विष्णु पुराण
भो-भो राजन श्रुणुष्व त्व यद्वदाम महीपते।
राज्यदेहोकोपकारय प्रचानां च हित परम।।
दीर्घसत्रेण देवेशं सर्वयज्ञेश्वर हरिम।
पूजजिष्याम भद्वं ते तस्यांशस्ते भविष्यति।।
यज्ञेन यज्ञपुरुष विष्णु संप्राणिता नृप।
अस्माभिभवतः कामांसर्वानेद प्रदास्यति।।
यरैर्यश्वरो येषां राष्ट्रे संपूज्यते हरिः।
तेषां सवेप्सितावाति ददाति नृपभूभृताम।।
मताकोऽभ्वधिकाऽन्योऽस्तिऽकश्चराध्या ममापरः।
कौऽयं हरिरित ख्यातो यो वो यज्ञैश्वरः मतः।।
ब्रह्मा जनार्दनः शंभुछिद्रो वायुर्यमो रविः।
दूतभुग्वरुणो धाता पूषा भूमिर्निशाकरः।।
एते चान्ये च ये देवाः शपः नुग्रहकारिणः।
नृपस्यैते शरीरस्था शपानुग्रहकारिण।
नृपस्यैते शरीरस्थाः सूर्यदेवमयो नृप।।
ऋषियों ने कहा, हे राजन! हे महापते! हम तुम्हारे राज्य, प्रजा तथा शरीर के हितार्थ जो कहते हैं, उसे श्रवण करो। तुम्हारा कल्याण हो, हम यज्ञेश्वर देव भगवान विष्णु का पूजन करेंगे, उसके फल के छठे अंश का भाग तुम्हें भी प्राप्त होगा। हे राजन! यज्ञों के द्वारा भगवान यज्ञ पुरुष संतुष्ट होकर हमारे साथ ही तुम्हारी अभिलाषाएं पूरी करेंगे।
जिन राजाओं के राज्यकाल में यज्ञेश्वर भगवान का यज्ञानुष्ठों द्वारा पूजन होता है, उनकी सभी कामनाएं पूर्ण होती हैं। यह सुनकर बेन ने कहा, मुझसे अधिक ऐसा कौन है। जो मेरे द्वारा पूजने के योग्य हो। तुम जिसे यज्ञेश्वर भगवान कहते हो, वह कौन है? ब्रह्मा, विष्णु, शंभु, इंद्र, वायु, यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, थाता, पूषा, पृथ्वी और चंद्रमा अथवा अन्य जो भी देवता श्राप, या कर देने में असमर्थ हैं। उन सभी का निवास राजा में होने से राजा ही सर्व देवमय होता है।
एवं ज्ञात्वा मयाज्ञप्तं यद्यधा क्रियन्तं तथा।
न दतव्यं न यष्टव्यं न होतभ्य च भो द्विजा
मतृं शुभूषर्ण धर्मों यथा स्रोणां परीमतः।
ममाज्ञापालन धर्मों भवतां च तथा द्विजाः
देह्यनुज्ञा महाराज मा धर्मों यस्तु संक्षयम।
हविर्षा परिणातोऽयं यदेतदखिल जगत।
इति विशाप्यमाननौऽपि सवेन परमर्षिभिः।
यदा ददाति नानुज्ञां प्रोक्त-प्रोक्त पुनः पुनः
तमस्ते मुनयः सर्वे कोषमर्ष समन्विताः।
हन्यता हन्यतां पाप इत्युयुस्ते परस्पम।
यो यज्ञपुरुष विष्णुमनादितिधन प्रभुम।
विनिन्दत्लधर्मोचारों न स योग्यो भुवः पतिः।
इत्युक्तवा यन्तपुतैंस्तैः कुर्शर्मुदिगणा नृपम्।
निजध्नुर्निपत पूर्व भगवन्निन्ददिना।
हे द्विजगण! यह जानकार मेरे आदेश का पालन करो, किसी को भी दान, यज्ञ, हवन नहीं करना चाहिए। हे ब्राह्मणों! जैसे स्त्री का काम धर्म पति सेवा है, वैसे ही आपका परम धर्म मेरी आज्ञा का पालन है। ऋषियों ने कहा हे राजन आपका आदेश ऐसा होना चाहिए कि जिससे धर्म का नाश न हो। देखिए यह संपूर्ण विश्व हरि से ही उत्पन्न हुआ है।
श्रीपराशरजी ने कहा, जब महर्षियों के बराबर समझाने पर भी धेनु न माना, तो वे अत्यंत क्रोध पूर्वक परस्पर में कहने लगे कि इस पापात्मा को मार डालो, जो अनादि एवं अनंत यज्ञेश्वर विष्णु का निंदक है, वह आचरण हीन पुरुष राजा होने के योग्य नहीं हैं। यह कह कर उन महर्षियों ने प्रभु निंदा के कारण पहले से ही मृत हुए उस राजा का मंत्र पूत कुशों के आघात से वध कर दिया।
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