शिक्षा व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने की चुनौती

By: Jan 23rd, 2018 12:05 am

सुरेश शर्मा

लेखक, राजकीय महाविद्यालय नगरोटा बगवां में सह-प्राध्यापक हैं

वर्तमान शिक्षा व्यवस्था में विद्यार्थी, अभिभावक, शिक्षक और अधिकारी कोई भी संतुष्ट नहीं दिखता। बड़े-बड़े शिक्षा अभियानों में संसाधनों का दुरुपयोग हो रहा है। इन योजनाओं में अरबों रुपए खर्च हो रहे हैं। विद्यार्थियों पर नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। शिक्षण संस्थान, संस्थान न रहकर प्रयोगशाला बन चुके हैं…

हिमाचल प्रदेश में नई सरकार द्वारा कार्यभार संभालते ही नए सूर्य का उदय हुआ है। लोगों में नई उमंग, नई आशाएं व उम्मीदें हिलोरे ले रही हैं। सरकार बदलते ही सबको ऐसा लगता है कि अब सरकार हमारी है। हर पुरानी व्यवस्था को बदलने की बात की जाती है। नए तरीके से अपनी सुविधा के अनुसार व्यवस्था को बदलने की बात की जाती है, जबकि लोग वही, वही अधिकारी, वही योजनाएं, वही संस्थान। कहीं भी कोई बदलाव नहीं आया है। विचारणीय है कि हमारे उद्देश्य क्या थे और हमने उन्हें प्राप्त करने के लिए मौजूद संसाधनों के माध्यम से कितना लक्ष्य हासिल किया तथा इन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए क्या किया जाना आवश्यक है। यहां पर यह भी बात ध्यान देने वाली है कि केवल व्यवस्थाएं व सरकारें बदलने से कुछ नहीं होता, जब तक उस व्यवस्था में कार्य कर रहे व्यक्तियों की मानसिकता व कार्यशैली में बदलाव न हो। लोगों को भी अपनी सोच को बदलकर, जिस स्थान पर भी वह कार्य कर रहे हैं, निष्ठा व पूर्ण समर्पण से कार्य करना होगा।

प्रदेश सरकार के शिक्षा मंत्री द्वारा सरकारी पाठशालाओं में विद्यार्थियों की घटती संख्या पर चिंता व्यक्त करना तथा सरकार के नए शिक्षा सचिव द्वारा सरकारी स्कूलों का लोगों द्वारा भरोसा खो देने की बात कहना शिक्षा व्यवस्था पर बहुत से प्रश्न खड़े करता है। प्रदेश सरकार के शिक्षा मंत्री ने सरकारी स्कूलों में बेहतर अध्यापक, अधोसरंचना व शिक्षक होने के बावजूद विद्यार्थियों के नामांकन कम होने पर अपनी चिंता व्यक्त की है। आश्चर्य है कि शिक्षा में भौतिक संसाधनों व अरबों रुपए की उपलब्धता होने पर भी सरकारी शिक्षा की विश्वसनीयता कायम नहीं रह पाई है। प्रारंभिक स्तर से लेकर उच्च व उच्चतर शिक्षण संस्थानों का मूल्यांकन हो, तो सही परिणाम सामने आ जाएंगे कि हमने शिक्षा के लक्ष्यों को किस स्तर पर प्राप्त किया है। हम सभी शिक्षा की गुणवत्ता पर केंद्रित हैं, परंतु गुणवत्ता हमसे कोसों दूर भाग रही है। इस आधुनिक शिक्षा ने हमें आंकड़े दिखाने के लिए साक्षर तो जरूर बना दिया है, परंतु मूल्यों पर आधारित व गुणवत्ता से युक्त शिक्षा कहीं नजर नहीं आ रही। इस शिक्षा व्यवस्था में विद्यार्थी, अभिभावक, शिक्षक और अधिकारी कोई भी संतुष्ट नहीं दिखता। बड़े-बड़े शिक्षा अभियानों में साधनों व संसाधनों का दुरुपयोग हो रहा है। इन योजनाओं में अरबों रुपए खर्च हो रहे हैं। विद्यार्थियों पर नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं। शिक्षण संस्थान, संस्थान न रहकर प्रयोगशाला बन चुके हैं। समाज में अभिभावक अपने बच्चों के लिए चिंतित हैं। प्रबुद्घ चिंतक, विचारक व शिक्षाविद शैक्षिक रूप से हो रही इस त्रासदी से परेशान हैं। आखिर यह हो क्या रहा है? हम कैसा बदलाव लाना चाहते हैं? कैसा समाज व कैसा भविष्य बनाना चाहते हैं?

