हिंदुत्व की त्रासद राजनीति

By: Dec 8th, 2017 12:04 am

‘‘मोदी जी हमारी आस्था नहीं हैं। मोदी के कहने से राम मंदिर नहीं बनेगा। मंदिर तभी बनेगा, जब भगवान राम चाहेंगे। हमारी यही आस्था है।’’ यह बयान देते हुए कपिल सिब्बल ने यह भी ऐलान किया कि वह सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील नहीं हैं। सवाल है कि क्या यह सिब्बल का दोहरा आचरण नहीं है? यदि वह सर्वोच्च न्यायालय में सुन्नी बोर्ड के पैरोकार नहीं थे, तो किसके वकील थे? किसके आधार पर और किसके लिए उन्होंने अधूरे दस्तावेजों और अनुवाद के मुद्दे उठाए थे? क्या सोनिया-राहुल गांधी के निर्देश पर सिब्बल ने ऐसी दलील दी थी कि अयोध्या विवाद पर 2019 के आम चुनावों के बाद सुनवाई शुरू की जाए? सवाल यह भी है कि रोहिंग्या मुसलमानों की सुप्रीम कोर्ट में पैरवी किसने की थी? तीन तलाक को यथावत रखने की दलील सुप्रीम कोर्ट में ही किसने दी थी? राष्ट्रीय जांच एजेंसी के हदिया नामक महिला के मामले में वकील कौन थे और सरकार के खिलाफ पक्ष रखते रहे हैं? बेशक इन तमाम अदालती मामलों में सिब्बल ही वकील रहे हैं। उन्हें मुस्लिम मुद्दे ज्यादा प्रिय हैं। यह उनकी संवैधानिक पसंद का विषय है, लेकिन इन तमाम मामलों में उन्हें मुंह की खानी पड़ी है। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक जफरयाब जिलानी ने कहा है कि सिब्बल मुस्लिम पक्ष के वकील हैं। वह सुन्नी वक्फ बोर्ड के चेयरमैन जुफर फारुकी के बयान से सहमत नहीं हैं। जिलानी के मुताबिक, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के महासचिव और अन्य पदाधिकारियों से मशविरा कर एक ड्राफ्ट बनाया गया। उसी के आधार पर सिब्बल ने सुप्रीम कोर्ट में यह दलील दी थी। सुन्नी बोर्ड वाले भी मुसलमान हैं या कुछ और? व्यापकता में सिब्बल मुस्लिम पक्ष की पैरवी कर रहे हैं, जाहिर है कि उस दायरे में सुन्नी वक्फ बोर्ड भी आता है। फिर सिब्बल ऐसा झूठ क्यों बोल रहे हैं? दरअसल सिब्बल यह भी स्पष्ट करें कि इन ‘सांप्रदायिक तेवरों’ के मामलों में वह कांग्रेसी नेता, सांसद रहे हैं या मात्र वकील? अब वस्तुस्थिति यह है कि गुजरात में ‘हिंदू, हिंदू’ का शोर है, असली और नकली हिंदू के नारे लग रहे हैं, हिंदुत्व के कुहासों में विकास के बुनियादी सवाल छिप रहे हैं, हिंदुओं की करीब 89 फीसदी गुजराती आबादी में धु्रवीकरण दिखाई देने लगा है। फिर सवाल है कि क्या गुजरात जैसे राज्यों के जनादेश भी ऐसे तय होंगे? मुद्दा अयोध्या विवाद की कोख से निकला है, लेकिन सांप्रदायिक आधारों पर बंटने लगा है। दरअसल दोनों ही पक्ष या तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले का इंतजार करें और उसे मान्यता दें अथवा मोदी सरकार से व्यापक आग्रह किए जाएं कि संसद में इस मुद्दे पर विमर्श कराया जाए और फिर मतविभाजन के जरिए फैसला लिया जाए। जाहिर है कि मामला संविधान संशोधन का है, लिहाजा दोनों ही सदनों में दो-तिहाई बहुमत का फैसला ही मान्य होना चाहिए। ये वकील हमारे सामाजिक सौहार्द, भाईचारे, धर्मनिरपेक्ष ताने-बाने को बर्बाद करने पर क्यों तुले हैं? आज प्रधानमंत्री मोदी के लिए बौखलाहट और ‘मंथरा’ सरीखे विशेषणों का इस्तेमाल कौन सी सभ्य राजनीति की मिसाल है? नतीजतन गुजरात के चुनावों में और देश के जागरूक लोगों में ‘हिंदुत्व’ के नाम का एक उफान महसूस किया जा सकता है। उसकी आड़ में सभी खुद को ‘हिंदू’ साबित करने में जुटे हैं। बेशक प्रधानमंत्री मोदी ने इस स्थिति को दुर्भाग्यपूर्ण माना है और राम मंदिर पर सिब्बल की दलील के जरिए कांग्रेस पर सवाल उठाया है। दुर्भायपूर्ण स्थिति इसलिए मानी जा सकती है, क्योंकि राहुल गांधी गुजरात में जो बुनियादी सवाल उठा रहे थे और प्रधानमंत्री से जवाब की अपेक्षा कर रहे थे, वे कोशिशें ध्वस्त हो जाएंगी और मुद्दे भी हाशिए पर चले जाएंगे। अयोध्या विवाद पर फैसला सुप्रीम कोर्ट में कब होगा, यह तो भविष्य का सवाल है, लेकिन ‘हिंदूवाद’ में एक और बड़ा चुनाव निपट जाएगा, यह हमारी लोकतांत्रिक त्रासदी ही होगी। त्रासद राजनीति यह भी है कि राम मंदिर सरीखे मुद्दे को चुनाव से जोड़ने की कोशिश की जा रही है। यह ऐसा मुद्दा है, जिसने सामाजिक अलगाव के बीज बो रखे हैं, हिंदू और मुसलमान के बीच नफरत का सा भाव रहता है, रोजी-रोटी से जुड़े सवालों को आच्छादित कर रखा है, लिहाजा ज्यादातर लोग चाहते हैं कि जितनी जल्दी इस मामले का निपटारा हो सके, उतना ही अच्छा होगा।


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