हिमालय का सांस्कृतिक अवदान

By: Dec 14th, 2017 12:05 am

कुलभूषण उपमन्यु

लेखक, हिमालय नीति अभियान के अध्यक्ष हैं

हिमालय ने हमें जैव विविधता के साथ सांस्कृतिक विविधता का भी अवदान दिया है। पर्वतों की ढालों पर और नदियों के पवित्र संगमों में ही विद्वानों और ऋषियों की मेधा अनुप्राणित हुई। हिमालय के वनों और हिमालय से निकली नदियों से अनुप्राणित वन्य प्रदेशों में ही भारतीय संस्कृति के महान ग्रंथों की रचना हुई…

मनुष्य प्रकृति में पैदा होकर, प्रकृति को अपने बुद्धि कौशल द्वारा जीवन को सुंदर और सबके लिए उपयोगी बनाने के लिए उपयोग करके संस्कारित करता है, तो संस्कृति का विकास होता है। इसके उलट यदि वह जीवन को अहंकारी एवं पर-पीड़क बनाने के लिए प्रकृति का दुरुपयोग करता है, तो विकृति का उदय होता है। संस्कृति के विकास में भौगोलिक और पारिस्थितिकीय कारकों का विशेष महत्त्व रहता है। संस्कृति का स्थूल पक्ष तो भौगोलिक और पारिस्थितिकीय कारकों पर ही ज्यादातर निर्भर करता है। समुद्र तटीय, मरुस्थलीय, वन क्षेत्रीय, हिम क्षेत्रीय और उपजाऊ भूमियों में पनपी संस्कृतियों पर इन कारकों का प्रभाव स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। उनके पहनावे, खान-पान, कला, साहित्य, त्योहार, नृत्य, गायन आदि में इसकी झलक मिल ही जाती है।

संस्कृति का दूसरा और महत्त्वपूर्ण पक्ष है, उसका सूक्ष्म पक्ष। यह सृष्टि को देखने की दृष्टि के रूप में चरितार्थ होता है। इसे किसी भी संस्कृति का मूल कहा जा सकता है। जिस रंग का चश्मा हम लगा लेंगे, उसी रंग की सृष्टि दिखाई देगी। जैसी सृष्टि दिखेगी, उसी के आधार पर हमारे निर्णय और सोच बनेगी और हमारी संस्कृति का विकास होगा। हिमालय ने संस्कृति के विकास के लिए महत्त्वपूर्ण इन दोनों कारकों को प्रभावित किया है। स्थूल रूप से हिमालय ने उत्तर ध्रुवीय शीत हवाओं को रोक कर भारत में छह ऋतुओं के निर्माण में सहायता की। ऋतु विविधता से वैचारिक विविधता के लिए उपयुक्त वातावरण का निर्माण किया। सदानीरा नदियां देकर गंगा और सिंध के मैदानों की रचना करके, समृद्ध कृषि संस्कृति और उस पर आधारित कलाओं और हस्तशिल्पों के विकास में योगदान दिया। हिमालय की गोद में ही भारतीय संस्कृति जन्मी, पुष्पित-पल्लवित हुई, इसीलिए वेदों का ऋषि कहता है, उपह्वरे गिरीणां संगमे च नदीनां धिया विप्रो अजायत। पर्वतों की ढालों पर और नदियों के पवित्र संगमों में ही विद्वानों और ऋषियों की मेधा अनुप्राणित हुई। हिमालय के वनों और हिमालय से निकली नदियों से अनुप्राणित वन्य प्रदेशों में ही भारतीय संस्कृति के महान ग्रंथों की रचना हुई। ऐसा मानना है कि उत्तराखंड के बदरीवन में बादरायण व्यास ने महाभारत ग्रंथ की रचना की। महर्षि वाल्मीकि ने वन में स्थित अपने आश्रम में ही रामायण की रचना की।  वनों में रचे जाने के कारण उपनिषद ग्रंथों को तो आरण्यक शास्त्र ही कहा जाने लगा। गीता में भगवान कृष्ण अपनी विभूति वर्णन में कहते हैं, ‘स्थावराणाम च हिमालय’ यानी स्थिर रहने वालों में मैं हिमालय हूं। इस तरह हिमालय प्राकृतिक विविधता के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए संस्कृति के विकास का कारक बना, जिसमें प्रकृति के प्रति श्रद्धा का भाव पैदा हुआ। इससे एक सूक्ष्म दृष्टि का विकास हुआ, जिसने एक ऐसा चश्मा दिया जो प्रकृति  की क्रियाओं को बिना कोई रंग चढ़ाए अपने असली रूप में देखने में सक्षम था। इसी के फलस्वरूप एक ओर सत्यं ज्ञानं अनंतम ब्रह्म का उद्घोष हुआ, दूसरी ओर उस सत्य की खोज की व्यावहारिक गतिविधियां प्रारंभ हुईं। इसी के परिणामस्वरूप बिना आधुनिक उपकरणों के ही सूर्य सिद्धांत जैसे वैज्ञानिक ग्रंथों की रचना हुई। ज्योतिर्विज्ञान, आयुर्वेद, गणित आदि विज्ञानों की खोज के साथ शून्य की खोज हुई।