कोई भी व्यक्ति किसी भी बदलाव से संतुष्ट नहीं दिखता। अपनी सुविधा के अनुसार बदलाव होना चाहिए। विद्यार्थियों के भविष्य, समाज व देश की किसे परवाह है? इस तरह की व्यक्तिवादी सोच समाज व देश को अंधकार की गर्त में ले जा सकती है। व्यक्तिगत हितों को न साधकर हमें विद्यार्थियों के भविष्य तथा समाज व देश के भविष्य के बारे में सोचना होगा। सरकारी स्कूलों में विद्यार्थी हैं, तो भवन नहीं। भवन हैं, तो शिक्षक नहीं। सब कुछ संसाधन उपलब्ध हैं, तो स्पष्ट दिशा नहीं। हमारी शिक्षा संख्यात्मक हो गई है। गुणात्मक शिक्षा की ओर किसी का भी कोई ध्यान नहीं। क्या हम सच में अपने शिक्षा के लक्ष्य से भटक चुके हैं? हमारी शिक्षा व्यवस्था को विद्यार्थियों के भविष्य को ध्यान में रखना होगा। इन विद्यार्थियों के निर्माण में कोई भी चूक समाज व राष्ट्र को अंधकार में धकेल सकती है। किसी भी बच्चे का जीवन अमूल्य होता है। उस जीवन को सही दिशा देना अभिभावकों, शिक्षकों व शिक्षा व्यवस्था का दायित्व होता है। विद्यार्थी का जीवन केवल नए-नए प्रयोग करने का उपकरण नहीं है। उसे सही शिक्षा, संस्कार व जीवन मूल्यों से आकार देना शिक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी है। पाठशालाओं, महाविद्यालयों व विश्वविद्यालयों की संख्या तथा विद्यार्थियों की संख्या के आंकड़ों व पुरस्कारों से हम शिक्षा की सफलता का निर्धारण नहीं कर सकते। संख्यात्मक आंकड़ों की शिक्षा नहीं, बल्कि शिक्षा की गुणवत्ता से पूर्ण होनी चाहिए। सरकार के अधीन सरकारी व गैर सरकारी दोनों ही तरह की व्यवस्था है। गैर सरकारी पाठशालाएं अपनी इच्छा से नहीं, सरकार के मानकों के अनुरूप ही खुलती हैं। अगर सरकारी मानक व नियम निजी संस्थानों पर लगाम रखते हैं, तो सरकारी पाठशालाओं पर सरकार का नियंत्रण क्यों नहीं रहता? इसके लिए सरकार किसे दोषी ठहरा सकती है? शिक्षा की गुणवत्ता के संबंध में एक नहीं, बल्कि अनेक विषयों पर ध्यान देना आवश्यक है। हम केवल सरकार को ही शिक्षा अव्यवस्था में दोषी नहीं ठहरा सकते।

सरकार तो व्यवस्था पर नियंत्रण रखती है तथा शिक्षा कार्यक्रमों को आगे बढ़ाने के लिए संसाधनों की व्यवस्था करती है। विद्यार्थियों, अभिभावकों, शिक्षकों तथा शिक्षा अधिकारियों को भी अपने दायित्व समझने होंगे। शिक्षा कार्यक्रमों को अर्थपूर्ण बनाने के लिए शिक्षा के उद्देश्यों, विभिन्न कक्षाओं के पाठ्यक्रमों, परीक्षा प्रणाली, भौतिक संसाधनों, विभाग व पाठशालाओं के शिक्षण कार्यक्रमों में तालमेल, शिक्षक स्थानांतरण नीति तथा शिक्षक सम्मान योजना पर पूर्ण रूप से बदलाव की आवश्यकता है। केवल आंकड़ों को प्रस्तुत कर हम अपनी पीठ थपथपा नहीं सकते। हमें वास्तव में शिक्षा उद्देश्यों को समझाना होगा तथा मूलभूत बदलाव लाकर समाज के सभी वर्गों को समर्पित भाव से जुटना होगा।

ई-मेल : suresh9418026385@gmail.com


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