वेदना और बोध

By: Dec 16th, 2017 12:05 am

बाबा हरदेव

वेदना शब्द वेद से बना है चुनांचे वेदना शब्द के दो अर्थ हैं एक अर्थ तो ज्ञान बोध होता है और दूसरा अर्थ दुख और पीड़ा होता है, असल में जहां दुख और पीड़ा है, वहां बोध टिक जाता है। उदाहरण के तौर पर अगर कहीं हमारे पांव में कांटा आदि गढ़ जाए तो हमारा बोध वहीं इसी कांटे पर पहुंचा जाता है। मानो जहां वेदना है वहीं बोध है, वहीं चेतना सघन हो जाती है और जहां वेदना नहीं है, वहां बोध और चेतना विदा हो जाती है।  चुनांचे अगर शरीर पूरा स्वस्थ है तो शरीर का पूरा पता नहीं चलता यानी शरीर के स्वस्थ होने का एक प्रमाण है कि शरीर का पता न चलता हो यानी देह शून्यता आ जाए। इसी प्रकार अगर हमारे सिर में दर्द होता है तो हमें सिर का पता चलता है, अगर सिर में दर्द न हो तो सिर का पता नहीं चलता और इसके विपरीत अगर सिर का थोड़ा सा भी पता नहीं चलता है तो समझ लेना चाहिए कि सिर बीमार है। ठीक ऐसे ही अगर मनुष्य मानसिक तल पर बीमार होता है तो ‘मैं’ का पता चलता है, फिर ‘मैं’ एक कांटे की भांति चुभती है, चौबीस घंटे रास्ते पर चलते उठते- बैठते बेशक कोई देखे न देखे ‘मैं’ का कांटा चुभता ही रहता है और इसी ‘मैं’ के घाव से भरा हुआ मनुष्य कर्तापन से घिर जाता है और अगर यह मानसिक तौर पर स्वस्थ हो हो फिर ‘मैं’ फिर पता नहीं चलता, इस सूरत में अगरचे मनुष्य होता तो है, लेकिन पूर्ण सद्गुरु की अपार कृपा द्वारा इसे ऐसा नहीं लगता कि ‘मैं’ हूं बल्कि इसे ऐसा ही लगता है कि बस हूं, वहां इसकी ‘मैं’ विदा हो जाती है।

तरे दर से आ के सत्गुरु दुनियां दा कुझ ध्यान नहीं रहंदा।

विक जांदी ए अपणी दुनियां मैं मेरी दा मान नहीं रहंदा।

अब कभी मनुष्य ने सोचा है कि जब इसका कोई मरता है तो इसे पीड़ा और दुख क्यों होता है, क्या पीड़ा इसलिए होती है कि जो इसका मेरा था वो मर गया या इसलिए इसे पीड़ा होती है कि इसका मेरा होने की वजह से इसकी मेरी ‘मैं’ का जो हिस्सा था जो मर गया वो नहीं रहा। अगर हम ठीक से समझेंगे तो हमें पता चलेगा कि किसी के मरने से कोई पीड़ा आदि नहीं होती, लेकिन चूंकि ‘मेरा’ है इसलिए पीड़ा होती है, क्योंकि जब भी कोई मरता है तो मेरी ‘मैं’ का एक हिस्सा, मेरे अहंकार का एक हिस्सा बिखर जाता है, जो मैंने इसके लिए संभाला था। चुनांचे हम अपने ‘मेरे’ को बढ़ाते रहते हैं, मेरे मकान, मेरे मित्र, मेरा घर बार, मानो जितना ‘मेरा’ उतनी ही ‘मैं’ मजबूत होती है। ‘मेरे’ साम्राज्य के भीतर ‘मैं’ खड़ा होता है। अब सदगुरु कृपा से अगर मेरा विदा हो जाए तो मेरे मैं को खड़ा रहने का कोई सहारा नहीं रह जाता और फिर मैं भूमि पर गिर कर टूट जाएगी, बिखर जाएगी क्योंकि मैं मन की विकृति है, मन की अप्राकृत दशा है। मैं मनुष्य के मन के साथ जुड़ी प्रक्रिया है, यह तो एक मनोवैज्ञानिक बात है मानो, मैं मनुष्य के गलत सोचने, गलत देखने और गलत होने का ढंग है। वास्तविकता यह है कि हम सब एक-दूसरे से अपने मैं के लिए भोजन जुटाते हैं।  उदाहरण के तौर पर एक औरत के यहां एक बच्चा पैदा होता है उस दिन अकेला बच्चा ही पैदा नहीं होता, मां भी पैदा होती है क्योंकि इससे पहले वो एक स्त्री थी,बच्चे के जन्म के बाद वह मां बनती है। यह जो मां होना इसमें आया है वह बच्चे के होने से आया है। चुनांचे इसके मैं में बच्चे की मां होना भी जुड़ गया है।


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