विष्णु पुराण

By: Dec 16th, 2017 12:05 am

शृत्वेत्थं गदित तस्य देवदेवस्य बालकः।

उन्मीमिताक्षो दृश्यो ध्यानदृष्टं हरि पुनः।।

सशंखचक्रगदाशार्ङ्ग वरासिधरमच्युतम्।

किरीटिन समालोक्य जगाम शिपसा महीम।।

रोपांचिताङ्ग सहसा साध्यस परम गतः।

स्वाव देवदेवस्य संक्रेमानसं ध्रुवः।।

किं मि वदामि स्तुतावस्या केनोक्तेनास्य संस्तुतिः।

इत्याकुलमतिर्दव तमेव शरण पयौ।

भगन्यदि में तोषं तपसा परम गतः।

स्तोतुं तदहमिच्छामि वरमेनं प्रयच्छ में।।

ब्रह्माद्यैयस्य वेदज्ञर्ज्ञायते यस्य नो गतिः।

तत्वां कथमह देव स्तोतुं शक्नोमि बालकः।।

त्वदभक्तिप्रवण ह्येतत्परमेश्वर में मनः।

स्तोतुं प्रवृतं त्वत्पादौ तत्र प्रज्ञां प्रयच्छ में।।

शङ्ख प्रांतेने गोविंदस्त पस्यमं कृतांजलिम।

उत्तानपादतनयं द्विजवर्य जगत्पतिः।।

अथप्रसन्नवदनः स क्षणान्नृपनन्दनः।

तुष्टाव प्रणतो भूत्वा भूतधातारमच्युतम।।

श्री पराशर जी ने कहा, भगवान विष्णु के वचन सुनकर बालक ध्रुव ने अपने नेत्र खोले और ध्यान अवस्था में जिनके दर्शन किए थे, उन भगवान को साक्षात रूप में अपने सामने खड़े पाया। वे भगवान किरीट मुकुट, शंख, चक्र, गदा, धनुष तथा खड्ग धारण किए हुए थे। उन्हें देखकर ध्रुव ने पृथ्वी पर अपना मस्तक रख कर प्रणाम किया और सहसा रोमांचित होते हुए भगवान की स्तुति करनी चाही। परंतु स्तुति के लिए क्या कहूं यह उसकी समझ में नहीं आया, जिससे वह अत्यंत व्याकुल हुआ और अंत में उसने भगवान की ही शरण ली। ध्रुव बोला हे प्रभो! यदि आप मेरे तप से प्रसन्न हुए हैं, तो मैं आप स्तुति करने को इच्छुक हूं। प्रथम यही प्रदान करिए जिससे मैं आपका स्तव करने में समर्थ हो सकूं। हे देव! ब्रह्मा आदि वेदों के ज्ञाता भी जिनकी गति का ज्ञान नहीं रखते, उनका स्तवन मैं अवोध बालक किस प्रकार कर सकता हूं। हे परमेश्वर! आपकी भक्ति से द्रवित हुआ मेरा चित्त आपके चरणों की स्तुति करने को उत्कंठित है, इसलिए आप मुझे वैसे ही बुद्धि दीजिए। श्री पराशर जी ने कहा, हे द्विज श्रेष्ठ! भगवान श्री गोबिंद ने  सामने करवद्ध खड़े हुए ध्रुव को अपने शंख के अग्र भाग से स्पर्श किया, तभी वह राजपुत्र क्षण भर में ही हर्षित मुख से अत्यंत विनीत होकर भगवान की स्तुति में प्रवृत्त हुआ।

भूमिरापोऽनलो वायु खं मनो बुद्धिरेव च।

भूतादिर दिप्रकृतियस्य रूपं नरोऽस्मि तम।।

शुद्धः सूक्ष्मोऽखिलव्यापी प्रधानात्पतः पुमान। यस्य रूप नमस्तस्मै पुरुषाय गुणाशिने।। भूरादीनो समस्तानां गंधादीनां च शाश्वतः।  बुध्यादौनां प्रधानस्य पुरुषस्य च यः परः।।

त ब्रह्मभूमात्मानशेषजगतः पतिम।

प्रपद्ये शरणां शुद्ध त्वद्रूप परमेश्वरः।।

बृहत्वाद बृहणत्वाच्च यद्रू प ब्रह्म संज्ञितम। तस्मै नमस्ते र्सात्यन्योगिचिंत्याविकारिणी।।

सहस्रशीर्षा पुरुष सहस्राक्ष, सहस्रात।

सर्वव्यापी भुवः स्पर्शादत्यतिष्ठद्दशां गुलम।। यदभूत यच्च वै मव्यं पुरुषोत्तम तदभगवान। त्वत्तो विराट स्वराट सम्राट त्वत्तत्र्चाप्यधिपुरुषः।।

ध्रुव ने कहा पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि, अहंकार और मूल प्रकृति जिन भगवान के स्वरूप हैं। मैं उन्हें नमस्कार करता हूं। जो परमात्मा देव अत्यंत शुद्ध,सूक्ष्म, सर्वव्याप्त तथा प्रधान से भी परे हैं और वह पुरुष जिसका स्वरूप है, मैं उन गुणोभोक्ता को नमस्कार करता हूं। हे प्रभो! पृथिव्यादि सब भूत और गंधादि उनके गुण, बुद्धि और कारण एवं प्रधान और पुरुष से भी परे सनातन पुरुष आप ही हैं, मैं आप निखिल ब्रह्मांड नायक के ब्रह्मभूत स्वरूप की शरण में हूं। हे योगियों के लिए चिंतन के योग्य हे सर्वात्मन! व्यापक और बढ़ने वाला होने से आपका रूप ब्रह्म कहा गया है।


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