विष्णु पुराण में भगवान विष्णु स्वयं कहते हैं कि ‘मैंने हिमालय की सृष्टि यज्ञ के साधन के लिए की।’ यज्ञ की एक व्याख्या यह भी है कि प्रकृति के उपयोग के कारण होने वाली छीजन की भरपाई करने वाला कार्य यज्ञ है। कपड़ा पहनते हैं, तो कातना-बुनना यज्ञ है। विद्या से जीवन चलाते हैं, तो विद्या दान यज्ञ है यानी ज्ञान यज्ञ। दूसरों के यहां खाते हैं, तो खिलाना भी यज्ञ है और अन्न पैदा करना भी यज्ञ है। यज्ञ एक भावना है, प्रकृति और जीवन के प्रति जिम्मेदारी की भावना। स्वयं हिमालय भी मिट्टी निर्माण, जल संरक्षण और जैव विविधता संरक्षण करके छीजन दूर करने का ही कार्य कर रहा है। तो एक तरह से हिमालय हमारी संस्कृति का प्रतीक भी है और हमारे जीवन दर्शन का आधार भी है। यह भगवान शंकर का आवास ही नहीं, भगवती पार्वती का पिता भी है। इसे देवात्मा कह कर पुकारा गया।

हिमालय ने हमें जैव विविधता के साथ सांस्कृतिक विविधता का भी अवदान दिया है। यहां सदियों से अनेक धर्म फल-फूल रहे हैं। इनमें हिंदू, बौद्ध, जीववादी बर्मी मत और एकेश्वर वादी मुस्लिम और इसाई मत प्रमुख हैं। सनातन हिंदू परंपरा, बौद्ध, और जीववादी मतों सबमें आत्मा को मानना और पूजने के अंश विद्यमान हैं। घोर एकेश्वरवादी इस्लाम और ईसाई मतों ने इन जीववादी मतों की निंदा की और घोर विरोध किया, परंतु हिमालय ने इनको सह अस्तित्व का रास्ता दिखाने का काम किया। सनातन हिंदू परंपरा में सबके अंदर एक ईश्वर का अंश देखने की जो समझ है, इसे एकात्म-सर्वात्मवाद कह सकते हैं। इस अवधारणा ने प्रकृति के प्रति जिम्मेदार व्यवहार की महत्ता को स्थापित किया, जिसके फलस्वरूप नदी मां हो गई, तो अनेक पशु-पक्षी पूज्य होकर संरक्षित हो गए। पेड़-पौधों में जीवन की वैज्ञानिक सत्यता को मान्यता दी  गई। तुलसी, पीपल, बिल्व, आम, वट आदि अनेक वृक्ष श्रद्धा के पात्र हो गए। दुनिया को इस भारतीय परंपरा को आत्मसात करने की जरूरत है, परंतु हम भारतीय परंपरा के ध्वजवाहक स्वयं ही इसके कई पक्षों को भूल बैठे हैं या विकृत कर चुके हैं। खास कर ऊंच-नीच के भेद बनाकर हमने सर्वं खलु इदं ब्रह्म और ईशावास्यं इदं सर्वं जैसी मौलिक घोषणाओं को ही निरर्थक बनाने का अपराध किया है। एकात्मक-सर्वात्मवादी संस्कृति को सही अर्थों में अपनाकर सहिष्णु-समतावादी समाज की रचना की जा सकती है। साथ-साथ जीवनदायिनी प्रकृति मां की संभाल भी की जा सकती है। यही विचार, टिकाऊ विकास को हासिल करने का मार्ग भी प्रशस्त करेगा।


Keep watching our YouTube Channel ‘Divya Himachal TV’. Also,  Download our Android App