आध्यात्मिक दृष्टिकोण

By: Jan 13th, 2018 12:05 am

आध्यात्मिक दृष्टिकोण से रोग का अर्थ होता है-  ‘वासना’। रोग का मतलब होता है, जो मनुष्य को दौड़ाए रखे, भटकाए रखे, भरमाए रखे। मानो जो मनुष्य को निश्चित न होने दे, शांत न होने दे। इस शृंखला में ‘स्वस्थ’ शब्द का अर्थ बिलकुल यथार्थ मालूम पड़ता है। यह शब्द बहुत रहस्यपूर्ण है। स्वस्थ का अर्थ होता है स्वयं में स्थित हो जाना, स्वयं में ठहर जाना, चुनाचें जो चीज भी मनुष्य को स्वयं से दूर ले जाए, स्वयं से भटकाएं, स्वयं से अलग करे, स्वयं से तोड़कर अस्वस्थ करे वहीं ‘रोग’ है। रोग है तना हुआ, खींचा हुआ चित्त, अपने लिए दूसरे का ध्यान मांगना और दूसरों पर ध्यान न देना ‘रोग’ है। अतः काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार से सब रोग हैं (अध्यात्म की दृष्टि में)। अब कौन करता है मनुष्य को स्वयं से दूर? महात्मा फरमाते हैं यह है मनुष्य की ‘वासना’, मनुष्य की तृष्णा जो मनुष्य को भविष्य में भटकाती है। मनुष्य की वासना कहती है कल फिर कल होगा, धन कल बनेगा महल, कल मिलेगा पद और प्रतिष्ठा, कल होगा बेटे का जन्म, मानो कल सब कुछ मिल जाएगा और कल कभी आता नहीं, कल कभी आया नहीं और कल का तो अस्तित्व ही नहीं है।

सबज होती ही नहीं यह सर जमीं

तुखमें खाहिश दिल में तू बोता है क्या?

जिस मनुष्य के लिए न कोई कल है बीता हुआ, न कोई कल है आने वाला, बल्कि आज ही सब कुछ है। जो वर्तमान में जीता है यानी स्वयं में स्थित है, जिसके चित्त में कोई विचार नहीं तो इसके लिए संभवतः समय मिट जाता है, क्योंकि विचार या तो अतीत के होते हैं या फिर भविष्य के होते हैं। वर्तमान का तो विचार कभी होता ही नहीं। मनुष्य अगर करना भी चाहे तो यह कर नहीं सकता। इस दिशा में कोई विचार की तरंग नहीं उठती, जैसे कोई झील शांत हो। मानो ऐसी स्थिति वर्तमान से मनुष्य को जोड़ देती है और इसे बेरोग बना देती है। अब सवाल पैदा होता है कि मनुष्य रोग से छुटकारा कैसे पाए। महात्मा फरामते हैं कहीं कोई ऐसी अलौकिक विभूति मिल जाए, जिसके जीवन में मनुष्य को अज्ञात का एहसास हो, जिसकी उपस्थिति में मनुष्य को अनाहत का नाद अनुभव होने लगे, जिसके पास बैठकर हृदय शांत होने लगे, जिसकी कृपा से परमात्मा से मिलाप हो जाए तो मनुष्य इस अलौकिक विभूति के चरणों में तत्क्षण झुक जाए और इसके सामने अपने आप को हृदय से समर्पित कर दे, बस फिर रोग नहीं रहेगा। वासना और तृष्णा का अर्थ है असंतोष, अतृप्ति, वर्तमान में नहीं बल्कि भविष्य में होना, मानो मनुष्य जैसा है, उससे इसका संतुष्ट न होना और ज्यादा धन और ज्यादा बड़ा मकान और ज्यादा प्रतिष्ठा और ज्यादा पदवी की चाह। चुनांचे तत्वज्ञानियों का कथन है कि समय काम (कामना, तृष्णा और वासना) की छाया है या यह जो भीतर की परिस्थिति है, समय की यह वासना और तृष्णा के कारण है। मनुष्य की जितनी वासना और तृष्णा होती है भीतर का समय उतना ही विस्तार होता है, क्योंकि वासना और तृष्णा के फैलने के लिए समय रूपी जगह चाहिए, नहीं तो वासना और तृष्णा फैलेगी कहां?


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