वासना और मृत्यु

By: Jan 20th, 2018 12:05 am

बाबा हरदेव

मृत्यु करती क्या है? महात्माओं का कथन है कि मृत्यु मनुष्य से समय छीन लेती है मानों मृत्यु भविष्य का दरवाजा बंद कर देती है और मौका नहीं देती कि आगे और समय है। चुनांचे जो कल को मिटा दे उसी को तत्त्वज्ञानी काल यानी मृत्यु कहते हैं। इसलिए जितनी वासना होती है उतना ही आदमी मौत से घबराता है…

वासना और तृष्णा का अर्थ है असंतोष,अतृप्ति, वर्तमान में नहीं बल्कि भविष्य में होना। मानो मनुष्य जैसा है उससे इसका संतुष्ट न होना और ज्यादा धन और ज्यादा बड़ा मकान और ज्यदा प्रतिष्ठा और ज्यादा पदवी की चाह। मनुष्य की जितनी वासना और तृष्णा होती है, भीतर समय का उतना ही विस्तार होता है क्योंकि वासना और तृष्णा के फैलने के लिए समय रूपी जगह चाहिए, नहीं तो वासना और तृष्णा फैलेगी कहां? अब अगर काम (कामना और वासना) गिर जाता है, तो समय भी गिर जाता है और अगर समय गिर जाए तो काम (कामना और वासना) भी गिर जाता है, क्योंकि बहुत मूल में काम है, यानी वासना और कामना है, कुछ और चाहिए। जैसे मनुष्य है वैसे से राजी नहीं है, बस इसी में कामना का बीज है, जो मिला है, वो काफी नहीं और मिलना चाहिए जैसा जगत है वैसा नहीं कुछ और चाहिए। हमारे सपनों के अनुकूल होना चाहिए। मानो कल ही हम आशा रखते हैं कल हमारा सपना पूरा होगा, मगर कल भी आज की तरह आएगा, फिर हम और आगे आने वाले कल पर फैला देंगे। इसी तरह से हमारा सपना फैलता जाता है। चुनांचे रति भी अतृप्त हो फिर कामना और वासना उठ खड़ी होती है और इस कामना के फैलाव में समय भी उठ जाता है। अब जितना बड़ा सपना उतना ही लंबा समय, मानो समय और कामना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। संभवतः जहां वासना और तृष्णा है वहां तनाव पैदा होता है, क्या करें क्या न करें, क्योंकि वासना और तृष्णा से भेद पैदा होता है। इस हालात में मजबूरियां मनुष्य को चारों ओर से घेरे लेती हैं ः

ख्वाहिशों को किस लिए दिल में जगह देता है तू

ख्वाहिशें बनती रहीं मजबूरियां इनसान की।

अब जब तक वासना और तृष्णा है तब तक विवेक पैदा नहीं होता मानो अविवेक की दशा रहती है, क्योंकि अगर मनुष्य के मन में वासना और तृष्णा है तो दो बातें पैदा होंगी, यानी जहां चित्त में तरंगें हैं, वहां मनुष्य की बोध की दशा खो जाती है और गहन अंधकार भर जाता है। फिर जो असल है वह अब दिखाई नहीं पड़ता आंखों का कुंवारापन खो जाता है। इस हालात में आंखें वो दिखलाती हैं, जो मनुष्य चाहता है। अब मनुष्य को सत्य दिखाई नहीं पड़ता सिर्फ परछाईं घूमती है। अब वृक्ष अभी सुखा है इसी प्रकार पक्षी अभी गीत गा रहे हैं, सूरज अभी निकला और प्रकाश अभी फैला है, मानो यह सारा जगत मनुष्य को छोड़कर ‘अभी’ है, जबकि मनुष्य ‘कभी है, कभी कहीं’ और बस इसी ‘अभी’ और ‘कभी’ के बीच जो तनाव है वहां वासना और तृष्णा अशांति लाती है, फिर जितनी बड़ी वासना और तृष्णा उसी अनुपात में अशांति होती है। मृत्यु करती क्या है? महात्माओं का कथन है कि मृत्यु मनुष्य से समय छीन लेती है मानों मृत्यु भविष्य का दरवाजा बंद कर देती है और मौका नहीं देती कि आगे और समय है। चुनांचे जो कल को मिटा दे उसी को तत्त्वज्ञानी काल यानी मृत्यु कहते हैं। इसलिए जितनी वासना होती है उतना ही आदमी मौत से घबराता है। मौत मनुष्य से और कुछ भी नहीं छीनती सिवाय मनुष्य की वासनाओं, आशाओें और कामनाओं के इसलिए जिस मनुष्य ने वासनाएं, कामनाएं और आशाएं छोड़ दीं, मानों जिसने भविय के सपने छोड़ दिए ऐसे मनुष्य के पास छिनने के लिए कुछ रह ही नहीं जाता, क्योंकि मौत झूठे सपनों को ही मार  सकती है। यह सत्य को नहीं मार सकती। अब जिस आदमी के सपने नहीं हैं इसके लिए मौत समाप्त हो गई यानी मनुष्य सपनों के छूटते ही समय से छूट जाता है, यह अमरत्व को उपलब्ध हो जाता है।


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