाजपा को मिली शानदार जीत से जाहिर है कि उसने कैसे वहां सत्ता हथिया ली। भाजपा लोगों को यह एहसास दिलाने में कामयाब रही कि वह चुनाव में जीत के लिए मुसलमान मतदाताओं पर निर्भर नहीं है। गुजरात, जहां चुनाव प्रक्रिया चल रही है, में भी ऐसा ही होने जा रहा है। मोदी ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जो गुजरात जीतेगा, वही अगला आम चुनाव जीतेगा। मोदी द्वारा किए जा रहे धुआंधार प्रचार ने यह सवाल खड़ा कर दिया है कि वह गुजरात विधानसभा चुनाव में बहुत कुछ दांव पर लगा रहे हैं। हो सकता है कि यह इस कारण से हो रहा हो कि वहां आंदोलनरत पाटीदारों ने भाजपा को चुनाव में हराने के लिए कांग्रेस के साथ गठजोड़ कर लिया है। अब तक राहुल गांधी का रिकार्ड किसी भी दृष्टिकोण से प्रभावकारी नहीं कहा जा सकता है। वह अब तक कई चुनाव लड़ चुके हैं। उत्तर प्रदेश में भी उन्होंने अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था, लेकिन इस साथ के बावजूद कांग्रेस को कोई मदद नहीं मिली और वह राज्य में चौथे स्थान पर रही। अब राहुल को गुजरात के चुनाव में अपनी लोकप्रियता सिद्ध करनी है। अगर वह अब भी नहीं जीत पाते हैं, तो यह जाहिर हो जाएगा कि वह अपने बलबूते चुनाव नहीं जीत सकते।

यह हैरान करने वाली बात है कि राहुल गांधी वंशवाद के कारक का बचाव कर रहे हैं। वह पंजाब, उत्तर प्रदेश, तमिलनाड़ु व आंध्र प्रदेश की मिसाल देते हुए कहते हैं कि सभी दल वंशवाद पर निर्भर हैं। लेकिन वह इस बात को भूल जाते हैं कि इन राज्यों में पार्टियां बदल-बदल कर सत्ता में आती रही हैं। इस दृष्टि से कहें तो क्या राहुल गांधी या उनकी पार्टी केंद्र में सरकार बनाने के लिए बहुमत हासिल कर सकते हैं? अगर वह चाहते हैं कि कांग्रेस सत्ता में आए, तो उन्हें कठिन परिश्रम करना होगा। लेकिन अभी ऐसा नहीं लग रहा कि वह सत्ता प्राप्त करने की ओर बढ़ रहे हैं। हालांकि स्थिति में बदलाव भी आ सकता है। हमने इंदिरा गांधी का उदाहरण देखा है। वह जब प्रधानमंत्री बनीं तो उन्हें गूंगी गुडि़या कहा जाता था, लेकिन थोड़े से समय में ही उन्होंने पूरे विपक्ष को मात दे दी। यहां तक कि उनके पुत्र राजीव गांधी, जिन्हें राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह ने थोपा था, को भी बाद में जनता ने स्वीकार कर लिया। ऐसा कोई भी कारण इस वक्त मौजूद नहीं है कि क्यों न राहुल गांधी को भी जन स्वीकृति मिले? हालांकि यह इस बात पर निर्भर करेगा कि वह कैसे पार्टी को चुनाव जीतने में मदद करते हैं।

ई-मेल : kuldipnayar09@gmail.com


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